डूबने को अभिशप्त?

।।दर्शक।। क्या हम अपनी गलतियों या अनुभवों से सीखनेवाले लोग हैं? शायद नहीं! हम हिंदी इलाके के सामान्य समाज की बात कर रहे हैं. हम खुद अपने कर्म से अपनी लज्जाजनक भविष्य व नियति लिख रहे हैं. आसपास की हर छोटी चीज के लिए हम व्यवस्था को, नेताओं को या किसी अन्य को दोषी ठहराने […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 21, 2014 1:27 AM

।।दर्शक।।

क्या हम अपनी गलतियों या अनुभवों से सीखनेवाले लोग हैं? शायद नहीं! हम हिंदी इलाके के सामान्य समाज की बात कर रहे हैं. हम खुद अपने कर्म से अपनी लज्जाजनक भविष्य व नियति लिख रहे हैं. आसपास की हर छोटी चीज के लिए हम व्यवस्था को, नेताओं को या किसी अन्य को दोषी ठहराने में लगे हैं. एक नागरिक के तौर पर या इंसान के तौर पर हमारे सात्विक और पवित्र फर्ज क्या हैं, हम भूल गये हैं? हम आत्मविनाश की राह पर दौड़ रहे हैं.

इस प्रसंग को साफ तरीके से समझने के लिए रोज आसपास की अनेक घटनाओं को देख सकते हैं. ऐसी ही एक घटना है, देश स्तर पर चर्चित, रंजीत कोहली उर्फ रकीबुल हसन का मामला. पहले इसे धर्म का रूप दिया गया. आपस में सामाजिक तनाव पैदा करने की कोशिश हुई. सनसनीखेज ढंग से इस पर चर्चा हुई. भावनात्मक मुद्दे उठे. पर पूरी व्यवस्था में कहीं झलक नहीं दिखी कि यह एक प्रसंग कैसे स्पष्ट करता है कि समाज या व्यवस्था व राजकाज कितने बीमार हैं? अनैतिक व आत्मस्वाभिमान बनता समाज. कहने को कानून और व्यवस्था हमारा जीवन नियंत्रित करते हैं, पर सचमुच ऐसा है क्या? यह मामला सिर्फ रंजीत कोहली से जोड़ कर देखने से बात नहीं बनेगी. ऐसी सूचना है कि सत्ता गलियारे, ब्यूरोक्रे सी और आम लोगों की भाषा में रंजीत उर्फ रकीबुल अब ब्रांड नेम बन गया है. इस व्यवस्था में जो सबसे सक्रिय दलाल या फिक्सर हैं, लोग उन्हें रकीबुल उपनाम दे रहे हैं. क्या समाज में मूल सवाल पर चर्चा या चिंता है? रंजीत उर्फ रकीबुल इस स्थिति तक कैसे पहुंचा? इसके लिए वह दोषी है या व्यवस्था दोषी है? अगर हम सचमुच कोई सबक लेना चाहते हैं, तो बहस उस व्यवस्था पर हो, जो रंजीत उर्फ रकीबुल को पैदा कर रही है. यह रकीबुल, हर जाति, धर्म, क्षेत्र या संप्रदाय में हैं. गांव के ब्लॉक से लेकर राज्य की राजधानी और दिल्ली तक. यह बीमार-लाचार व्यवस्था की देन है. कैसे?

रंजीत उर्फ रकीबुल, 1977 में पटना में जनमा. परिवार की स्थिति खराब. मां कहीं खाना बनाती थी. इसके बाद उपलब्ध सूचना के अनुसार रंजीत, 60 रुपये प्रतिमाह की तनख्वाह पर दवा दुकान में काम करने लगा. इस तरह अनेक छोटी-मोटी जगहों पर काम करते-करते उसका जीवन चला. 2007 में उसने सरकारी वृक्षारोपण वगैरह का काम शुरू किया. उसकी तकदीर बदली. मनरेगा (गरीबों के लिए बनी सरकारी योजना) के तहत काम करने लगा. अपनी कंपनी बनायी और सरकारी काम लेने लगा. फिर रांची के सबसे अच्छे इलाके में पहुंचा. 70 हजार के किराये पर तीन घर लिया. जमीन ली. आइएएस / आइएफएस अफसरों से उसका परिचय हुआ. उनके सौजन्य से रंजीत उर्फ रकीबुल को 22 लाख का पहला काम मिला. इसी अफसर के सौजन्य से एक प्राइवेट कंपनी से सौ एंबुलेंस की सरकारी खरीदारी की डील में उसकी भूमिका रही. इसमें काफी पैसे मिले. फिर अपने एक अन्य दोस्त को परिचित जंगल अफसर की मदद से करोड़ों का काम दिलवाया.

