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क्या ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बुलेट ट्रेन’ और ‘मेक इन इंडिया’ की गूंज के बीच विश्व-बाजार को जीतने को आतुर भारतीय आजादी के आंदोलन के पुरखों को याद करते हुए इस पितृपक्ष में एक हिंदू को लिखी इस चिट्ठी को फिर से पढ़ना चाहेंगे? सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकारों में एक लियो टॉल्स्टॉय की बीते नौ सितंबर को 186वीं […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 15, 2014 7:43 AM

क्या ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बुलेट ट्रेन’ और ‘मेक इन इंडिया’ की गूंज के बीच विश्व-बाजार को जीतने को आतुर भारतीय आजादी के आंदोलन के पुरखों को याद करते हुए इस पितृपक्ष में एक हिंदू को लिखी इस चिट्ठी को फिर से पढ़ना चाहेंगे?

सर्वकालिक सर्वश्रेष्ठ उपन्यासकारों में एक लियो टॉल्स्टॉय की बीते नौ सितंबर को 186वीं वर्षगांठ थी. हम भारतीयों के लिए टॉल्स्टॉय को याद करना इस पितृपक्ष में अपने पुरखे का स्मरण करने जैसा है. आजादी की जिस लड़ाई ने इस देश को पुनर्जन्म दिया, उस लड़ाई की वैचारिकी के तार टॉल्स्टॉय से भी जुड़े थे.

टॉल्स्टॉय ने अपने घर यास्नाया पोलयाना से 14 दिसंबर, 1908 को एक चिट्ठी तारकनाथ दास को लिखी. विदेश के कई नामी विश्वविद्यालयों में शिक्षक रहे तारकनाथ का नाम शुरुआती भारतीय राष्ट्रवादियों में शुमार है. टॉल्स्टॉय की इस चिट्ठी को आज हम तारकनाथ के कारण कम, महात्मा गांधी के कारण ज्यादा जानते हैं. गांधी की इच्छा थी कि हिंदुस्तान की सारी भाषाओं में यह पत्र अनूदित हो. ऐसा क्या था ‘ए लेटर टू ए हिंदू’ शीर्षक वाले इस पत्र में, जो गांधी ने चाहा कि हर हिंदुस्तानी उसे अपनी भाषा में जरूर पढ़े?

पत्र को लेकर गांधीजी के मन में जो अंधड़ उठे, उसकी एक बानगी खुद इस पत्र के बारे में लिखी उनकी टिप्पणी से मिलती है. पत्र पुस्तकाकार प्रकाशित है, इसलिए यह टिप्पणी अब उसकी भूमिका के रूप में मिल जाती है. नौ नवंबर, 1909 यानी हिंद स्वराज के प्रकाशन के साल लिखी इस टिप्पणी में गांधी ने टॉल्स्टॉय के कहे को एक यूरोपीय के द्वारा यूरोप की सभ्यता से इनकार के रूप में पढ़ा और लिखा कि ‘जब टॉल्स्टॉय जैसा व्यक्ति, जो पश्चिमी जगत के सर्वाधिक सुलझे हुए चिंतकों और महानतम लेखकों में एक हैं, ने खुद एक फौजी के रूप में जान लिया है कि हिंसा क्या है और क्या कर सकती है, तो अंगरेजी शासन से छुटकारा पाने के लिए अधीर हुए जा रहे हमलोगों के लिए ठहर कर सोचने का वक्त है.

क्या हम एक बुराई की जगह दूसरी ज्यादा बड़ी बुराई (आधुनिक विज्ञान और भौतिक प्रगति का विचार) की राह हमवार नहीं करने जा रहे. विश्व के महानतम धर्मो की क्रीड़ास्थली भारत अगर आधुनिक सभ्यता की राह पर चलते हुए अपनी पवित्र धरती पर बंदूकों के कारखाने खड़े करता है, तो फिर भारत चाहे और कुछ जो भी बन जाये, भारतीय होने के अर्थ में एक राष्ट्र नहीं बन सकता.’

