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कितनी बदसूरत ये तसवीर है, ये कश्मीर है

जम्मू-कश्मीर में बाढ़ आने से पहले चुनावी माहौल बनना शुरू हो गया था. बाढ़ आने से सबका ध्यान राहत पर केंद्रित रहा, लेकिन जैसे-जैसे पानी घट रहा है, राजनीति तेज हो रही है. बाढ़ से पहले चुनाव को लेकर जैसे बयान आये थे, वे तो खतरनाक थे ही और अब बाढ़ राहत पर भी राजनीति […]

जम्मू-कश्मीर में बाढ़ आने से पहले चुनावी माहौल बनना शुरू हो गया था. बाढ़ आने से सबका ध्यान राहत पर केंद्रित रहा, लेकिन जैसे-जैसे पानी घट रहा है, राजनीति तेज हो रही है. बाढ़ से पहले चुनाव को लेकर जैसे बयान आये थे, वे तो खतरनाक थे ही और अब बाढ़ राहत पर भी राजनीति शुरू हो गयी है. इसे देखते हुए तय लग रहा है कि आसन्न विधानसभा चुनाव में बाढ़ राहत किसी के लिए विश्वास जीतने का नारा होगा, तो किसी के लिए अविश्वास बढ़ा कर फायदा उठाने का.

बाढ़ राहत के दौरान जिस तरह कश्मीर के भीतर और बाहर, दोनों जगह कुछ तत्व संवेदनहीनता का परिचय दे रहे हैं, उस पर गौर करने की जरूरत है. यह संवेदनहीनता जम्मू-कश्मीर में आकार ले रहे राजनीतिक माहौल को और विषमय बनानेवाली है. विश्वास जीतने के नाम पर कहीं अविश्वास की खाई और चौड़ी न हो जाये.

जम्मू-कश्मीर वह राज्य है जहां स्थानीयता के नाम पर कांग्रेस को छोड़ किसी दूसरे राष्ट्रीय या अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों को राजनीतिक स्पेस नहीं मिल पाया और न ही इन दूसरे दलों ने कभी गंभीरता से इसकी कोशिश की. पिछले आम चुनाव में मामला उलट गया. जम्मू-कश्मीर की छह सीटों में से भाजपा ने तीन जीतीं, जबकि कांग्रेस एक भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पायी. बाकी तीन सीटें महबूबा मुफ्ती की अगुवाई वाले वहां के क्षेत्रीय दल पीडीपी को मिलीं. भाजपा को लग रहा है कि जब आमचुनाव में वह तीन सीटें जीत सकती हैं तो विधानसभा चुनाव में भी सरकार बनाने के करीब पहुंच सकती है.

लिहाजा बीते 23 जून को भाजपा ने आमचुनाव की तर्ज पर जम्मू-कश्मीर के लिए मिशन 44 प्लस लांच कर दिया. मुसीबत की आहट इसमें नहीं है कि दक्षिणपंथी भाजपा 44 से ज्यादा सीटें जीतने के लिए काम कर रही है. मुसीबत की आहट सुनाई दे रही है नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस व पीडीपी की प्रतिक्रिया में. भाजपा को इस आमचुनाव में सभी पार्टियों के मुकाबले सबसे ज्यादा 32.4 फीसदी वोट मिले हैं. बाकी तीन सीटें जीतीं पीडीपी ने और ये तीनों कश्मीर संभाग की हैं. पीडीपी को वोट मिले 20 फीसदी से थोड़ा ज्यादा.

भाजपा को मिले वोट प्रतिशत और इसके बाद उसके मिशन 44 प्लस से कश्मीरी नेता सकते में हैं. जम्मू-कश्मीर के कुछ विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा इस विधानसभा चुनाव में 44 सीटें जीत कर पूरे देश को चौंका सकती है. अगर ऐसा होता है तो यह बात जम्मू-कश्मीर मसले पर पूरे समीकरण बदल सकने की कूवत रखती है, लेकिन इस संभावना या आशंका को जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय दल, कांग्रेस व अलगाववादी जिस तरह से ले रहे हैं या मुकाबला करने की जिस रणनीति पर आगे बढ़ते दिख रहे हैं, वह आफत की आहट है.

मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि यदि भाजपा कश्मीर में सीटें जीतती है, तो इसकी पूरी जिम्मेदारी पाक परस्त अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी की होगी, क्योंकि वह चुनाव बहिष्कार करते हैं, जिसके चलते आम कश्मीरी वोट डालने नहीं जाता है. यदि इस बार वे चुनाव बहिष्कार करते हैं तो इसके चलते ही कश्मीर में भाजपा पैर रखने की जगह पा सकेगी.

