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पूंजी से जुड़ा हृदय बदल नहीं सकता

गांधी का स्वप्न स्वतंत्र भारत में पूरी तरह खत्म हो चुका है. पूंजीवादी व्यवस्था में वह साकार नहीं हो सकता. स्वतंत्र भारत में अंधेरा और गहन हुआ है. अंधेरे में डूबे भावी भारत का भयानक-आततायी दृश्य मुक्तिबोध ने देख लिया था. पचास वर्ष पहले तीन बड़ी घटनाओं में से एक मुक्तिबोध का निधन (11 सितंबर, […]

गांधी का स्वप्न स्वतंत्र भारत में पूरी तरह खत्म हो चुका है. पूंजीवादी व्यवस्था में वह साकार नहीं हो सकता. स्वतंत्र भारत में अंधेरा और गहन हुआ है. अंधेरे में डूबे भावी भारत का भयानक-आततायी दृश्य मुक्तिबोध ने देख लिया था.
पचास वर्ष पहले तीन बड़ी घटनाओं में से एक मुक्तिबोध का निधन (11 सितंबर, 1964) भी है. उनके पहले नेहरू का निधन हो चुका था और उसी वर्ष भारत की कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हुई. मुक्तिबोध के निधन की अर्धशती पर एक बार फिर उन्हें व्यापक रूप से याद किया जा रहा है. पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में उन पर लेख प्रकाशित हो रहे हैं और दिल्ली से राजनांदगांव-रायपुर तक उनकी स्मृति में राष्ट्रीय आयोजन हो रहे हैं. उनकी जन्मशती के दो-तीन वर्ष पूर्व उनके स्मरण का यह सिलसिला जन्मशती तक रुक-रुक कर ही सही, निरंतर जारी रहेगा.
पचास वर्ष पहले के भारत और आज के भारत में कहीं कोई समानता नहीं है. योजना आयोग समाप्त हो चुका है. नेहरू की मिश्रित अर्थ-व्यवस्था 1990-91 में ही नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के कारण समाप्त हो चुकी थी. कल्याणकारी राज्य की जगह एक प्रकार से कॉरपोरेट-राज्य अस्तित्व में आ गया. सभी क्षेत्रों में उथल-पुथल हो चुकी है. लोकतांत्रिक संस्थाएं दम तोड़ रही हैं. कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी हांफती नजर आती है. स्वतंत्र भारत की कथा लूट, झूठ और टूट की कथा है. मध्य वर्ग, शिक्षित वर्ग चंद अपवादों को छोड़ कर अपने में सिमट चुका है. हिंदी कविता साहित्यिक दृष्टि से बढ़ी है, पर मुक्तिबोध जैसी बेचैनी और तड़प कितने कवियों में है? मुक्तिबोध के पाठक, अध्यापक, आलोचक, शोधार्थी कम नहीं हैं, पर मुक्तिबोध जैसा आत्मसंघर्ष किसी में नहीं है. मुक्तिबोध ने आरंभ से अंत तक पूंजीवाद की भर्त्सना की. ‘तारसप्तक’ में संकलित अपनी एक कविता ‘पूंजीवादी समाज के प्रति’ में उन्होंने लिखा था- ‘तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध/ तेरे रक्त में भी घृणा आती तव्र/ तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र/.. तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ.’
मुक्तिबोध ने कवि-जीवन और वास्तविक जीवन के मूल्यों में कोई अंतर नहीं देखा. इस एकता से ही साहित्य में सौंदर्य-दृष्टि संभव है.
तीसरे दशक के अंतिम वर्षो में सांस्कृतिक चिंताएं और बेचैनी जितनी थी, आज उसकी शतांश भी नहीं है. आज के अनेक संस्कृतिकर्मी, कवि-लेखक, अध्यापक, आलोचक, पाठक-भावक उस सांस्कृतिक बेचैनी से कम जुड़े हैं, जिससे परतंत्र भारत में कवि-लेखकादि जुड़े थे. ‘भारत: इतिहास और संस्कृति’ की भूमिका में मुक्तिबोध ने ‘संस्कृति’ को ‘समाज की मूल जीवनदायिनी शक्ति’ माना था- ‘राजनीतिक शक्ति से भी अधिक.’
वे समाज को विकासशील बनानेवाली कई प्रक्रियाओं में सांस्कृतिक प्रक्रिया को सर्वाधिक महत्व देते थे. भारत की सबसे बड़ी शक्ति उनके लिए ‘सांस्कृतिक समन्वय की शक्ति’ है. इस शक्ति को अंगरेजों ने और उसके बाद स्वतंत्र भारत के हुक्मरानों ने निरंतर कमजोर किया है. अंगरेजों ने फूट और अलगाव को बढ़ावा दिया. आज यह पहले की तुलना में कहीं अधिक है. ‘सांस्कृतिक समन्वय’ का प्रश्न हाशिये पर है. राजनीति सबको निगल रही है.
