भाजपा के लिए अच्छे दिनों के संकेत नहीं
आखिर क्यों हो गया जनता का मोहभंग? उत्तर प्रदेश में भाजपा को लग रहा था कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये वह उपचुनाव में जीत हासिल करेगी. यह इतिहास भुला दिया गया कि बाबरी मसजिद विध्वंस (छह दिसंबर, 1992) के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा पराजित हो गयी थी. यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का […]
आखिर क्यों हो गया जनता का मोहभंग?
उत्तर प्रदेश में भाजपा को लग रहा था कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये वह उपचुनाव में जीत हासिल करेगी. यह इतिहास भुला दिया गया कि बाबरी मसजिद विध्वंस (छह दिसंबर, 1992) के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा पराजित हो गयी थी. यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नतीजा हमेशा भाजपा के पक्ष में नहीं रहता है. भाजपा को यही खामियाजा इस बार के उपचुनावों में भी भुगतना पड़ा.
।। अजय सिंह ।।
संपादक, गवर्नेंस नाउ
लोकसभा चुनावों में जोरदार कामयाबी के करीब चार महीने बाद देश के 10 राज्यों में 33 विधानसभा सीटों और तीन लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों के नतीजे से निकले संकेत भाजपा के लिए अच्छे नहीं हैं. राजस्थान की चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों का नतीजा तो आंखें खोलनेवाला है. करीब सौ दिन पहले वहां की जनता ने तीन चौथाई बहुमत के साथ भाजपा को प्रदेश की सत्ता सौंपी थी. लेकिन, उपचुनाव के नतीजों में चार में से तीन सीटें कांग्रेस के खाते में चली गयी हैं. ऐसे में यह सवाल महत्वपूर्ण है कि आखिर कुछ महीने में ऐसा क्या हुआ कि लोगों का भाजपा से मोहभंग हो रहा है!
उत्तर प्रदेश के संदर्भ में देखें, तो प्रचार अभियान के दौरान भाजपा एक अजीब-सी मन:स्थिति में दिख रही थी. इसे हेकड़ी जैसी स्थिति कह सकते हैं. मानो, उसे लग रहा था कि वह जो सोच रही है, वही सही है. इस दौरान भाजपा ने जिस तरह फिर से सांप्रदायिक राजनीति की राह पकड़ी, वह 1990 के दशक की यानी रामजन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद के बाद की राजनीति की याद दिला रही थी. पार्टी ने योगी आदित्यनाथ को आगे बढ़ाया और प्रचार अभियान का प्रभार सौंप दिया. इतना ही नहीं, पश्चिमी यूपी के कुछ ऐसे नेताओं को, जिन पर सांप्रदायिक दंगों में संलिप्तता का आरोप था, को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया या अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया करायी गयी. इससे साफ है कि भाजपा को लग रहा था कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के जरिये वह उपचुनाव में जीत हासिल करेगी.
यह इतिहास भुला दिया गया कि बाबरी मसजिद विध्वंस (छह दिसंबर, 1992) के बाद 1993 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा पराजित हो गयी थी. यानी सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का नतीजा हमेशा भाजपा के पक्ष में नहीं रहता है. भाजपा को यही खामियाजा इस बार के उपचुनावों में भी भुगतना पड़ा. प्रदेश में जिन सीटों पर उपचुनाव हुए, सभी इससे पहले भाजपा के पास ही थीं. इसलिए यह पार्टी की बड़ी हार है.
उत्तर प्रदेश में भाजपा के साथ दिक्कत यह है कि वहां प्रदेश स्तर पर कोई बड़ा चेहरा नहीं दिखता है. राष्ट्रीय स्तर पर राज्य के नेता राजनाथ सिंह प्रमुख चेहरा हैं, लेकिन इस उपचुनाव के दौरान उन्हें किनारे कर दिया गया. इससे लोगों के बीच संदेश यही गया कि भाजपा गुटबाजी और द्वेष की राजनीति से बाहर नहीं निकल पायी है. इस कारण भाजपा कार्यकर्ताओं की एकजुटता भी संभव नहीं हो पायी.
मेरा मानना है कि उत्तर प्रदेश का नतीजा बिहार में हाल में हुए उपचुनावों के नतीजों का ही विस्तार है. चुनावी राजनीति में ह्यविपक्षी एकता का सूचकांकह्ण एक महत्वपूर्ण कारक माना जाता है. बिहार में उपचुनावों के दौरान जब विपक्ष एकजुट होकर मैदान में उतरा, यानी जदयू और राजद ने मिल कर लड़ा, तो चुनावी गणित कई जगह भाजपा के खिलाफ हो गया. विपक्षी एकता के सूचकांक को यदि उत्तर प्रदेश के उपचुनावों के संदर्भ में देखें, तो ऐसा लग रहा था कि कांग्रेस और बसपा ने मैदान छोड़ दिया है और मुकाबला सीधे-सीधे भाजपा और सपा के बीच हो रहा था. इस तरह भाजपा विरोधी मतों का बिखराव नहीं होने के कारण पार्टी को मुश्किल का सामना करना पड़ा और नतीजे उसे निराश करनेवाले रहे.
उत्तर प्रदेश से निकले इस संदेश को यदि राष्ट्रीय स्तर पर देखें, तो अब भाजपा यदि अपने अतिआत्मविश्वास के दम पर हरियाणा और महाराष्ट्र में चुनाव लड़ना चाहेगी, तो वहां विपक्षी एकता का सूचकांक मजबूत हो सकता है. नि:संदेह यह स्थिति भाजपा के लिए खतरा पैदा कर सकती है.
गुजरात से जो नतीजे आये हैं, उसे हम इस तरह से देख सकते हैं कि यह 2011 के विधानसभा चुनावों के नतीजों का ही प्रतिबिंब है. इस नतीजे में कांग्रेस की स्थिति कमोबेश वैसी ही दिख रही है, जैसी पिछले विधानसभा चुनाव के वक्त दिख रही थी. कांग्रेस के लिहाज से यह अच्छी स्थिति कही जा सकती है, क्योंकि लोकसभा चुनाव के नतीजों के आधार पर कांग्रेस के खात्मे का अंदेशा जताया जा रहा था.
हालांकि उपचुनावों के नतीजों को किसी ट्रेंड के सूचक के तौर पर देखना थोड़ा मुश्किल होता है. फिर भी इन नतीजों के बाद एक चीज तो साफ है कि अगर भाजपा के विरोधी दल एकजुट हो जाते हैं, तब भाजपा साधारण चुनावी गणित के हिसाब से अच्छी स्थिति में नहीं होगी. अकसर भाजपा चुनाव तभी जीत पाती है, जब उसके विरोधी दल अलग-अलग खेमों में बंटे होते हैं. इस तरह ये नतीजे भाजपा के लिए अच्छे दिनों के संकेत लेकर नहीं आये हैं.