जोगियों के शहर में योगी का भ्रमजाल
।। निराला ।। राप्ती के तट पर बसा पूर्वी उत्तर प्रदेश का शहर गोरखपुर पिछले कई वर्षों से लगातार खबरों में बना है. परमहंस योगानंद की जन्मभूमि गोरखपुर भारत के पुराने शहरों में से एक है. सांस्कृतिक रूप से जीवंत इस शहर की पहचान बदल रही है. कैसे? पढि़ए यह टिप्पणी. गोरखपुर- यानी एक ऐसा […]
।। निराला ।।
राप्ती के तट पर बसा पूर्वी उत्तर प्रदेश का शहर गोरखपुर पिछले कई वर्षों से लगातार खबरों में बना है. परमहंस योगानंद की जन्मभूमि गोरखपुर भारत के पुराने शहरों में से एक है. सांस्कृतिक रूप से जीवंत इस शहर की पहचान बदल रही है. कैसे? पढि़ए यह टिप्पणी.
गोरखपुर- यानी एक ऐसा शहर, जिसे बचपन से ही जाना. गीता प्रेस के जरिए. गोरखनाथ मंदिर के जरिए. थोड़ा बड़े होने पर फिराक गोरखपुरी का अपना शहर होने की वजह से. चौरी-चौरा के क्रांतिकारियों की वजह से. क्रांतिकारी कवि और गीतकार गोरख पांडेय की वजह से भी. बलेसर के बिरहा के जरिए भी गोरखपुर को सबसे ज्यादा जाना. नीक लागे टिकुलिया गोरखपुर के… जैसे गीत. हालिया वर्षों में गोरखपुर के साथियों द्वारा फिल्म फेस्टिवल की जो शुरु आत हुई है, उस वजह से भी उस शहर से एक स्वाभाविक लगाव हुआ था. गोरखपुर से ही सटे औरंगाबाद गांव के टेराकोटा आर्ट के शिल्पियों की कहानी भी सुनता रहा था. बच्चों को कीड़े-मकोड़े की तरह पट-पटा कर मार देनेवाली रहस्यमयी बीमारी इंसेफलाइटिस की राजधानी के रूप में विकसित हुए गोरखपुर को भी जाना.
वर्षों तक तिवारी और शाही के बीच चले मुठभेड़ के बहाने सवर्णों के दो गुटों के वर्चस्व की लड़ाई के जरिए भी गोरखपुर को जाना-समझा था. बाद में बाहुबली और चर्चित शूटर श्रीप्रकाश शुक्ला के कारण भी. लेकिन गोरखपुर इलाके से सबसे ज्यादा अनुराग वहां के जोगियों की वजह से था, जिन्हें बचपन में ही अपने गांव में सारंगी लिये आते हुए देखता था और उनके गीतों को सुनते रहता था. अबकी बरस बहुरी नहीं अवना से लेकर केहू ना चिन्ही, माई ना चिन्ही, भाई ना चिन्ही… जैसे गीत.
वैरागी मन से जीवन का मायने बतानेवाले जोगी गीत. उन जोगियों के गीत सुनते हुए मानस में गोरखपुर एक अलग तरीके से रचा-बसा रहा हमेशा. यही लगता रहा कि उस इलाके की आबो-हवा का ही तो असर रहा होगा कि वहां से सिद्ध होकर या वहां सिद्ध होने की कतार में लगे जोगी जीवन के ऐसे गीत गाते हैं.
उन जोगियों की वजह से बचपने से ही गोरखपुर की एक ऐसी तगड़ी पहचान रची-बसी मन में कि हालिया वर्षों में बार-बार वहां के एक दूसरे योगी की बात बार-बार आने पर भी लगता रहा कि यह नये योगी एक क्षणिक प्रवृत्ति की तरह है, गोरखपुर की प्रकृति के अनुकूल नहीं. नये योगी यानी गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ, जो आये दिन सुर्खियों में रहते हैं. योगी का हालिया बयान, जो चरचे में है और उसके पहले भी सुने गये बयानों के बावजूद लगता है कि वह एक व्यक्ति के खुराफाती मगज की उपज हैं, उससे शहर के बारे में क्या धारणा बदलना. लेकिन तीन सितंबर को प्रेस क्लब एसोसिएशन के शपथ ग्रहण समारोह के बहाने पहली दफा गोरखपुर जाने पर धारणा बदली. गुरु गोरखनाथ की परंपरा के अनुयायी और निकट भविष्य में गोरखनाथ मंदिर के प्रमुख बन जाने को तैयार और साथ ही भाजपा के बहुचर्चित सांसद आदित्यनाथ के बारे में जानकर तो धारणा बदली ही, उनके कृत्यों और कारनामों पर शहर की चुप्पी पर भी.
जिस दिन गोरखपुर पहुंचे, उस दिन वहां के सभी अखबारों में योगी आदित्यनाथ की बड़ी-बड़ी तसवीरें छपी थीं. बिजली को लेकर सड़क पर प्रदर्शन करते हुए. मालूम हुआ कि योगी आदित्यनाथ को बस यही और एक दूसरा काम करना साध कर आता है. बात-बेबात, धरना-प्रदर्शन और जरा-सी बात पर जहरीले बयान देकर एक खौफ का माहौल बना देना. आदित्यनाथ के बारे में जानकारी लेने की कोशिश करते रहे, गोरखनाथ मंदिर के राजनीतिक वर्चस्व के बारे में पता चला.
