विधवाओं की आवाज कौन सुनेगा!

जिस महिला को परिवार ने ठुकरा दिया, वह कैसे जीवित रहेगी? जहां भी उसे उम्मीद की किरण दिखायी देगी, वह वहीं जायेगी. वृंदावन में उसे यह किरण दिखायी दी, वहां भजन-कीर्तन कर पेट भरने लगा, तो वहीं बस गयी. भगवान श्रीकृष्ण की नगरी वृंदावन में 10 हजार से ज्यादा विधवाएं या तो किसी आश्रम की […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 22, 2014 1:04 AM

जिस महिला को परिवार ने ठुकरा दिया, वह कैसे जीवित रहेगी? जहां भी उसे उम्मीद की किरण दिखायी देगी, वह वहीं जायेगी. वृंदावन में उसे यह किरण दिखायी दी, वहां भजन-कीर्तन कर पेट भरने लगा, तो वहीं बस गयी.

भगवान श्रीकृष्ण की नगरी वृंदावन में 10 हजार से ज्यादा विधवाएं या तो किसी आश्रम की शरण में हैं या फिर भीख मांग कर किसी तरह जी रही हैं. ये बेबस हैं. परिवार से उपेक्षित हैं. अधिकतर पश्चिम बंगाल की रहनेवाली हैं. कुछ बिहार, ओड़िशा और अन्य प्रांतों से भी. राजनीतिक दलों ने भी इन विधवाओं का कभी साथ नहीं दिया.

मथुरा संसदीय क्षेत्र से सांसद हैं हेमा मालिनी. चुनाव के वक्त जब टीवी पर चुनावी खबरें चलती थीं, तो दिखाया जाता था कि कैसे हेमा मालिनी खेतों में काम करनेवाली महिलाओं के पास जाकर उनके कामों में हाथ बंटाती थीं. उनकी छवि सहायता करनेवाली महिला प्रत्याशी की बनायी गयी थी. अब उनका बयान (विवादित) आया है कि विधवाओं को दूसरे प्रांतों से वृंदावन आकर भीड़ नहीं बढ़ानी चाहिए. इस बयान का विरोध हुआ है. हालांकि उन्होंने बाद में सफाई भी दी. विधवाएं उनसे यह उम्मीद कर रही थीं कि क्षेत्र प्रतिनिधि होने के नाते वे उन्हें उनका अधिकार दिलायेंगी. इन विधवाओं को अभी तक वोट देने का भी अधिकार भी नहीं मिल पाया है, जबकि इनमें से कई तो 30-40 साल से वृंदावन में रह रही हैं. उनके पास मतदाता परिचय पत्र भी नहीं है.

सांसद महोदया को समझना चाहिए कि वृंदावन भगवान श्रीकृष्ण की नगरी है. कृष्ण की शरण में कोई भी जा सकता है. अगर ये बेबस-लाचार महिलाएं वहां रह रही हैं तो सांसद को क्यों दिक्कत हो रही है? इनमें अनेक 70-80 साल की विधवाएं हैं. जीवन के अंतिम दिन वहां व्यतीत कर रही हैं. होना तो यह चाहिए था कि ऐसे असहाय लोगों के लिए अधिक से अधिक आश्रम बनवा देतीं. सांसद के पास अपने फंड होते हैं. उसका वह उपयोग करतीं. अगर नहीं तो कम से कम उन्हें राज्य से बाहर करने की बात नहीं करतीं. यह सही है कि अगर परिवार उनकी सहायता करता, राज्य सरकार उन्हें अपने यहां सुविधा देती तो वे क्यों अपना घर-प्रांत छोड़ कर जातीं. यह देश सबका है. कोई कहीं भी आ-जा सकता है.

