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चीनी निवेश के मायने

दिल्ली के जिस हैदराबाद हाउस में प्रधानमंत्री मोदी के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिगपिंग ने सीमा पर शांति और स्थिरता बहाली का जिक्र किया, संयोग से उसी हैदराबाद हाउस में 56 बरस पहले दलाई लामा को चीन के विरोध के बावजूद नेहरू ने रुकवाया था. और तब चीन ने नेहरू को आधा इंसान और […]

दिल्ली के जिस हैदराबाद हाउस में प्रधानमंत्री मोदी के साथ चीन के राष्ट्रपति शी जिगपिंग ने सीमा पर शांति और स्थिरता बहाली का जिक्र किया, संयोग से उसी हैदराबाद हाउस में 56 बरस पहले दलाई लामा को चीन के विरोध के बावजूद नेहरू ने रुकवाया था. और तब चीन ने नेहरू को आधा इंसान और आधा शैतान करार दिया था. यानी चीन चाहता था कि भारत दलाई लामा को वापस लौटा कर अपना आधा शैतान वाला चेहरा साफ कर ले. संयोग देखिये कि बुधवार को जब एलएसी (लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल) को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंखें तरेरी, तब मुंबई में दलाई लामा ने सीमा पर चीन की बढ़ती दखलंदाजी की वजह तिब्बत पर चीन का कब्जा करार दिया. यानी तिब्बत पर कब्जा करने के बाद चीन ने भारत की सीमा को छुआ और तभी से सिक्किम-अरुणाचल प्रदेश में एलएसी पर चीन की दादागिरी का खुला नजारा शुरू हुआ.

लेकिन, अब सवाल यह है कि क्या भारत चीन के बीच एलएसी वाकई नये सिरे से खिंची जा सकेगी. क्या वाकई सीमा की जिस लकीर को लेकर बीते साठ बरस से चीन लगातार खिलवाड़ करता रहा है, उस पर चीन सहमति बना लेगा? क्या वाकई मोदी सरकार लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल के विवाद को सुलझाने की दिशा में सफल हो रही है. ये ऐसे सवाल हैं, जिनका जवाब भारत में सरकारी तौर पर यह कह कर तो दिया जा सकता है कि पहली बार एलएसी पर खुलकर बात हुई है, लेकिन इतिहास के पन्नों को पलटें तो 1951 से तिब्बत पर कब्जा करने के बाद से लेकर आज की तारीख तक चीन ने सीमा को कभी माना ही नहीं. या कहें भारत की जमीन पर लगातार घुसपैठ कर बार-बार 1962 वाले हालात का डरावना सपना दिखाया या फिर दिल्ली ने हर बार घुसपैठ पर खामोशी बरत कर 62 के डरावने सपने में ही खुद को ढाल लिया.

वर्ष 1951 में तिब्बत पर कब्जे के वक्त नेहरू चीन के साथ प्राचीन सांस्कृतिक संबंधों की दुहाई देते रहे. 1954 में पंचशील सिद्धांत तले भारत चीन से कूटनीति में हारा. 1956 में चीन ने अक्साई चीन पर कब्जा किया, तब भी भारत का रुख नरम रहा. 1960 में चीन ने खुले तौर पर नियंत्रण रेखा की परिभाषा नियंत्रित क्षेत्र से की तो भी भारत खामोश रहा. 1962 में चीन ने हमला किया, तो नेहरू सामना करने के बदले सदमे में रहे. और ध्यान दें तो उस युद्ध ने भारत को ऐसे तोड़ा कि लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल को लेकर उसके बाद 50 बरस में सैकड़ों मुलाकात और बातचीत का दौर चीन के साथ हुआ, लेकिन रास्ता कभी निकला नहीं और बीते 10 बरस में बार-बार राजनीतिक तौर पर रास्ता निकालने की कोशिश में 17 बैठकें हुईं. लेकिन एलएसी पर उस दिन भी वही पुराने घुसपैठ वाले हालात सामने आये, जिस दिन चीन के राष्ट्रपति ने भारत में कदम रखा.

तो क्या चीन पर भरोसा किया ही नहीं जा सकता या फिर प्रधानमंत्री मोदी के साथ जो बातचीत अभी हुई, उसका मतलब यही है कि एक बार फिर एलएसी को लेकर हालात सीमा पर ही टिक गये. यानी दिल्ली या बीजिंग से इतर रास्ता सीमा पर सेना के जरिये ही निकलेगा. यानी नक्शों के आदान-प्रदान से लेकर हिमालय और काराकोरम में रहनेवाले लोगों की भावनाओं समेत नदी, पर्वत, वाटरशेड के मद्देनजर नियंत्रण रेखा तय होनी चाहिए और यह बात बीते 50 बरस से अलग-अलग तरीके से कही जा रही है. उसमें पीएम मोदी से बातचीत का एक पन्ना और जुड़ गया या फिर वाकई अगले पांच बरस में जिस तरह चीन भारत में 20 अरब डॉलर निवेश करेगा, उसी तरह अगले पांच बरस में रास्ता निकल जायेगा, यह आज तो कम से कम मान लिया जाये.

