उपचुनाव नतीजों के सबक
।। उत्तर प्रदेश से कृष्ण प्रताप सिंह ।। जहां तक लोकसभा चुनाव में उसे ऐतिहासिक जीत दिलानेवाले उत्तर प्रदेश की बात है, मोदी सरकार के देश की सत्ता संभालने के बाद हुए पहले उपचुनाव में उसके पड़ोसी कांगे्रस शासित उत्तराखंड ने खतरे की जो घंटी बजायी थी, वह उसे सुन लेती, तो उसको मतदाताओं का […]
।। उत्तर प्रदेश से कृष्ण प्रताप सिंह ।।
जहां तक लोकसभा चुनाव में उसे ऐतिहासिक जीत दिलानेवाले उत्तर प्रदेश की बात है, मोदी सरकार के देश की सत्ता संभालने के बाद हुए पहले उपचुनाव में उसके पड़ोसी कांगे्रस शासित उत्तराखंड ने खतरे की जो घंटी बजायी थी, वह उसे सुन लेती, तो उसको मतदाताओं का ऐसा गुस्सा न झेलना पड़ता, न ही अखिलेश सरकार के कामकाज को लेकर उनके प्रति व्याप्त असंतोष पर मोदी सरकार से नाउम्मीदी भारी पड़ती. लेकिन उसने तो उपचुनावों की दूसरी किस्त में बिहार व कर्नाटक आदि के मतदाताओं द्वारा उसकी किस्मत में लिखी गयी शिकस्त को भी गंभीरता से नहीं लिया और सीमित महत्ववाली बता कर खारिज कर दिया.
अब शिकस्त की तीसरी कड़ी के बाद मुश्किल है कि वह कुछ भी कह कर इस सच्चाई को नहीं झुठला सकती कि लोकसभा चुनाव में जो लहर चली थी, वह उसकी न होकर नरेंद्र मोदी की ही थी और उनके बहुप्रचारित अच्छे दिनों के अभी तक देश की धरती पर न उतरने के चलते उन्हें लेकर निराश मतदाताओं का मूड इस तरह बदल गया है कि वे उनकी पार्टी की प्रतिष्ठा बचाने के लिए मतदान बूथों तक जाने का उत्साह भी प्रदर्शित नहीं कर पा रहे.
उपचुनावों में हुआ कम मतदान इसका गवाह है. वैसे लोकसभा चुनाव में अपने पक्ष में उमड़े जनज्वार को सहेज कर नहीं रख पाने के लिए भाजपा के विरोधियों से ज्यादा भाजपा खुद जिम्मेदार है. किसे नहीं मालूम कि लोकसभा चुनाव में उसे अभूतपूर्व सफलता दिलाने में मोदी के विकास के एजेंडे या कि उसके गुजरात मॉडल के साथ, भले ही वह दिखावे के लिए ही रहा हो, उनके गैर सांप्रदायिक रवैये ने भी बड़ी भूमिका निभायी थी.
तब वे ऐसे विवादास्पद सांप्रदायिक मुद्दों से बचते घूम रहे थे, जो उनकी महानायक या विकास पुरुष की अपील को सीमित करते हों. लेकिन उपचुनावों की प्रक्रिया शुरू हुई, तो जानें मोदी सरकार द्वारा महंगाई आदि को लेकर की जा रही वादाखिलाफी से पैदा हुआ अपराधबोध था या कुछ और, भाजपा ने उसकी बहुप्रचारित उपलब्धियों पर निर्भर करने के बजाय अपने पुराने जाने पहचाने सांप्रदायिक एजेंडे को आगे कर दिया.
जो नरेंद्र मोदी शुरू में अपनी शानदार जीत का श्रेय किसी के साथ भी बांटने को तैयार नहीं होते थे, अमित शाह की भाजपाध्यक्ष पद पर ताजपोशी कराकर उन्हें मैन ऑफ द मैच बताने लगे. कहा जाने लगा कि उत्तर प्रदेश में लोकसभा की 73 सीटें शाह के करिश्मे से ही हासिल हुई है. फिर तो शाह ने भाजपा के फायरब्रांड नेता और गोरखपुर के सांसद योगी आदित्यनाथ को प्रदेश की 11 विधानसभा व मैनपुरी लोकसभा सीट के उपचुनाव का प्रभारी बना कर सारा तकिया उनके आग लगाने व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करानेवाले भाषणों पर ही रख दिया.
अपनी आक्रामकता के लिए जाने जानेवाले योगी ने न चुनाव आचार संहिता की परवाह की और न चुनाव आयोग की. इसके लिए उन पर मुकदमा भी दर्ज किया गया. फिर भी वे अपने साथी भाजपा नेताओं के साथ वास्तविक सामाजिक आर्थिक मुद्दों को दरकिनार करके लव जेहाद जैसे बेसिर-पैर के मुुद्दों को आगे करके उसका बदला आदि लेने की बात करते रहे. इतनी शक्ति वे अखिलेश की सरकार को बदहाल कानून व्यवस्था और विद्युत अनापूर्ति आदि जनता की तकलीफों से जुड़े मुद्दों के आधार पर घेरने में लगाते तो शायद नतीजे उनके अनुकूल होते.
लेकिन दुर्भाग्य से न उन्होंने और न ही उनकी पार्टी ने समझा कि अपवादों को छोड़ कर प्रदेश के मतदाता ऐसी आक्रामकता को हराने में कुछ भी उठा नहीं रखते.
