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हर काम के पैसे लगते हैं यहां

कहते हैं कोर्ट-कचहरी का चक्कर बहुत बुरा होता है. चाहे जमीनी विवाद हो या फौजदारी, आम जनता को तो न्यायालय व थाना जाना ही पड़ता है, लेकिन थाना या न्यायालय जानेवाले लोगों को ऐसी-ऐसी ‘फीस’ चुकानी पड़ती हैं, जिन्हें भुक्तभोगी ही जानते हैं. सबसे पहले तो आप अगर किसी विवाद में पड़े और पुलिसवाले आपको […]

कहते हैं कोर्ट-कचहरी का चक्कर बहुत बुरा होता है. चाहे जमीनी विवाद हो या फौजदारी, आम जनता को तो न्यायालय व थाना जाना ही पड़ता है, लेकिन थाना या न्यायालय जानेवाले लोगों को ऐसी-ऐसी ‘फीस’ चुकानी पड़ती हैं, जिन्हें भुक्तभोगी ही जानते हैं. सबसे पहले तो आप अगर किसी विवाद में पड़े और पुलिसवाले आपको लेकर थाना पहुंचते हैं, तो थाने के ड्राइवर की फीस, फिर मुंशी की फीस, अधिकृत पुलिस अधिकारी की फीस और यदि मामला गंभीर रहा तो प्रभारी की भी फीस चुकानी पड़ती है. सब मनमानी, कोई निर्धारित मूल्य नहीं.
न्यायालय का नजारा तो कुछ और ही है. जैसे आवेदन पेशी की फीस, केस नंबर लेने की फीस, तारीख पर गये तो पेशकार की पेशी, आदेशपाल के चाय-पानी की फीस चुकानी पड़ती है. व्यवहार हो या अनुमंडल पदाधिकारी का न्यायालय, स्थिति कमोबेश एक ही है. अनुमंडल पदाधिकारी के न्यायालय में तो पेशकार की ऐसी चलती है कि न्याय की भी कीमत चुकानी पड़ती है. अगर कीमत चुकाने में बहानेबाजी की तो आदेश भी मनमाना पारित हो जाता है. मैं इसे खुद भुगत चुका हूं.
हर जगह अलिखित फीस चुकाने की व्यवस्था की वजह से आम जनता एक ऊहापोह की स्थिति का सामना करने को मजबूर होती है कि किस काम के लिए कितना दाम चुकाना है. बिना दाम का तो शायद शिव-दर्शन हो सकता है, लेकिन न्यायालय में न्याय नहीं मिल सकता. ऐसे में उच्च न्यायालय से अनुरोध है कि उपरोक्त अत्याचार पर परोक्ष या प्रत्यक्ष जांच कर यदि फीस आवश्यक हो तो सूचीबद्घ किया जाये और यदि अनुचित है तो बंद किया जाये, ताकि आम आदमी का न्यायालय प्रति भरोसा बना रहे.
धीरेंद्र कुमार मिश्र, रानीडीह, गिरिडीह

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