राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की 106वीं जयंती पर विशेष

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज 106वीं जयंती है. उनके गुजरे हुए 40 साल से अधिक का वक्त बीत चुका है मगर उनकी रचनाएं आज भी देश के बच्चे-बच्चे की जुबां पर बनी हुई हैं. उनका गांव सिमरिया उनकी जयंती के मौके पर हर साल उनकी याद में कार्यक्रम आयोजित करता है. इस साल भी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 23, 2014 6:14 AM

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की आज 106वीं जयंती है. उनके गुजरे हुए 40 साल से अधिक का वक्त बीत चुका है मगर उनकी रचनाएं आज भी देश के बच्चे-बच्चे की जुबां पर बनी हुई हैं. उनका गांव सिमरिया उनकी जयंती के मौके पर हर साल उनकी याद में कार्यक्रम आयोजित करता है. इस साल भी वहां दो दिवसीय आयोजन होने जा रहा है. इस मौके पर उन्हें याद करते हुए प्रभात खबर की यह प्रस्तुति.

कर्ण के बहाने सामाजिक न्याय
।। शत्रुघ्न प्रसाद सिंह ।।
(पूर्व सांसद)
पौरुष पुंज दिनकर ने पौरुष की पहली आग को जलद पटल से निकाल कर प्रज्वलित किया. सामाजिक न्याय के प्रखर पुरोधा थे दिनकर! अटूट सामंती व्यवस्था के कलुष पाषाण को भी लेखनी की तेज धार से तोड़ने में अद्भुत साहस का परिचय है रश्मिरथी! दिनकर ने रश्मिरथी की भूमिका में लिखा है कर्ण चरित्र का उद्धार एक तरह से नयी मानवता की स्थापना का प्रयास है. उपेक्षित एवं कलंकित मानवता के मूक प्रतीक के हाथों अग्निबाण दिया है दिनकर ने. कर्ण ने जब अर्जुन को द्वंद्व युद्ध के लिए ललकारा, तब जाति, गोत्र की घृणित अहंकारी आवाज टकराने लगी.
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पातें हैं जग से प्रशस्ति अपना करतब दिखला के.
जब कृपाचार्य ने भरतवंश अवतंस, पांडु संतान अर्जुन की ललकार पर जातीय दंभ प्रदर्शित करते हुए कहा था-
नाम धाम कुछ कहो,
बताओ कि तुम जाति हो कौन?
तब कर्ण का हृदय क्षुब्ध हो उठता है, वह क्रुद्ध होकर सूर्य की ओर देखता है और धीर वीर गंभीर कर्ण कहता हैं-
जाति-जाति रटते, जिनकी पूंजी केवल पाखंड
मैं क्या जानूं जाति? जाति हैं ये मेरे भुजदंड.
जातीय उन्माद की खेती करनेवाले सत्ता के शीर्ष पर हैं. वे ही सामाजिक न्याय के पुरोधा हैं. जाति-जाति रटनेवाले पाखंड का प्रदर्शन कर भारत भाग्य विधाता बन बैठे हैं. ऐसे पाखंडी किसी वृत्त पर खिलनेवाले फूल का नमन नहीं कर सकते हैं. वर्गीय समाज में विषमता के विष वृक्ष की विशालता से पूरे राष्ट्र की काया जर्जर हो गयी है. ऐसी घड़ी में दिनकर याद आते हैं. पौरुष की पहली आग रश्मिरथी कर्ण को उपेक्षा के नरक कुंड से निकाल कर सामाजिक न्याय की मशाल थमा दी. कर्ण एक ऐसा चरित्र है जो बेशर्म जातिवादी नेताओं को धिक्कारता है–
ऊपर सिर पर कनक छत्र,
भीतर काले के काले
शरमाते हैं नहीं जगत में जाति पूछनेवाले
कर्ण का धिक्कार पूरी जातिवादी शोषण आधारित व्यवस्था पर है. 1950 में आज से अधिक जातीय उन्माद का नग्न रूप था. संसदीय राजनीति के सामने भारतीय संविधान के निर्माताओं ने ऐतिहासिक दायित्व सौंपा था. सब लोग डॉक्टर आंबेडकर को इस बात का श्रेय देते थे कि उन्होंने आजादी के बाद पहली बार संवैधानिक शब्दावली में अनुसूचित जाति एवं जनजाति को मानवीय गरिमा प्रदान की थी. अस्पृश्यता निवारण कानून का मजबूत हथियार दलितों को अवश्य मिला. छुआछुत के कुसंस्कारों से धीरे-धीरे मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हुआ, लेकिन आर्थिक, सामाजिक अवसर की असमानता बदस्तूर जारी है. दिनकर लिखते हैं-
मस्तक ऊंचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर अधम में शोषण के बल से सुख में पलते हो.
