प्रधानमंत्री का उत्साह देख कर फिलहाल भरोसा होता है कि उद्यमशीलता के रास्ते में आनेवाली बाधाएं दूर हो सकेंगी और ‘मेक इन इंडिया’ के नारे को ‘गरीबी हटाओ’ के नारे जैसा हश्र प्राप्त होने से रोका जा सकेगा.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजना ‘मेक इन इंडिया’ की 25 सितंबर, 2014 को शुरुआत के साथ ही इसकी सफलता को लेकर भी सवाल खड़े होने शुरू हो गये हैं. गत 15 अगस्त को लाल किले से प्रधानमंत्री ने दुनिया भर के देशों की कंपनियों को आमंत्रित करते हुए कहा था कि वे अपनी उत्पादन इकाइयों को भारत में लाएं और यहां के सस्ते पर कुशल श्रम का लाभ उठा कर कम लागत में उत्पादन का लाभ उठाएं. भारत में सस्ते श्रम के कारण कम उत्पादन लागत का हवाला देकर पिछले कई वर्षो से भारत को एक मैन्युफैरिंग हब के रूप में हमारे नीति-निमार्ताओं द्वारा पेश किया जाता रहा है, लेकिन अब तक इसमें सफलता नहीं मिली है. भारत इलेक्ट्रॉनिक सामानों का एक बहुत बड़ा उपभोक्ता है, लेकिन इन सामानों का उत्पादन यहां नहीं हो पाता.
जो पिछले कई वर्षो में नहीं हो पाया, उसे मोदी संभव बनाने चले हैं. वे अपना आइडिया दुनिया भर में बेच रहे हैं. जापान में उन्होंने अपनी इस परियोजना की जबरदस्त पैरवी की और अमेरिका यात्र के ठीक पहले उन्होंने इसकी शुरुआत की घोषणा भी कर दी. लेकिन, क्या वाकई भारत दुनिया भर की कंपनियों को अपनी ओर खींच पायेगा? इसका जवाब पाने के पहले यह जानना जरूरी है कि भारत एक औद्योगिक उत्पादक देश के रूप में दुनिया के आकर्षण का केंद्र क्यों नहीं बन पाया है. इसका सबसे बड़ा कारण भारत का व्यापारिक माहौल है, जो विदेशी निवेशकों को अपनी ओर आने नहीं देता.
विदेशों में उत्पादन शुरू करने के अपने खतरे होते हैं, जिनका आकलन करने के बाद ही कोई उद्यमी अपना उद्यम शुरू करता है. भारत की छवि एक ऐसे देश की है, जिसकी नीतियां उद्यमियों को हतोत्साहित करनेवाली रही है. नयी आर्थिक नीतियों के दौर में अनेक नीतियों में बदलाव किये गये हैं, लेकिन श्रम नीतियों में बदलाव होना अब भी बाकी है. एक्जिट पॉलिसी की खूब चर्चा हुआ करती थी, जिसके तहत घाटे में चल रही कंपनियों की तेजी से बंदी की सहूलियत हो, लेकिन अब भी एक संतोषजनक एक्जिट पॉलिसी नहीं बन पायी है.
नयी आर्थिक नीतियों की शुरुआत ही ऐसे समय में हुई, जब गंठबंधन सरकार का दौर चल रहा था. ऐसी सरकारें 23 वर्षो तक चलती रहीं, जिसके कारण नीतियों को लेकर अनिश्चय का दौर बना रहा. जब राजनीतिक अस्थिरता हो, तो फिर नीतियों की स्थिरता को लेकर भी उद्यमी और निवेशक सशंकित रहते हैं. इस तरह की शंकाएं भी उद्यमियों को भारत की ओर रुख करने से रोकती रही हैं. इसके अलावा भारत भ्रष्टाचार के लिए भी कुख्यात रहा है. यहां की नौकरशाही दुनिया भर में बदनाम है. उनका सामना करना उद्यमियों के लिए हताशा का सबब बनता रहा है. बीच-बीच में होनेवाले भ्रष्टाचार के खुलासे और उसकी प्रतिक्रिया में उठाये गये कदमों से भी माहौल खराब होता है. यूपीए-2 की सरकार तो नीति-निर्माण के स्तर पर लगभग लकवाग्रस्त हो गयी थी.
अब मोदी सरकार के प्रयास कितने सफल होंगे, यह इस पर निर्भर करता है कि सरकार नीतियों के स्तर पर और उन पर अमल के मसले पर कितनी तेजी से काम करती है. विदेशी उद्यमी (और देशी भी) श्रम कानूनों को बदलते देखना चाहेंगे. उनके सामने एक बड़ी समस्या जमीन की भी होगी. पिछली सरकार ने एक ऐसा भूमि अधिग्रहण कानून बनाया है, जिसके तहत अपने कारखानों की स्थापना के लिए उद्यमियों को जमीन पाना आसान नहीं होगा. तो क्या प्रधानमंत्री भूमि अधिग्रहण कानून को उद्यमियों के अनुकूल बदल पायेंगे? क्या केंद्र सरकार कारखाने लगाने के इच्छुक उद्योगपतियों को जमीन उपलब्ध करा पायेगी? हम देख चुके हैं कि किस प्रकार सिंगूर और नंदीग्राम में उद्योगों को जमीन दिलाने के चक्कर में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ही चली गयी.
यह सच है कि 1984 के बाद पहली बार किसी लोकसभा चुनाव में एक पार्टी की बहुमत वाली सरकार केंद्र में बनी है और इसके कारण नीतियों के स्तर पर स्थिरता की उम्मीद भी की जा सकती है. लेकिन नीतियों पर अमल नौकरशाही पर निर्भर करता है, जिसकी छवि अब भी अच्छी नहीं हुई है. भारत का रेड टेप दुनिया भर में कुख्यात है, पर प्रधानमंत्री दावा कर रहे हैं कि रेड टेप का स्थान रेड कार्पेट ले रहा है. यह संभव हो जाये, तो बहुत अच्छा, लेकिन क्या यह इतनी जल्द संभव हो पायेगा? जिस कानूनी सिस्टम के अंदर हम काम करते हैं, वह भी कम लचर नहीं है. ध्यान रहे कि हमारे देश की विलंबित न्यायिक प्रक्रिया भी हमारे देश में उद्यमशीलता को हतोत्साहित करती है.
समस्याओं को दूर करने और प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त और सरल बनाने के लिए भी मोदी सरकार सक्रिय है. कम-से-कम प्रधानमंत्री का उत्साह देख कर फिलहाल भरोसा होता है कि उद्यमशीलता के रास्ते में आनेवाली बाधाएं दूर हो सकेंगी और ‘मेक इन इंडिया’ के नारे को ‘गरीबी हटाओ’ के नारे जैसा हश्र प्राप्त होने से रोका जा सकेगा.
उपेंद्र प्रसाद
आर्थिक मामलों के जानकार
upd2001@gmail.com