खुद हेमा मालिनी मथुरा की रहनेवाली नहीं हैं. उनकी जन्मभूमि तमिलनाडु है. मुंबई में उन्होंने फिल्मों में काम किया. सांसद बनीं उत्तर प्रदेश से. वह देश में कहीं से भी चुनाव लड़ सकती थीं और उन्होंने मथुरा को चुना. लेकिन जब ये विधवाएं बंगाल, बिहार या अन्य प्रांतों से वृंदावन आने लगीं तो उन्हें आपत्ति होने लगी. यह दोहरापन है.वृंदावनकी विधवाओं का मामला इस बात को प्रमाणित करता है कि देश के बड़े इलाके में आज भी कम उम्र में विधवा हुई महिलाओं की उपेक्षा होती है. पति की मौत के बाद बोझ समझ कर घर से बाहर होने के लिए मजबूर कर दिया जाता है. इसलिए इन महिलाओं को धर्मस्थलों में शरण लेनी पड़ती है. इन्हें भी अपना जीवन बेहतर तरीके से जीने का हक है, लेकिन अपनों से सहयोग नहीं मिलता. यह दोष समाज का है. हम अपने ही समाज की महिलाओं को सम्मान नहीं दे पाये, यह शर्मनाक है.

हेमा का यह बयान बताता है कि समाज कितना असंवेदनशील हो गया है. जब कोई साधन संपन्न, अमीर व्यक्ति किसी दूसरे प्रांत में जाकर अपना व्यवसाय करता है, तो उसका विरोध नहीं होता. लेकिन जब कोई गरीब पेट पालने के लिए किसी शहर में जाता है, तो उसे वहां से भगाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाता है. सांसद को प्रांतवाद से ऊपर उठना चाहिए.

ऐसे ही बयान तो राज ठाकरे दिया करते हैं कि कैसे मुंबई में बिहार, यूपी और झारखंड के लोगों की आबादी बढ़ती जा रही है. हेमा का बयान भी राज ठाकरे जैसा ही है. देश में हर धर्म के धार्मिक स्थल हैं. ये सिर्फ आस्था के प्रतीक ही नहीं हैं, बल्कि लाखों लोगों का जीवन इन स्थानों से चलता है. जो लोग अभाव में जी रहे हैं, वे जाति-धर्म के बारे में नहीं, बल्कि पेट भरने के बारे में सोचेंगे. उन्हें यह विश्वास होता है कि धार्मिक स्थल पर जाने से उनका जीवन चल सकता है. इसलिए वे वृंदावन या अन्य धार्मिक स्थलों में शरण लेते हैं.

सवाल यह है कि जिस महिला को परिवार ने ठुकरा दिया, जिसका ख्याल नहीं किया, वह कैसे जीवित रहेगी. जहां भी उसे उम्मीद की किरण दिखायी देगी, वह वहीं जायेगी.वृंदावनमें उन्हें यह किरण दिखायी दी, वहां भजन-कीर्तन कर पेट भरने लगा तो वहीं बस गयी. इसलिए इन महिलाओं की बेबसी का मजाक उड़ाने से बेहतर होगा कि उन्हें सम्मान के साथ जीने के लिए सुविधा दी जाये. अनेक एनजीओ इस काम में लगे हैं. लेकिन 10 हजार महिलाओं के लिए आश्रम नहीं हैं. सिर्फ 10 फीसदी विधवाओं को ही आश्रम की सुविधा मिली है. तमाम राजनीतिक दलों को मिल कर इसका समाधान खोजना चाहिए. किसी को उसके प्रांत भेज देना समाधान नहीं है. सरकार वृद्धाओं को पेंशन देती है. लेकिन शायद इन महिलाओं को यह भी नहीं मिलती होगी. ऐसी विधवाओं के साथ समाज को खड़ा होना होगा, उन्हें उनका अधिकार दिलाना होगा, ताकि वे किसी के अहसान पर नहीं, बल्कि सम्मान के साथ जिंदा रह सकें.

अनुज कुमार सिन्हा

वरिष्ठ संपादक

प्रभात खबर
anuj.sinha@prabhatkhabar.in

Next Article

Exit mobile version