निजी शिक्षा का नियमन
सरकार को चाहिए कि वह ‘शिक्षा पारदर्शिता कानून’ बनाये. हर स्कूल के लिए सूचनाओं को वेबसाइट पर डालना अनिवार्य बना देना चाहिए. स्कूल को छूट हो कि वह मुनाफा कमाये, परंतु इसे बताना अनिवार्य बना दिया जाये. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षकों का आह्वान किया है कि नौकरी पाने के लिए उपयुक्त शिक्षा के साथ-साथ […]
सरकार को चाहिए कि वह ‘शिक्षा पारदर्शिता कानून’ बनाये. हर स्कूल के लिए सूचनाओं को वेबसाइट पर डालना अनिवार्य बना देना चाहिए. स्कूल को छूट हो कि वह मुनाफा कमाये, परंतु इसे बताना अनिवार्य बना दिया जाये.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षकों का आह्वान किया है कि नौकरी पाने के लिए उपयुक्त शिक्षा के साथ-साथ छात्रों में देश, समाज तथा पर्यावरण के प्रति क्रिएटिव थिंकिंग जागृत करें. उनके आह्वान का स्वागत है. लेकिन, यदि टीवी पर प्रतिदिन पिज्ज का प्रचार किया जाये, तो कक्षा में सात्विक भोजन की दी गयी सीख निष्फल हो जाती है. अत: शिक्षकों का मनोबल बढ़ाने के साथ-साथ देश की शिक्षा व्यवस्था के ढांचे में सुधार लाना भी जरूरी है.
आज देश की शिक्षा का केंद्र निजी स्कूल हो गये हैं. मध्यम वर्ग के बच्चों को मुख्यत: यहीं भेजा जाता है. निजी स्कूलों द्वारा अकसर मनमानी की जाती है.
फीस अधिक तथा शिक्षकों की क्वॉलीफिकेशन कम होती है. इन समस्याओं के हल को अकसर निजी स्कूलों पर सरकारी नियंत्रण की मांग की जाती है. लेकिन इसमें सरकारी दखल की अलग समस्याएं है. पूरे देश में सरकारी स्कूलों का खस्ताहाल बताता है कि सरकार की दखल से निजी स्कूलों का भी यही हाल हो जायेगा. पाठ्यक्रम में सरकारी दखल पहले ही हो चुकी है. फीस के साथ-साथ शिक्षकों के वेतन एवं सेवा की शर्तो आदि पर भी सरकारी महकमा हावी हो जायेगा. शिक्षा के अधिकार कानून से निजी स्कूलों की स्वायत्तता पहले ही संकट में है. 25 प्रतिशत गरीब बच्चों को आयु के अनुसार कक्षा में प्रवेश देने एवं अनिवार्यत: प्रमोट करने से पूरी क्लास की गति शिथिल पड़ रही है. फीस पर नियंत्रण के द्वार से शुरू हुई सरकारी दखल शीघ्र ही सर्वव्यापी हो जायेगी और पूरी निजी शिक्षा संकट में आ जायेगी.
समस्या की तह में अभिभावकों की सोच है कि ऊंची फीस वसूल करनेवाले स्कूल में शिक्षा की गुणवत्ता अच्छी होती है. लेकिन ऊंची फीस और अच्छी शिक्षा का संबंध संदिग्ध है. दुबई में दो श्रेष्ठ स्कूल दुबई मॉडर्न हाइस्कूल तथा इंडियन हाइस्कूल हैं. दुबई मॉडर्न द्वारा किंडरगार्टेन में वार्षिक 28 हजार दिरहम फीस ली जाती है, जबकि इंडियन हाइस्कूल द्वारा मात्र 4 हजार दिरहम. फिर भी दोनों श्रेष्ठ हैं. इससे पता चलता है कि कम फीस पर भी अच्छी शिक्षा दी जा सकती है.
युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया के प्रोफेसर जॉन मैकडरमॉट कहते हैं, ‘एक न्यूनतम स्तर के आगे प्रति छात्र खर्च बढ़ाने से टेस्ट में सफलता पर प्रभाव नही पड़ता है. घरेलू पृष्ठभूमि और दूसरी सामाजिक स्थितियों का शैक्षिक परफार्मेस पर ज्यादा प्रभाव पड़ता है.’ अमेरिका में वाबाश नेशनल स्टडी द्वारा 10 कॉलेजों का अध्ययन किया गया, जिनकी शैक्षणिक उपलब्धि बराबर थी. पाया गया कि इनके द्वारा प्रति छात्र खर्च नौ हजार डॉलर से लेकर 53 हजार डॉलर प्रतिवर्ष था. खर्च में इतने अंतर के बावजूद शैक्षणिक उपलब्धि बराबर थी. इस अध्ययन के प्रमुख का कहना है कि कॉलेजों के खर्च व शिक्षा की गुणवत्ता के बीच संबंध शून्य प्राय है. भारत के लिए ऐसे अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं, परंतु मुङो भरोसा है कि यहां भी जमीनी स्थिति ऐसी ही है. अभिभावकों को फीस की जगह गुणवत्ता पर ध्यान देना चाहिए. जरूरत स्कूलों की गुणवत्ता के मूल्यांकन की है, जिस प्रकार होटलों को स्टार रैंकिंग दी जाती है.
स्कूलों की मुनाफाखोरी पर अंतत: बाजार द्वारा नियंत्रण हो जायेगा. वर्तमान समय बदलाव का है. अभिभावकों को शिक्षा का महत्व समझ आ रहा है. बच्चे के भविष्य के लिए वे खर्च करने को तैयार हैं. ऐसे में कुछ अग्रणी स्कूलों द्वारा ऊंची फीस वसूल की जा रही है. लेकिन जैसा ऊपर बताया गया है कि ऊंची फीस से गुणवत्ता स्थापित नहीं होती है. इस ऊंची फीस को अल्प समय का संकट मानना चाहिए. समय क्रम में दूसरे स्कूल खड़े हो जायेंगे, जो कम फीस में उतनी ही अच्छी शिक्षा देंगे. इन स्कूलों की प्रतिस्पर्धा से अंतत: अग्रणी स्कूल की फीस पर भी लगाम लगेगी. इसलिए स्कूलों के बीच प्रतिस्पर्धा के लिए नयी कॉलोनियों में एक के स्थान पर तीन स्कूलों के लिए प्लाट आवंटित करने चाहिए.
सरकार को चाहिए कि वह ‘शिक्षा पारदर्शिता कानून’ बनाये. हर स्कूल के लिए सूचनाओं को वेबसाइट पर डालना अनिवार्य बना देना चाहिए. स्कूल को छूट हो कि वह मुनाफा कमाये, परंतु इसे बताना अनिवार्य बना दिया जाये. गुणवत्ता के मानकों में शिक्षकों की सोच का भी मूल्यांकन कराना चाहिए. जैसे शिक्षकों की परीक्षा ली जाये, जिसमें उनसे देशभक्ति, सामाजिक समभाव, नैतिकता आदि से जुड़े प्रश्न पूछे जायें. इससे पता लगेगा कि अमुक स्कूल के शिक्षक समाज और देश के प्रति कितने जागरूक हैं. परीक्षाफल के आधार पर स्कूलों को सामाजिक संवेदनशीलता रैंक मिले. इससे अभिभावकों को पता लगेगा कि उनके बच्चों को कैसे संस्कार दिये जा रहे हैं. पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा, सभी धर्मो के मूल सिद्घांत तथा पर्यावरण जैसे विषयों को जोड़ना जरूरी है. इन सुधारों के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शिक्षकों का किया गया आह्वान अवश्य ही सफल होगा.
डॉ भरत झुनझुनवाला
अर्थशास्त्री
bharatjj@gmail.com