असल में सबकुछ इतना आसान है नहीं. याद कीजिए 1960 में चीन के प्रधानमंत्री चाउ एन लाई जब दिल्ली पहुंचे, तो तत्कालीन उप-राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कहा था कि 40 करोड़ भारतीयों की दोस्ती के आगे 400 वर्ग मील का क्षेत्र क्या मायने रखता है. लेकिन, उस वक्त भी चाउ एन लाई का जवाब था कि 60 करोड़ चीनवासियों की मित्रता के आगे कुछ हजार एकड़ भूमि का क्या मोल है. यानी जिस एलएसी को लेकर मोदी सरकार खुश है कि मुद्दा सार्वजनिक तौर पर उठा और चीन ने माना, उसके संदर्भ में 25 अप्रैल, 1960 को आधी रात में चाउ एन लाई की उस प्रेस कॉन्फ्रेंस को याद करना चाहिए जो रात एक बजे तक चली थी और तब चीन के प्रधानमंत्री ने खुलकर सीमा विवाद को माना था और नियंत्रण रेखा को नियंत्रित क्षेत्र के जरिये परिभाषित किया था. यानी अपनी विस्तारवादी नीति को भी सीमा विवाद में चीन ने खुले तौर पर जगह दी थी.

अब ऐसे में सवाल है कि क्या इन हालात में भारत के पास चीन को कटघरे में खड़ा करने के लिए तिब्बती मुद्दा ही बचा है, क्योंकि जिस वक्त चीन के राष्ट्रपति दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी से बात कर रहे थे, उस वक्त अगर सीमा पर चीनी सैनिकों की घुसपैठ हो रही थी, तो पहली बार तिब्बती प्रदर्शनकारी भी हैदराबाद हाउस तक आ पहुंचे. यानी भारत ने भी संकेत दिये कि अगर एक तरफ सीमा पर चीनी घुसपैठ उसी वक्त जान-बूझकर किया जाता है, जब चीनी राष्ट्रपति भारत पहुंचे, तो फिर तिब्बतियों के जरिये चीन को कठघरे में खड़ा करने का एक पत्ता उसके पास भी है. अगर ऐसा है तो फिर पहला संकेत यही है कि भारत का चीन के साथ संबंध दोस्ती का नहीं, प्रतिस्पर्धा का है और दूसरा संकेत यह कि मौजूदा वक्त में जितनी जरूरत भारत को निवेश के लिए चीन की है, उतनी ही जरूरत चीन को अपने उत्पादों को खपाने के लिए भारतीय बाजार की है.

यानी संबंधों की जो डोर चीन के साथ पतंग में बांध कर उड़ायी जा रही है, उसके पीछे का सच यह भी है कि चीन हर हाल में जापान को दायरे में बांधना चाहता है और अमेरिका को एशियाई धुरी बनने से रोकना चाहता है. वहीं मोदी सरकार कूटनीतिक तौर पर मौजूदा हालात का लाभ निवेश के जरिये उठाना चाहती है, जिससे भारत में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित भी हो और रोजगार भी पैदा हो. लेकिन समझना यह भी होगा कि इस 12 सितंबर तक चीन करीब साढ़े तीन बार एलएसी के दायरे को तोड़ कर भारत में घुसा है और हर बार तनाव के हालात सीमा पर बने हैं.

चीन ने कश्मीर और अरुणाचल के लोगों को स्टेपल वीजा देकर भी विवाद खड़ा किया है. ऐसे में चीन के साथ जो 12 समझौते हुए हैं, उसमें ठोस पांच समझौतों को देखें तो चीन का रास्ता बिना किसी मुश्किल के भारत के भीतर के लिए भी खुल रहा है. मसलन कैलाश मानसरोवर यात्र का नया मार्ग दोनों देशों की सीमा को खोलता है, जो सिक्किम के नाथू-ला से होकर खुलेगा. मैसूर-चेन्नई के बीच रेल रफ्तार, रेलवे विश्वविद्यालय की स्थापना में भागीदारी सीधे चीन को भारतीय रेल से जोड़ेगी. पांच बरस में 20 अरब डॉलर इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश से भारत में रोजगार पैदा जरूर होगा, लेकिन भारतीय खनिज संपदा तक सीधी पहुंच भी चीन की होगी.

और जो रुकावट अभी तक चीन को लेकर भारत में होती रही है, वह चीन के शंघाई और भारत के मुंबई शहरों के बीच ‘सिस्टर सिटी’ समझौते और पुणो में औद्योगिक पार्क की स्थापना के साथ कहीं ज्यादा आसान हो जायेगा. यानी भारत के बाजार में चीनी उत्पाद का लाइसेंस चीन के राष्ट्रपति को मिल चुका है और सीमा पर सेना की घुसपैठ को रोकने का कोई निर्धारित वक्त भी मुहैया नहीं किया गया है. यानी बाजार में चीनी माल और सीमा पर चीनी सैनिक!

पुण्य प्रसून बाजपेयी,वरिष्ठ पत्रकार

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