अधम जातियों से थर-थर कांपते तुम्हारे प्राण,
छल से मांग लिया करते हो, अंगूठे का दान.
कवि भविष्यद्रष्टा भी होता है और साहित्य समाज का दर्पण भी होता है. मुख मंडल की आकृति दर्पण ईमानदारी से दिखलाता है. दिनकर का रश्मिरथी एक ऐसा दर्पण है जो आज भी पूरे दलित समाज के साथ हो रहे छल को उजागर कर रहा है. रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग में दिनकर लिखते हैं-
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा,
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा.
कर्ण इसका उत्तर देता हैं-
पर मेरा क्या दोष, हाय मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान द्रोण के, मैं कैसे पैरों पड़ता.
और पांव पड़ने से भी क्या, गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अंगूठा, क्या मेरा कटवाते वे.
कर्ण गुरु परशुराम के आश्रम में जब दीक्षा लेने गया. गुरु को विष कीट की पीड़ा से बचाने के लिए स्वयं लहूलुहान हो जाता है. कर्ण के पांव हिलने से गुरु की नींद उचट जाती है. शिला-सी सहनशीलता को धारण करते हुए अचल आसन पर बैठे गुरु की भक्ति और असह्य पीड़ा को झेलते हुए प्रदर्शित कर रही उसकी शिला सदृश सहनशीलता उसके लिए अभिशाप साबित हुई. गुरु की क्रोधाग्नि में कर्ण जलने लगा. गुरु के साथ छल का दंड उसे मिला.
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो काम नहीं वह आयेगा,
है यह मेरा शाप समय पर उसे भूल तू जायेगा.
इसके बावजूद कर्ण गुरु के चरण की धूलि लेकर उन्हें अपने हृदय की भक्ति देकर निराश, विकल, टूटा हुआ किसी गिरिशृंग से छूटे हुए चांद जैसा चमत्कृत लेकिन मलिन मुस्कान लिये जा रहा था. यह जातीय दंभ का अति घिनौना रूप है. क्या सहनशीलता किसी जाति की बपौती है. ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र जैसे अवैज्ञानिक, अमानवीय, विभेदमूलक वर्गीकरण ने भारतीय समाज को खंड-खंड कर क्रूर मजाक बना दिया है. खाप पंचायत अंतरजातीय, अंतरधार्मिक संबंधों पर कत्लेआम का हुक्मनामा जारी करती है, भारतीय संविधान की धज्जियां उड़ायी जाती है. यहीं जातीय उन्माद धार्मिक उन्माद में जब तब्दील होता है तब और भी खूंखार व भयावह रूप सामने आता है और पूरा राष्ट्र नरमेध के कलंक से शर्मसार हो उठता है.
दिनकर को बार-बार याद करना आज भी प्रासंगिक है. राजनीति की खेती के लिए जातीय बीज उर्वर है. जब तक सियासी दल जातीय एवं धार्मिक समीकरण के गणित को संसद में प्रवेश का आधार बनाते रहेंगे तब तक कर्ण व एकलव्य छले जाते रहेंगे. समरस समाज के लिए संघर्ष की मशाल थामे रहना होगा और ऐसे जातिवादियों के समूल उन्मूलन हेतु पौरुष की पहली आग बन कर आह्वान करना होगा.
भा मंडल! भरो झंकार, बोलो,
जगत की ज्योतियों! निज द्वारा खोलो
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हूं
चढ़ा मैं रश्मिरथ पर आ रहा हूं.