इस काम से उसे भी करोड़ कमीशन मिला. फिर पांच करोड़ वगैरह के काम मैनेज करना उसके लिए बायें हाथ का खेल हो गया. मकसद रंजीत उर्फ रकीबुल के कामों की लंबी सूची बताना नहीं है. सवाल तो इस पर उठना चाहिए कि गरीबों के लिए बनी सरकारी योजनाओं या वृक्षारोपण जैसे सामाजिक काम कैसे लोगों द्वारा चलाये जा रहे हैं? ऐसे कितने काम धरती पर उतर रहे हैं? यह तो एक अफसर और रंजीत उर्फ रकीबुल का मामला है. ऐसे अनंत और असंख्य प्रसंग इस व्यवस्था में हैं. अगर हमारी सरकारी व्यवस्था में ईमानदार और सही लोगों को काम करने का मौका मिलता, तो यह रंजीत उर्फ रकीबुल कहां से पैदा होता? इसलिए असली मुजरिम तो इस तरह के सरकारी अफसर हैं, जो अपना ईमान खो चुके हैं. आत्मसम्मान खो चुके हैं. किसी तरह के नियम-कानून, परंपरा का इन्हें भय नहीं. लोकलाज से ये मुक्त हैं. जब तक ऐसे भयमुक्त और भ्रष्ट अफसर रहेंगे, रोज नये रंजीत उर्फ रकीबुल पैदा होंगे. यह मामला सीबीआइ को दे दिया गया है. पर सीबीआइ के पास जाने से क्या होगा? क्या ऐसे भ्रष्ट अफसरों के पास नैतिकता आयेगी? क्या सरकारी कामकाज में यह लूट बंद होगी. क्या ऐसे लोगों को सख्त सजा मिलेगी कि दूसरे भी सबक लें?

रंजीत उर्फ रकीबुल, जिसमें कोई हुनर नहीं, अच्छी डिग्री नहीं. वह न्यायिक अधिकारियों से संबंध होने की बात भी स्वीकार करता है. पर न्यायिक अफसरों के उसके संबंध किस आधार पर थे? रंजीत उर्फ रकीबुल में क्या फन, कला या महारथ थी कि न्यायिक अफसर उसके पास पहुंचते थे. न्याय करने की कुरसी पर बैठे लोगों में आज भी समाज भगवान की छवि देखता है. क्या ऐसे लोग, जब रंजीत उर्फ रकीबुल के पास जाते थे, तो उनके आत्मसम्मान पर ठेस नहीं लगती थी? निजी स्वाभिमान और गरिमा, इंसान की बड़ी पूंजी होती है. माना जा सकता है कि जीवन में कोई ऐसी मजबूरी आ जाये, तो हम सब कहीं न कहीं झुकते हैं. पर ऐसा झुकना अपवाद होता है. जिस समाज के शासकवर्ग की सामान्य जीवनशैली, रहन-सहन में यह आदत शामिल हो जाये, हमारी जीवन संस्कृति का हिस्सा ऐसे दलालों की पूजा हो जाये, हम खुद चल कर ऐसे लोगों के दरबार में शरीक हों, तो इसे कौन सा कानून या जांच एजेंसी ठीक कर सकती है?

रंजीत उर्फ रकीबुल के प्रसंग में कई बड़े राजनेताओं और मंत्रियों के नाम आये हैं. उसका घर, व्यवस्था चलानेवाले तबकों का मिलन स्थल था या तिजारत केंद्र था. जिन राजनेताओं के नाम सामने आये हैं, वे मंत्री हैं या झारखंड के ताकतवर राजनेता हैं. एक ऐसे फिक्सर के घर प्रभावी राजनेता पहुंचे, इससे राजनीति का चरित्र साफ हो रहा है. क्या यह राजनीति समाज को दिशा देगी? कहीं समाज में ऐसी राजनीति या राजनेताओं के प्रति घृणा, नफरत या तिक्तता का बोध है? कहीं किसी राजनीतिक पार्टी में यह आग है कि वह व्यवस्था में ऐसी सफाई करना चाहती है कि दोबारा रंजीत उर्फ रकीबुल पैदा न हों? न सरकार में, न विपक्ष में यह बेचैनी है? क्योंकि दोनों को रंजीत उर्फ रकीबुल जैसे लोग सूट करते हैं.

आम जनता में तो यह नफरत ही नहीं है कि समाज में ऐसे लोग पनप और पल कैसे रहे हैं? जो लोग बिना श्रम, सिर्फ दलाली कर करोड़ों में खेलते हैं, समाज के बहुसंख्यक लोग उसकी पूजा करते हैं. वह आइकन माना जाता है. हर बड़ी पार्टी के पास दिल्ली से लेकर राज्य की राजधानियों और जिले के तहसील तक रंजीत उर्फ रकीबुल हैं. क्योंकि समाज में चरित्र, तप, त्याग की पूजा ही नहीं रह गयी है. इससे जुड़ा एक और अचर्चित पहलू. राजनेता या मंत्री या अफसर, अपना काम कराने के लिए रंजीत के घर पहुंचते हैं. उसे पैसा देते हैं. उसकी कृपा चाहते हैं. यानी व्यवस्था चलानेवाले मंत्री या अफसर, जिनके हाथों में व्यवस्था चलाने के सूत्र हैं, वही अपना काम नहीं करा पा रहे. उन्हें भी एक फिक्सर की मदद चाहिए. ऐसी स्थिति में एक सामान्य व्यक्ति की क्या स्थिति होगी? यह है, इस व्यवस्था का असली चेहरा. नफरत और आग तो इस स्थिति के खिलाफ हो, तो बात बनेगी. पर बेचैनी इस समाज में है कहां?