मालूम हुआ कि आजादी के बाद से चार-पांच मौके को छोड़ दें तो अधिकांश समय तक किसी न किसी रूप में गोरखनाथ मंदिर का ही कब्जा रहा वहां की संसदीय राजनीति में. कभी हिंदू महासभा के जरिए तो बाद में भाजपा के जरिए. गोरखपुर में साथियों से पूछा कि जब आदित्यनाथ बोलते हैं तो देश भर में बवाल मचता है, गोरखपुर में क्या होता है! जवाब मिला- कुछ नहीं होता! होगा क्या? एक बड़ा खेमा है जो खुश हो लेता है कि उसका सांसद ऐसा है, जिसकी चर्चा देश भर में होती है और एक खेमा है जो आपस में ही बतकही कर के अपना दायित्व पूरा कर लेता है.
मालूम हुआ कि योगी आदित्यनाथ कभी भी, कुछ भी बोल सकते हैं, यह गोरखपुर का हर कोई जानता है. या यूं कहें कि पिछले तीन बार से वे बोल कर ही सांसद बनते रहे हैं. सिर्फ एक बार को छोड़ दें तो उन्हें कभी तगड़ी चुनौती नहीं मिली. गोरखपुर में ही मालूम हुआ कि यहां जरा-जरा सी बात पर हिंदू मुसलमानों के बीच कुछ होता है, घरेलू विवाद भी हो, तो धमकाया जाता है कि ठीक है… तो हमरी बात नहीं मानोगे तो जाते हैं कल योगी जी के दरबार में, कह देंगे. बताया गया कि योगी और उनके हिंदू वाहिनी सेना के लोग, जिसका गठन योगी ने एक बार चुनाव में कड़ी चुनौती मिलने के बाद किया था, का लोग हर रोज इंतजार करते रहते हैं कि कहीं भी हिंदू-मुसलिम विवाद के नाम पर कोई मसला आये तो वे तुरंत जाकर जबरिया हस्तक्षेप करे और हड़का आयें.
हम गोरखपुर में बार-बार पूछते रहे कि इतनी बार सांसद रहे आदित्यनाथ, उसके पहले उनके गुरु भी सांसद रहे, गोरखपुर में कोई ऐसा निर्माण कार्य, जो इनकी सांसदी में हुआ हो! कोई जवाब नहीं दे पाता. यह मालूम जरूर चलता है कि योगी आदित्यनाथ के सांसदी फंड के पैसे उपयोग के अभाव में लौट जाते हैं हर साल. कुछ लोग बताते हैं कि अभी जो उनका अपना आयुर्वेदिक मेडिकल कॉलेज है, उसे मेडिकल कॉलेज में बदलने की तैयारी है, यही एक काम जोड़ सकते हैं. बाकी जो भी काम गोरखपुर में दिखता है, वह वीर बहादुर सिंह ने ही किया था.
सवाल होता है कि आखिर फिर कैसे जीत जाते हैं आदित्यनाथ हमेशा. जवाब मिलता है- सभी दल के लोग मिल कर सहयोग करते हैं और आदित्यनाथ भी जानते हैं कि दलों के साथ जनता को मिल कर सहयोग करना ही होगा, नहीं तो वे कहीं के नहीं रहेंगे! इसकी वजह यह कि आदित्यनाथ और उनकी हिंदू ब्रिगेड हिंदू वाहिनी सेना ने पूरे इलाके में हिंदू-मुसलमानों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर इतनी दूरी बढ़ा दी है कि अब सबको यह लगता है कि एक बार भी योगी आदित्यनाथ नहीं रहे तो इतने वर्षों का बदला भी हमसे लिया जा सकता है, जबकि यह आदित्यनाथ के लोगों द्वारा फैलाये गये भ्रम के अलावा कुछ भी नहीं.
हम बार-बार पूछते हैं लोगों से कि यह शहर इंसेफलाइटिस की बीमारी का गढ़ है, हर साल बच्चे मरते हैं, आदित्यनाथ की ओर से क्या किया गया उसे लेकर. बताया गया कि योगीजी ने एक फार्मूला तय कर लिया है. हर साल एक पैदल मार्च निकालते हैं इंसेफलाइटिस के खिलाफ, अखबारों में बड़ी-बड़ी खबरें छपती हैं और फिर संसद में कुछ सवाल उठाते हैं, कुछ दिनों बाद उसकी बुकलेट तैयार होकर बांट दी जाती है कि देखिए सांसदजी ने कितने सवाल उठाये गोरखपुर वालों के लिए. गोरखपुर की बातों से मालूम हो जाता है कि आदित्यनाथ की असली ताकत गोरखपुर का विकास या गोरखपुर को आगे ले जाने की रणनीति वाली राजनीति नहीं बल्कि मानसिक तौर पर और पीछे, और पीछे बना कर ही खुद को आगे बढ़ाने की रणनीति रही है.
हमें आश्चर्य होता है. पूछते हैं कि आदित्यनाथ के कहे पर देश भर में विरोध होते हैं, गोरखपुर में ऐसा क्यों नहीं होता. इसका जवाब कोई नहीं देता. सब कहते हैं कि विरोध करनेवाली संस्थाएं सिमट गयी हैं. व्यक्ति भी सिमट गये हैं. नाटक की सौ से ज्यादा मंडलियां यहां थीं, सबकी गतिविधियां थमी हुई हैं. कई सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन थे, जो विरोध के स्वर निकालते थे. सब अपने अपने काम में लगे हुए हैं. किसी भी दूसरे दल के नेता गोरखुपर तभी आना चाहते हैं या गोरखपुर पर तभी बात करना चाहते हैं, जब उन्हें टिकट मिल जाता है. बाकी समय तक योगी को वाकओवर मिला रहता है, मनमर्जी का, आग उगलने का, प्रदर्शन की राजनीति करने का, कुछ भी काम नहीं कर के सिर्फ इलाके का दौरा कर नेता बने रहने का…
(लेखक समाचार-पत्रिका तहलका के वरिष्ठ पत्रकार हैं)