मोदी का तौर-तरीका एक जननेता वाला है, जो पूरे देश के साथ जीवंत संवाद में रहने की रणनीति पर चलने की कोशिश करता है. इससे देश के लोगों में अपने नेता के प्रति सम्मान और विश्वास की भावना जगती है, जो नेहरू-शास्त्री के बाद से लगभग नदारद रही है.
बीते 5 सितंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश भर के बच्चों से संवाद की पहल की. इससे पहले जापान यात्रा के दौरान भी वह बच्चों से घुले-मिले. एक बच्चे की कान उमेठ कर अपनी एक अलग छवि पेश करने की कोशिश की. मोदी का सौ दिन का कार्यकाल देखा जाये, तो उनके बहुत से क्रिया-कलाप पंडित नेहरू जैसे हैं.
नेहरू ने 14 नवंबर, 1956 को अपने जन्मदिन पर दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में बच्चों को संबोधित किया था. बच्चों ने पीटी के जरिये अपने प्रधानमंत्री का अभिवादन किया. संबोधन के बाद नेहरू खुली जीप में बच्चों के सामने से निकले, जिससे बच्चे उनको करीब से देख सकें. मोदी ने शिक्षक दिवस पर जो किया, वह नेहरू की इस पहल जैसा ही है. दोनों ने राजनीति के साथ अपने व्यक्तित्व का सम्मिश्रण कर छुट्टी के दिन का इस्तेमाल बच्चों से अपने तार जोड़ने के लिए किया. हालांकि मोदी की इस पहल को कुछ लोग पीआर कार्यक्रम के रूप में देख रहे हैं, लेकिन इस तरह का पीआर कार्यक्रम परंपरागत पीआर के रूप में नहीं, बल्कि इसके शाब्दिक अर्थो में लिये जाने की जरूरत है. मैंने पिछले दिनों कुछ वेबसाइट्स और अखबारों में इस बाबत तमाम तरह की बातें पढ़ीं, जिनमें से कुछ बातें वाकई मोदी को लेकर सोचने पर बाध्य करती हैं.
आजादी के बाद देश के नेता के तौर पर नेहरू के तौर-तरीकों को बारीकी से समझने पर पता चलता है कि प्रधानमंत्री मोदी भी उन्हीं की तरह अपनी एक सर्वमान्य छवि देश में बनाना चाहते हैं. मोदी का काम करने का तरीका, उनकी उपस्थिति, उनके हाव-भाव, सब में वह नेहरू की राह पर चलते दिखाई देते हैं. रोचक बात यह है कि मोदी नेहरू का नाम कहीं नहीं लेते और उनके बरक्स सरदार पटेल को ज्यादा बड़ा नेता सिद्ध करने की कोशिश करते रहते हैं.
वह नेहरू की लीगेसी को खत्म करते दिखाई देते हैं. योजना आयोग की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगाते हुए उसकी जगह नयी संस्था बनाने का उनका फैसला इस बात की ही पुष्टि करता है. हालांकि मोदी में पटेल के नहीं, बल्कि नेहरू के गुण ज्यादा दिखते हैं. वह नेहरू की तरह बड़ी जनछवि वाले नेता हैं, जिसके सहारे चुनाव जीते जा सकते हैं, लोगों के मानस को प्रभावित किया जा सकता है. पटेल इसके विपरीत संगठन के व्यक्ति थे. पार्टी या सरकार, दोनों में ही उनकी भूमिका परदे के पीछे से पेंच कसनेवाले की ही रही. मोदी संगठन के व्यक्ति नहीं दिखाई देते हैं. नेहरू करिश्माई व्यक्तित्व वाले थे, जिनके सहारे कांग्रेस 1937 से ही चुनाव जीतती रही. नेहरू अपनी इसी ताकत का इस्तेमाल कर पार्टी के साथ-साथ सरकार में भी प्रतिरोधों को मैनेज करने में कामयाब रहे. आजादी के बाद नेहरू ने देश के मानस को अपनी सोच से प्रभावित किया और अपने विशाल व्यक्तित्व का इस्तेमाल सेकुलरिज्म, डेमोक्रेसी एवं मिश्रित अर्थव्यवस्था के पक्ष में आम मानस तैयार करने में किया. अब मोदी अपने व्यक्तित्व को जिस तरह से प्रस्तुत कर रहे हैं, वह इसी दिशा में चलने की तैयारी जैसा प्रतीत होता है. महत्वपूर्ण सवाल यह है कि हमारी राजनीतिक संस्कृति में रचे-बसे नेहरूवियन विचारों को स्थानापन्न करने के लिए अभी मोदी के पास क्या है, सिवाय विकास के नारे के? राष्ट्रीय विमर्श में किन विचारों को वह केंद्र में लाना चाहते हैं, यह अभी स्पष्ट नहीं है.