* राजस्थान में भाजपा की करारी हार
।। जयपुर से कृष्ण बिहारी मिश्र ।।
राजस्थान में चार सीटों पर हुए उपचुनाव में चारों सीटों पर जीत दर्ज करने का दावा करनेवाली भाजपा के हालत पस्त हो गये, कांग्रेस ने भाजपा से तीन प्रमुख सीटें – वैर, नसीराबाद और सूरजगढ़ छीन ली, जबकि कोटा दक्षिण पर भाजपा ने अपनी पकड़ बनाये रखी.
– हार के प्रमुख कारण
1. जनता से किये गये अनर्गल वादे, जो किसी जिंदगी में पूरे नहीं किये जा सकते. उन वायदों की बार बार दुहाई करना, जैसे भाजपा का वादा कि हम 15 लाख लोगों को रोजगार देंगे
2. वसुंधरा का भाजपा को पूर्णत: हाईजैक कर लेना और अपने ढंग से भाजपा के प्रदेश कार्यकारिणी का गठन करना. साथ ही अपने चहेते अयोग्य लोगों को प्रमुख पदों पर आसीन कर देना
3. वसुंधरा के अयोग्य मंत्रियों द्वारा राज्य के शिक्षकों का शिक्षक दिवस के दिन पर अपमानित करने का कार्य और राज्य के शिक्षकों द्वारा अनवरत आंदोलन चलाने का कार्य प्रारंभ होना, साथ ही पूरे राज्य में समानीकरण के नाम पर शिक्षा व्यवस्था को बंटाधार करने का निर्णय
4. राजस्थान के ऐसे व्यक्ति भूपेंद्र यादव जो झारखंड के प्रभारी बनाये गये हैं, जो राजस्थान का एक नगर निकाय का चुनाव भी नहीं जीत सकते, ऐसे लोगों को महिमामंडन और राज्य के तेजतर्रार नेता घनश्याम तिवाड़ी जैसे असंख्य लोगों का मानमर्दन करना
5. बीकानेर जेल कांड में राज्य के एक मंत्री पर लगे आरोपों के साथ-साथ पूरे राज्य में बढ़ते दुष्कर्म की घटना और लगातार बढ़ते अपराध, साथ ही दलितों पर लगातार हो रहे अत्याचार
6. सरकार का आपके द्वार कार्यक्र म का पूरी तरह फेल हो जाना. सरकार भरतपुर, बीकानेर और उदयपुर संभाग का दौरा तो की, दस-दस दिन वहां बिताये, पर काम के नाम पर ढाक के तीन पात
7. निवेशकों का राजस्थान से मुंह मोड़ना, विकासात्मक कार्यों की अनदेखी.
8. राज्य में अभूतपूर्व पेयजल संकट की स्थिति
9. विधानसभा में सरकार में शामिल मंत्रियों का विपक्ष के प्रति गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और जनता की बातों को पूर्णत: नकार देना शामिल हैं
* स्थानीय मुद्दे होते हैं उपचुनाव में हावी
।। मुख्तार अब्बास नकवी, भाजपा नेता ।।
मौजूदा उप चुनाव के नतीजों से राष्ट्रीय परिदृश्य का आकलन नहीं किया जा सकता है. उप चुनाव के नतीजे विभिन्न कारकों पर निर्भर करते हैं. लेकिन हर चुनाव का नतीजा एक सबक और संदेश देता है. भाजपा इन चुनाव परिणामों को विश्लेषण कर हार के कारणों को पता लगाने की कोशिश करेगी. यह सही है कि भाजपा को उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली है और पार्टी हार के कारणों का पता लगा कर कमियों को दूर करने की कोशिश करेगी. लेकिन उपचुनाव के नतीजों के आधार पर जनमत की सोच का सही आकलन नहीं किया जा सकता है.
देखा गया है कि उप चुनावों में सत्ताधारी दल को फायदा मिलता रहा है, लेकिन जब विधानसभा चुनाव हुए हैं, तो परिणाम इसके विपरीत आये हैं. इसलिए यह कहना सही नहीं होगा कि उपचुनाव के नतीजों से भाजपा उत्तर प्रदेश की राजनीति में अलग-थलग पड़ गयी है. इस बात पर गौर करना भी जरूरी है कि इस चुनाव में मतदान का प्रतिशत काफी कम रहा है.
अधिकतर मतदाताओं की सोच होती है कि इन नतीजों से राज्य सरकार की सेहत पर कोई खास प्रभाव नहीं पड़ता है. ऐसे में समाजवादी पार्टी को इस जीत से अधिक उत्साहित होने की जरूरत नहीं है. उप चुनावों के नतीजों को केंद्र सरकार के कामकाज से कोई सीधा वास्ता नहीं होता है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव में मुद्दे अलग-अलग होते हैं. स्थानीय मुद्दों को भाजपा अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब नहीं हो पायी. लेकिन एक बात साफ है कि इन चुनाव परिणामों से जनमत के सही रुख का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता है. अगर ऐसा होता, तो 2004 के आम चुनाव में केंद्र में एनडीए की सरकार होती. फिर भी हमारी पार्टी उपचुनाव परिणामों की समीक्षा कर जरूरी कदम उठायेगी.
(बातचीत पर आधारित)