चार माह पहले हुए लोकसभा चुनाव के नतीजों ने मोदी मैजिक का मुहावरा दिया था. लेकिन, नयी केंद्र सरकार के करीब सौ दिन पूरे होने के बीच हुए उपचुनावों के नतीजों के संकेत साफ हैं कि मोदी मैजिक का मुहावरा अपनी चमक खो रहा है.
भाजपा के वर्चस्व को चुनौती मिलने की शुरुआत उत्तराखंड के विधानसभा उपचुनावों से हुई, जिसमें कांग्रेस ने अपने किले बचाये और भाजपा के गढ़ में सेंध लगायी. फिर 21 अगस्त को हुए उपचुनावों में बिहार में जद (यू)-राजद गंठबंधन ने भाजपा को 6-4 से मात दी, तो कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कांग्रेस ने उसकी मुट्ठी से दो बहु-प्रतिष्ठित सीटें अपने कब्जे में कीं.
अब 10 राज्यों के 33 विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों के लिए हुए उपचुनावों में भी भाजपा के विजय रथ का चक्का फंसा दिख रहा है. ये नतीजे जहां आम चुनाव में भाजपा को हासिल बहुमत के बरक्स विपक्ष के एक बार फिर से उठ खड़े होने के संकेत देते हैं, वहीं राज्य-विधानसभाओं को जीतने के लिहाज से अपनायी जा रही उसकी चुनावी रणनीतियों पर भी उंगली उठाते हैं. पार्टी ने गुजरात में वड़ोदरा लोकसभा सीट भले भारी अंतर से जीती है, लेकिन तेलंगाना के मेडक और उत्तर प्रदेश के मैनपुरी में उसकी बड़े अंतर से हार हुई.
लोकसभा चुनावों में गुजरात में 26-0 से चित्त हुई कांग्रेस ने इस बार 9 विधानसभा सीटों में से 3 पर कब्जा जमा लिया है. यही हाल यूपी का है, जहां करीब 90 फीसदी लोकसभा सीटें जीतनेवाली भाजपा के सामने हतप्रभ हुआ विपक्ष इस बार समाजवादी पार्टी के रूप में उससे तीन चौथाई विधानसभा सीटें छीन ले गया है. पश्चिम बंगाल में सीटों का खाता खोल कर भाजपा संतोष कर सकती है, लेकिन राजस्थान में कांग्रेस के हाथों चार में से तीन सीटें गंवाने का अफसोस उसके संतोष पर भारी पड़ेगा.
यानी चारों खाने चित्त हुआ विपक्ष भाजपा की बड़ी जीत के सामने अपने को खड़ा करने की कोशिशों में धीरे-धीरे कामयाब होता दिख रहा है. इसमें कुछ तो विपक्ष की मेहनत की देन है और कुछ महंगाई, भ्रष्टाचार, कालाधन के मुद्दे पर अच्छे दिन जल्दी नहीं ला पाने में भाजपा की लाचारी की. यूपी में सपा को मिली बड़ी जीत यह भी बता रही है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की भाजपा की भड़काऊ राजनीति को मतदाताओं ने नकार दिया है.