* जीवन यात्रा: अमिताभ नाम से की थी लेखन की शुरुआत
रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के सिमरिया गांव में 23 सितम्बर 1908 में हुआ. यह गांव मिथिला-भूमि का एक तीर्थ-स्थल भी माना जाता है जो दो नदियों से घिरा हुआ है. गंगा नदी पर निर्मित राजेन्द्र-सेतु का उत्तरी किनारा सिमरिया गांव के साथ लगता है. रामधारी सिंह पिता बाबू रवि सिंह व माता मनरूप देवी की दूसरी संतान थे. साधारण कृषक परिवार से सम्बंधित दिनकर अभी एक वर्ष के ही थे कि उनके पिता का देहावसान हो गया. मां ने आर्थिक विषमताओं को झेलते हुए बेटों का पालन पोषण किया. विवाह किशोरावस्था में ही हो गया था उनकी पत्नी ने सहधर्मिणी का उत्तरदायित्व निभाते हुए दिनकर की पढ़ाई तथा साहित्य-साधना में पूरा सहयोग दिया. उनकी प्रारंभिक शिक्षा पड़ोस के गांव बोरो में हुई जहाँ पर उन्होंने हिन्दी व उर्दू की शिक्षा हासिल की. सरकारी स्कूल से मिडिल पास करने के बाद मोकामा घाट स्कूल से 1928 में मैट्रिक की परीक्षा पास की.
* तय था कवि ही बनेंगे
साम्प्रदायिक एकता, राष्ट्रीयता, जातीय सद्भावना उन्हें अपने उस परिवेश से मिली जहां बोरो गांव में हिन्दु-मुस्लिम छात्र एक राष्ट्रीय पाठशाला में हिन्दी-उर्दू इकट्ठे पढ़ते थे. यहीं से दिनकर को कविता के प्रति रुचि पैदा हुई.
गोपाल कृष्ण कौल से एक भेंट वार्ता के दौरान उन्होंने बताया मैं न तो सुख में जन्मा था, न सुख में पल कर बढ़ा हूँ. किन्तु मुझे साहित्य का काम करना है, यह विश्वास मेरे भीतर छुटपन से ही पैदा हो गया था. इसलिए ग्रेजुएट होकर जब मैं परिवार में रोटी अर्जित करने में लग गया तब भी, मेरी साहित्य की साधना चलती रही.
(दिनकर सृष्टि और दृष्टि; पृ 17) आरम्भ में दिनकर की युवा जोश-भरी रचनाएं युवक पत्र, जिसे रामवृक्ष बेनीपुरी जी निकालते थे, में अमिताभ नाम से प्रकाशित हुई. चमक-दमक से दूर एक साधारण वेश-भूषा और सादा जीवन जीने वाले रामधारी सिंह एक मेधावी छात्र, देशप्रेम से ओत-प्रोत व तत्कालीन स्वतन्त्रता संग्राम में अपनी सक्रिय भूमिका अंकित करने के उत्कट इच्छुक थे.
* सुहायी नहीं नौकरियां
1930 में गांधी जी के नमक सत्याग्रह में सक्रि य भागीदारी भी की किन्तु अपने पारिवारिक जीवन के दायित्वों के कारण बीए करने के लिए अपनी पढ़ाई जारी रखनी पड़ी. एक निर्धन किसान परिवार की आर्थिक व प्राकृतिक परेशानियों से जूझते हुए बीए पास करने के बाद उन्होंने 55 रुपये मासिक पर एक स्कूल में हैडमास्टर की नौकरी शुरू की, किन्तु एक ज़मीदार द्वारा संचालित इस स्कूल में अंग्रेज़ियत का बोलबाला और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप के रहते उसे छोड़ कर उन्होंने 1934 में सब रजिस्ट्रार की नौकरी हासिल की और 1943 तक इस पद पर रहे.
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद उन्हें प्रचार विभाग का डिप्टी-डायरेक्टर बना दिया गया किन्तु नौकरी से ऊबे हुए दिनकर जी ने 1950 में इस्ती़फा दे दिया. इसके बाद बिहार सरकार ने मुजफुरनगर के पोस्ट ग्रेजुऐट कालेज में हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया. 1952 में इस पद को भी त्याग कर वे राज्य सभा के सदस्यपद पर आसीन हुए. इसके पश्चात भागलपुर विश्वविद्यालय में उप कुलपति रहे.
(साभार-अनहदकृति.कॉम)

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