अंगरेजों के समय ‘सर,’ ‘रायबहादुर,’ ‘खान बहादुर,’ ‘राय साहब’ की जो उपाधियां दी जाती थीं, मुक्तिबोध ने इन्हें ‘नैतिक अध:पतन की, मानसिक दासता की सूचक’ कहा है- ‘ये उपाधियां भद्देपन का लक्षण हैं, निर्लज्जता की निशानी हैं.’ सत्ता-व्यवस्था द्वारा आज जो उपाधियां दी जाती हैं, उन्हें हम क्या कहेंगे? ‘कीर्ति के इठलाते नितंब’ आज अधिक संख्या में हैं. कीर्ति-लोलुप कलम की जहालत से सब अवगत नहीं हैं.
जरूरत है मुक्तिबोध के काल के सामाजिक-सांस्कृतिक पाठ की. फैंटेसी, कविता के रूप-शिल्प पर बहुत विचार हो चुका है. मुक्तिबोध का अपना असर और जादू है. वहां ‘स्वप्न के भीतर एक और स्वप्न/विचारधारा के भीतर और/एक अन्य/सघन विचारधारा प्रच्छन्न’ है. मुक्तिबोध पूंजीवाद के सदैव विरोध में रहे. ‘पार्टनर! तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’ आज मध्यवर्ग, शिक्षित वर्ग, जिसमें सारे कवि-लेखक, आलोचक-अध्यापक, विद्वान आते हैं, की राजनीतिक चेतना और दृष्टि क्या है? क्या भारतीय शिक्षित मध्यवर्ग पूंजीवाद विरोधी है? पूंजीवाद आज सर्वाधिक घिनौने वीभत्स रूप में है. नवउदारवादी अर्थव्यवस्था ने विकास का जो मॉडल पेश किया है, उसका फल है उत्तराखंड और कश्मीर में विनाशलीला. प्रकृति ने कश्मीर को जन्नत बनाया था, पूंजीवादी नर-पिशाचों ने उसे जहन्नुम बना दिया. ‘अंधेरे में’ कविता में गांधी की उपस्थिति का अर्थ है. गांधी यहां सर्दी में बोरा ओढ़ कर हाथ-पैर समेटे, कांपते, हिलते दिखाई देते हैं.
‘भारत : इतिहास और संस्कृति’ में मुक्तिबोध ने गांधी को ‘नये भारत का प्रणोता’ और उनके हत्यारे को ‘एक तुच्छ हिंदू संप्रदायवादी’ कहा है. गांधी को उद्धृत किया है- ‘मैं ऐसे भारत के लिए काम करूंगा, जिसमें गरीब से गरीब यह महसूस करेगा कि यह उसका देश है और जिसके निर्माण में उसका भी प्रभावशाली हाथ है. ऐसा भारत, जिसमें न उच्च वर्ग, न निम्न वर्ग, जिसमें अस्पृश्यता का अभिशाप अथवा उत्तेजक मद्यों या बूटियों के अभिशाप को कोई स्थान नहीं है. जहां स्त्रियों को वही अधिकार है जो पुरुषों को, यह मेरे सपनों का भारत है.’
गांधी का स्वप्न स्वतंत्र भारत में पूरी तरह खत्म हो चुका है. पूंजीवादी व्यवस्था में वह साकार नहीं हो सकता. स्वतंत्र भारत में अंधेरा और गहन हुआ है. ‘अंधेर में’ कविता के ‘प्रोसेशन’ में ‘प्रतिष्ठित पत्रकार,’ नामी-गिरामी लोग, कर्नल, ब्रिगेडियर, जनरल, मार्शल, सेनापति, सेनाध्यक्ष, प्रकांड आलोचक, विचारक, जगमगाते कविगण, मंत्री, उद्योगपति, विद्वान और ‘शहर का हत्यारा कुख्यात, डोमा जी उस्ताद’ सब एक साथ हैं. भावी भारत का यह भयानक-आततायी दृश्य मुक्तिबोध ने देख लिया था.
कोई दिन ऐसा नहीं है, जब आग नहीं लग रही हो, गोली नहीं चल रही हो. दृश्य हमारे सामने हैं, पर ‘सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक/ चिंतक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं/ उनके खयाल से यह सब गप है/ मात्र किंवदंती!’ पिछले पचास वर्ष में ‘रक्तपायी वर्ग’ बढ़ा है, फैला है. उससे ‘नाभिनाल बद्ध’ लोगों की संख्या भी बढ़ी है. पूंजी से जुड़नेवाले लोग सर्वत्र हैं. मुक्तिबोध ने कविता में कहा था-‘वर्तमान समाज चल नहीं सकता/ पूंजी से जुड़ा हुआ हृदय बदल नहीं सकता.’ मुक्तिबोध के पाठकों, शोधार्थियों, आलोचकों, अध्यापकों के साथ कवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों को यह तय करना होगा कि वे किस ओर हैं? ‘रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल बद्ध लोग, अभिव्यक्ति के खतरे’ नहीं उठायेंगे. ‘मठ’ और ‘गढ़’ तोड़ने की बात दूर, वह स्वयं अपना ‘मठ’ और ‘गढ़’ निर्मित करेंगे. जरूरत है उस आत्म-संघर्ष की, जिसके मुक्तिबोध सबसे बड़े भारतीय कवि हैं.
रविभूषण
वरिष्ठ साहित्यकार

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