गिलानी को बहिष्कार के अपने आह्वान पर पुनर्विचार करना चाहिए और अगर वह अपना आह्वान वापस नहीं लेते, तो भाजपा त्राल, सोपोर, अमीराकदल, हब्बाकदल, खानियार जैसी सीटों के जरिये कश्मीर की राजनीति में जगह बना लेगी. उमर यह भी कहने से नहीं चूके कि यदि भाजपा जीतती है तो इससे उनकी (गिलानी की) तहरीक को बड़ा झटका लगेगा. पीडीपी के आडियोलॉग व जम्मू-कश्मीर बैंक के चेयरमैन हसीब द्राबू का कहना है कि भाजपा का उद्देश्य चुनाव जीत कर अलगाववादी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस को कमजोर करना और कश्मीरी राष्ट्र के संघर्ष को कुंद करना है. इन बयानों से क्या निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए?

इन बयानों को पढ़ कर पहला सवाल यह उठता है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस यानी उमर अब्दुल्ला हुर्रियत के कमजोर होने की बात कह कर गिलानी को क्यों डरा रहे हैं? यदि हुर्रियत कमजोर होती है, तो उनको खुश होना चाहिए. लेकिन वह तो गिलानी को सलाह दे रहे हैं कि आप कमजोर हो जाओगे, इसलिए चुनाव बहिष्कार न करो. वह क्यों हुर्रियत को कमजोर होते नहीं देखना चाहते? पीडीपी के आडियोलॉग द्राबू भी इसी लाइन पर बोल रहे हैं. क्यों? लोकतंत्र में तो लोकतांत्रिक तरीके से ही लड़ना चाहिए.

यदि भाजपा खराब है तो अपने तर्कों से पूरे अवाम में माहौल बनाइये और भाजपा को स्पेस न मिलने दीजिये. लेकिन भाजपा को स्पेस इसलिए न मिले क्योंकि जम्मू-कश्मीर में पार्टी या समुदाय विशेष की मोनोपली खत्म हो जायेगी, यह कह कर लोगों को डराने का तरीका तो बेहतर कल की ओर ले जानेवाला नहीं है. आश्चर्य की बात यह है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस व पीडीपी दोनों ही इस बात को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं कि भाजपा के जीतने से अलगाववादी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की वैधानिकता खत्म हो जायेगी.

कोई बतायेगा कि भारतीय संविधान व जम्मू-कश्मीर के संविधान, दोनों के हिसाब से क्या हुर्रियत वैधानिक है? ताज्जुब की बात यह है कि कश्मीर में सक्रिय मुख्यधारा के सभी दल लगातार कहते रहे हैं कि हुर्रियत नेताओं की हैसियत नहीं कि वे चुनाव जीत सकें, क्योंकि उनको जनसमर्थन है ही नहीं. मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि अब वे हुर्रियत को आगाह क्यों करने लगे? इससे तो यही लगता है कि जम्मू-कश्मीर की अशांति में सबके अपने स्वार्थ हैं. कश्मीर में भाजपा को लेकर जो अभियान चलाया जा रहा है, वह तो मुंह में राम बगल में छुरी वाली कहावत ही चरितार्थ कर रहा है.

दरअसल, जम्मू-कश्मीर में सारी समस्याओं की जड़ राजनीतिकों का स्वार्थ और दोमुंहा चरित्र ही है. अन्यथा कोई कारण नहीं नजर आता कि जो कश्मीरी आजादी के समय पाकिस्तान की ओर से किये गये कबायली हमले का हिम्मत से सामना कर रहे थे और भारत व भारतीय फौज की हर तरह से मदद कर रहे थे, उन्हीं कश्मीरियों में आज संशय इतना गहरा क्यों हो गया कि वे मौका मिलते ही भारत विरोध का झंडा बुलंद करते हैं.

मैं भाजपा के समर्थन की बात नहीं कर रहा हूं, लेकिन भाजपा का विरोध लोकतांत्रिक तरीके से ही किया जाना चाहिए. चुनाव में कोई भी दल हिस्सा ले सकता है. यदि 70 व 80 के दशक में मुसलिम यूनाइटेड लीग (एमयूएल, जिसके नेता सैयद अली शाह गिलानी थे) चुनाव में हिस्सा ले सकती है तो भाजपा क्यों नहीं? लेकिन एमयूएल को हराने के लिए जो हथकंडे नेशनल कॉन्फ्रेंस व कांग्रेस ने उस समय इस्तेमाल किये थे, उनकी ही देन है कि कश्मीर में आजादी के बाद 30-35 साल तक एक इंच भी जगह बनाने में नाकामयाब रही आइएसआइ को स्पेस मिल गया.

आज भाजपा का सामना करने के लिए अलगाववादियों के उद्देश्य की दुहाई देकर उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप अपने पाले में लाने की कोशिशें वहां की पार्टियां कर रही हैं. बाढ़ ने इसमें एक एंगल और जोड़ दिया है. ऐसे में यदि भाजपा केंद्रीय बाढ़ राहत को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश करती है, तो अविश्वास की खाई और चौड़ा करने का काम करेगी.

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