कांग्रेस, जो 1937 से पहले तक दक्षिणपंथी झुकाव वाली मध्यमार्गी पार्टी मानी जाती थी, नेहरू ने उसे वामपंथी झुकाव वाली मध्यमार्गी पार्टी में बदल दिया. उनके पास स्पष्ट दृष्टि थी कि राष्ट्र के तौर पर समाज को किन मूल्यों की बुनियाद पर खड़ा करना है. उन्होंने समाज के मानस को इसके लिए सहज रूप से तैयार किया और आज तक वे चले आ रहे हैं.
अगर हम मोदी की बात करें, तो आरएसएस से उनके जुड़ाव ने ही उनकी राजनीति की दिशा तय की है. वह गुरु गोलवलकर से प्रभावित नजर आते हैं. लेकिन क्या गुरु गोलवलकर के विचार समावेशी हैं? वे गैर-हिंदुओं को पूर्ण नागरिकता देने के विरोधी थे और हिटलर से प्रभावित थे. वे मानते थे कि नाजियों ने यहूदियों से जिस तरह व्यवहार किया, उससे हिंदुओं को सीखना चाहिए. यानी जिस आधुनिक विकास की बात मोदी करते हैं, इस तरह की बौद्धिकता उसके खिलाफ ही है.
अब तक मोदी बहुत सावधान व सतर्क दिखाई देते रहे हैं, लेकिन सवाल फिर वही है कि आखिर मोदी देश को किस तरह के विचारों की राह पर ले जाना चाहेंगे. बहरहाल, मोदी का तौर-तरीका एक जननेता वाला है, जो पूरे देश के साथ जीवंत संवाद में रहने की रणनीति पर चलने की कोशिश करता दिखाई दे रहा है. यह जरूरी भी है. इससे देश के लोगों में अपने नेता के प्रति सम्मान और विश्वास की भावना जगती है, जो नेहरू-शास्त्री के बाद से लगभग नदारद रही है.
और अंत में..
पिछले दिनों मैंने उत्तर प्रदेश के एक अखबार में दो किशोर लड़कियों की आत्महत्या से संबंधित खबर पढ़ी, जिसमें उनमें से एक लड़की का सुसाइड नोट भी दिया गया था. यह सुसाइड नोट हमारे समाज के बारे में बहुत कुछ कहता है. मैं उसका एक अंश हूबहू यहां दे रहा हूं. आप भी पढ़ें और सोचें- ‘इस शहर का माहौल पूरी तरह बिगड़ गया है. यहां बहुत आवारा लड़के लड़कियों पर लाइन मारने के लिए घूमते रहते हैं. इसी तरह हमारे पीछे हर 2-3 दिन में कोई न कोई लड़का आता था, लेकिन हम तो उन लड़कों को जानते भी नहीं थे. फिर भी वे हमारे पीछे घूमते रहते थे और घर तक आ जाते थे.
इस वजह से दुनियावाले अफवाहें उड़ाते हैं. शहर की पुलिस ऐसे आवारा लड़कों के प्रति बहुत सख्त हो जाये, वरना हमारी तरह पता नहीं कितनी लड़कियां परेशान होकर आत्महत्या करेंगी. मैंने भी हमेशा अपने पैरेंट्स का नाम ऊंचा करने के लिए कड़ी मेहनत की है. हमेशा चाहा है कि कभी भी मैं उनका सिर न झुकने दूं. मेरा हमेशा से सपना था कि मैं अपने दम पर अमेरिका जाऊं और मम्मी-पापा को भी वहां की सैर कराऊं. मैं यह चाहती थी कि मेरे पैरेंट्स जहां भी जायें, उन्हें वहां मेरे नाम व मेरी अच्छाइयों की वजह से जाना जाये. मैंने उसी की तैयारी में सारा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित कर रखा था, ताकि अमेरिका जाने का सपना पूरा कर सकूं. लेकिन पिछले 2-3 महीने से इतना तनाव बढ़ गया कि पढ़ाई में भी कम ध्यान लग पा रहा था. टेंशन की वजह से बीमार भी रहने लगी थी..’
नोट में उसने अपनी मां से कहा है कि उसके भाई-बहन कीर्ति और विपांशु को हमेशा दोस्तों की तरह रखना, ताकि वे अपनी कोई भी बात शेयर करने में हिचकिचाहट न करें. क्योंकि मैं नहीं चाहती कि वो भी मेरी तरह दिमाग में टेंशन पालकर सुसाइड करने की सोचें.
राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर
प्रभात खबर
rajendra.tiwari@prabhatkhabar.in