अब देखिए, सत्ता चलाता कौन है? सरकारी अफसर चाहे पुलिस के हों या सिविल सेवा के. जिनके हाथ में अधिकार है, वैसे लोगों को रंजीत के दरबार में हाजिर होने की मजबूरी क्या थी? इस गुत्थी की गहराई में उतरिए, व्यवस्था कैसे चल रही है, सारा खेल साफ हो जायेगा. यह सिर्फ एक रांची के रंजीत उर्फ रकीबुल का मामला नहीं, पूरी व्यवस्था और तंत्र में रंजीत उर्फ रकीबुल निर्णायक हैं. इसलिए झारखंड सरकार ने अपने अफसरों से पूछा तक नहीं कि आपका इस आदमी से कैसे संपर्क रहा? इसको करोड़ों के ठेके कैसे मिले? यह बड़े-बड़े टेंडरों में किस हैसियत से निर्णायक दखल रखता है? किसके संरक्षण में? झारखंड उच्च न्यायालय ने तत्काल रास्ता दिखाया. न्याय सेवा से जुड़े जिन लोगों के नाम इस प्रसंग में सामने आये, उनसे पूछताछ हुई. पर झारखंड पुलिस और सिविल अफसरों से कौन पूछेगा? उन पर क्या कार्रवाई होगी? कभी नहीं?

कारण पेड़ लगवाने और टेंडर मैनेज करने के अन्य धंधों में रंजीत उर्फ रकीबुल का नाम आया. दरअसल, मूल वजह कहीं और है. हमने अपनी व्यवस्था ऐसी बना ली है कि लोगों के जीवन से जुड़ी मामूली चीजों में भी सही और कानूनन काम नहीं होते. जहां भी सही, पारदर्शी और कानूनन काम नहीं होगा, वहां रंजीत उर्फ रकीबुल पैदा होंगे. झारखंड में चुनाव होनेवाला है. हर दल के सही राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक अवसर है कि झारखंड की राजनीति और व्यवस्था सुधरे. यह व्यवस्था सुधरेगी, तभी रंजीत उर्फ रकीबुल पैदा नहीं होंगे. गौर करिए, नीचे लिखे कामों पर. ये ऐसे काम हैं, जिनका ताल्लुक हर एक नागरिक से है. पर हर काम में फिक्सर या बिचौलियों या रंजीतों की उपस्थिति है.

-जन्म प्रमाण पत्र

-मृत्यु प्रमाण पत्र

-जाति प्रमाण पत्र

-आवासीय प्रमाण पत्र

-आय प्रमाण पत्र

-फोटो पहचान पत्र

-नया बिजली कनेक्शन

-पानी कनेक्शन व बोरिंग

-नगर निगम से होल्डिंग लेने में

-ड्राइविंग लाइसेंस

-वाहन का नाम ट्रांसफर कराने

-वाहन का फिटनेस सर्टिफिकेट

-वाहन का परमिट बनाने में

-जमीन और फ्लैट की रजिस्ट्री

-जमीन और फ्लैट के म्यूटेशन

-नक्शा पास कराने

-प्राथमिकी दर्ज कराने

-पासपोर्ट वेरिफिकेशन इत्यादि

अगर इन क्षेत्रों में घूस, बिचौलिये, दलाल और फिक्सर बंद हो जाये, तो एक बड़ा बदलाव होगा. रंजीतों को जन्म देनेवाली व्यवस्था एक सीमा तक ठीक होगी. इस मामले में कानूनी कार्रवाई हो, सख्त सजा हो, यह सब अलग है, पर उससे भी जरूरी है कि ऐसा माहौल बने कि रंजीत उर्फ रकीबुल की फौज कम से कम पनपे. इसी में हर धर्म, जाति, क्षेत्र और संप्रदाय का भला है. देश और राज्य का भी. क्योंकि समाज के सबसे बड़े दुश्मन ऐसे फिक्सर ही हैं. रंजीत, बीमार-भ्रष्ट व्यवस्था और सड़ी राजनीति की उपज है. जब तक इस राजनीति को बदलने की गंभीर पहल नहीं होगी, ऐसे लोगों का उदय-प्रभाव खत्म नहीं होगा. झारखंड में चुनाव होने हैं. क्या किसी दल के पास इस राजनीतिक संस्कृति की सफाई का संकल्प है? अगर हां, तो इससे बढ़िया अवसर, सिद्धांत-आदर्श की राजनीति के लिए नहीं हो सकता?

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