टॉल्स्टॉय इस पत्र में अपने जीवन की मूल प्रेरणा को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- ‘संख्या में थोड़े से लोगों द्वारा एक बड़ी आबादी का दमन और इस दमन से पैदा होनेवाली आत्महीनता- हमेशा मेरे मन को मथती रही है. बड़ी विचित्र बात है कि ज्यादातर मेहनतकश लोगों की मेहनत और जीवन पर मुठ्ठी भर निठल्लों का कब्जा है और उनका जीवन हर जगह एक सी (दयनीय) दशा में है.’ पत्र में वे पुराने (धर्मभाषा की प्रधानता वाले) और नये (विज्ञान भाषा की प्रधानता वाले) युग की तुलना करते हैं और उन्हें लगता है कि चंद लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी की मेहनत व जीवन को कैद रखने का चलन अब भी जारी है, सिर्फ सिद्धांत बदल गये हैं. सत्ता प्रतिष्ठान इन सिद्धांतों को बड़ी बारीकी से बुन कर प्रचार करते और इस सफाई के साथ उनका समर्थन करते हैं कि दमन के चपेटे में आये ज्यादातर लोगों को लगता है, ये सिद्धांत सही हैं.

टॉल्स्टॉय का तर्क है कि पहले खुद को ईश्वरअंशी समझनेवाले राजागण अपना हुक्म फटकारते थे. आज ईश्वर की जगह ले ली है वैज्ञानिक नियमों और इसकी दावेदारी वाले इतिहास ने. पहले कहा जाता था, ईश्वर से छुटकारा नहीं है और आज कहा जाता है कि इतिहासधारा की प्रगति से छुटकारा नहीं है. टॉल्स्टॉय का इशारा यहां प्रगति के उस वैज्ञानिक दावे की तरफ है, जिसके तहत उपनिवेश बसाये गये और एशियाई-अफ्रीकी जनता को गुलाम बनाते वक्त कहा गया कि यह प्रक्रिया मानवता को वैज्ञानिक चेतना के साथ स्वतंत्रता के लोक में ले जायेगी.

चंद लोगों की एकाधिकारी पकड़ से बहुसंख्यक लोगों के जीवन को मुक्त करने के संकल्प में लोकतंत्र कारगर हो पायेगा, इस पर टॉल्स्टॉय को गहरा संदेह है. पत्र में वे लिखते हैं, ‘जिसे हम लोकतंत्र कहते हैं, वह बहुसंख्यक लोगों के भले के लिए थोड़े से लोगों के हितों की कुर्बानी जायज है, जैसे विचार को प्रतिष्ठित करती है. किसी के खिलाफ हिंसा का प्रयोग करते समय अगर धर्मभाषा के वर्चस्व वाले दौर में कहा जाता था कि यह फैसला जायज है, क्योंकि फैसला देनेवाला ईश्वरअंशी (राजा) है, उसी तरह आज (लोकतंत्र का) विज्ञान कहता है कि (किसी पर हिंसा के) इन फैसलों पर जनता की मर्जी की मोहर है और इसकी अभिव्यक्ति हुई है विधि द्वारा स्थापित एक सरकार में, ऐसी सरकार जो खुद जनता की अपेक्षाओं को साकार करने के चुने गये प्रतिनिधियों से बनी है.’

सोचता हूं, क्या ‘स्मार्ट सिटी’, ‘बुलेट ट्रेन’ और ‘मेक इन इंडिया’ की गूंज के बीच विश्व-बाजार को जीतने को आतुर भारतीय आजादी के आंदोलन के पुरखों को याद करते हुए इस पितृपक्ष में एक हिंदू को लिखी इस चिट्ठी को फिर से पढ़ना चाहेंगे?

।। चंदन श्रीवास्तव ।।

एसोसिएट फेलो, सीएसडीएस

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