।। बृजेंद्र दुबे ।।
(प्रभात खबर, रांची)
नरेंद्र मोदी सरकार ने हाल ही में अपने सौ दिन पूरे किये. देखें तो सरकार की अब तक की परफारमेंस बहुत बेहतर नहीं, तो बहुत खराब भी नहीं कह सकते. हां, पिछले एक-डेढ़ साल से हर दिन मोदी को टीवी पर देखने और सुनने की जो आदत-सी पड़ गयी थी, अब वहां सूनापन है.
मोदी जी 7 रेसकोर्स में जाने के बाद से कम बोल रहे हैं. हां, शिक्षक दिवस के मौके पर उन्हें स्कूली बच्चों के साथ एक बार फिर उत्प्रेरक (मोटिवेटर) के रूप में सुनने का मौका मिला. बाकी बोलने का काम अब पार्टी के अन्य फायर ब्रांड नेताओं के जिम्मे है. योगी आदित्यनाथ से लेकर संगीत सोम जैसे दर्जनों नेता ये जिम्मेदारी बखूबी निभा रहे हैं. कौन अल्पसंख्यकों को धमकायेगा, कौन विरोधियों के खिलाफ जहर उगलेगा, तो किस नेता को अपनी ही पार्टी के नेताओं पर नकेल कसनी है… सबको अघोषित जिम्मेदारी दे दी गयी है.
न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम पर विरोधियों को धमकाने के लिए बुद्धिजीवियों की फौज अलग से है. रही-सही कसर बीच-बीच में आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और अब भगवा चोला ओढ़ चुके सुब्रमण्यम स्वामी भी पूरी कर रहे हैं. इसके अलावा सोशल मीडिया पर किसी भी शरीफ आदमी की ऐसी-तैसी करने के लिए भक्तों की पूरी टीम तैनात है. यह सब देखते सुनते हुए भी इस पर नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर प्रख्यात न्यायविद फली एस नरीमन की पीड़ा, हर उस व्यक्ति की पीड़ा है, जो देश को भाईचारे के साथ तरक्की के रास्ते पर देखना चाहता है. यह एक ऐसे पारसी बुजुर्ग की चिंता है, जो भारत के सामाजिक सौहार्द्र में ही अपनी और सबकी भलाई देखता है.
सच कहें तो नरीमन की बात में गंभीर चेतावनी भी है और नसीहत भी. हाल ही में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा आयोजित एक समारोह में नरीमन ने कहा कि पिछले कुछ समय से उदार हिंदुत्व कमजोर पड़ा है और आक्रामक हिंदुत्व मजबूत हुआ है. एक बड़े तबके को लगता है कि उसे सत्ता आक्रामक हिंदुत्व के कारण ही मिली. नरीमन ने मोदी सरकार को बहुसंख्यकवादी बताते हुए कहा कि भाजपा या उनके साथी संगठनों के नेता रोज ही खुलेआम अल्पसंख्यकों के खिलाफ बयान देते हैं, लेकिन बड़े नेता इस पर कुछ नहीं कहते.
कभी हिंदू संबोधन पर बहस छेड़ दी जाती है, तो कभी लव जिहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों को कठघरे में खड़ा किया जाता है. हमें याद रखना होगा कि धर्मनिरपेक्षता संविधान के किसी अनुच्छेद की देन नहीं, यह भारतीय जनजीवन का मूल स्वभाव है.
यही वजह है कि तमाम असहमतियों के बावजूद सभी वर्ग के लोग यहां एक साथ मिल कर रहते हैं. देश के सांप्रदायिक विभाजन के बावजूद अगर आधे से ज्यादा अल्पसंख्यकों ने भारत में ही अपना भविष्य देखा तो इसकी वजह शायद यही है. नरीमन ने देश के स्वभाव में हुए बदलाव को भावुक तरीके से रेखांकित किया… लेकिन लगता नहीं कि उनकी पीड़ा पर मोदी या उनकी सरकार के लोगों के कान पर इससे जूं रेंगेगी.