एक शहीद की विधवा को उसका अधिकार मिलने में पचास साल लग जानेवाला समाचार अखबार की सुर्खी क्यों नहीं बन सकता? बहुत सारे जवाब हो सकते हैं इस सवाल के, लेकिन चिंतनीय विषय यह है कि ऐसी घटनाएं हमारी चेतना को झकझोरती क्यों नहीं?
गंभीर कैंसर से जूझ रही है 64 वर्षीय इंदिरा बाबाजी जाधव. जीवन और मरण की इस लड़ाई के साथ-साथ एक और लड़ाई भी उन्हें लड़नी पड़ रही है. यह लड़ाई अदालतों में लड़ी जा रही है, जिसका रिश्ता उनके दिवंगत पति की शहादत से है. इंदिरा जाधव के पति 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हो गये थे. भारतीय सेना में सिपाही थे. उनकी शहादत को सलाम करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने अपने हाथ से लिखा एक पत्र युवा इंदिरा को भिजवाया था, जिसमें उनके पति के सर्वोच्च बलिदान की प्रशंसा की गयी थी और कहा गया था कि कृतज्ञ राष्ट्र अपने उस बहादुर सिपाही को हमेशा याद रखेगा. सेना के ऊंचे अधिकारियों ने भी अपने उस जवान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उसकी बहादुरी की प्रशंसा की थी.
जब पति शहीद हुए तो इंदिरा गर्भवती थी. दुर्भाग्य से उन्होंने एक मृत शिशु को जन्म दिया. अब ससुराल में उनके लिए कोई जगह नहीं थी. छह वर्ष तक इंदिरा छोटे-मोटे काम करके अपना पेट पालती रहीं. 1971 में उन्हें किसी ने बताया कि सरकार शहीदों के परिवारों को सहायता देती है, वे प्रयास करें तो उन्हें खेती के लिए जमीन मिल सकती है. इंदिरा ने प्रार्थनापत्र दिया, जो स्वीकार भी हो गया. उन्हें खेती और रिहाइश के लिए जमीन दिये जाने के आदेश भी जारी हो गये, लेकिन तब से लेकर आज तक यानी 43 वर्ष बीत जाने पर भी शहीद सिपाही की विधवा को जमीन दिये जाने के आदेश पर अमल नहीं हो पाया है. तब से लेकर आज तक इंदिरा अदालतों के चक्कर काट रही हैं.
त्रसदी यह है कि सरकारी आदेश का ही नहीं, अदालती आदेश का भी पालन नहीं हो पाया. मुंबई उच्च न्यायालय ने कुछ अर्सा पहले राज्य सरकार को आदेश दिया था कि शहीद सिपाही की विधवा को दो माह में जमीन दे दी जाये. यही नहीं, अदालत ने अपना कर्तव्य पालन न करनेवाले अधिकारियों पर 75 हजार रुपये का जुर्माना भी किया था. आदेश स्पष्ट था कि विधवा को दस एकड़ कृषि और 300 वर्ग मीटर रिहाइशी जमीन दी जाये. रिहाइशी जमीन की राशि, वर्ष 1998 की दर पर, उस आर्थिक दंड में से काटी जाये, जो अधिकारियों को भरना था. आदेश का उद्देश्य यह था कि वे जमीन की नपाई के शुल्क के 12 हजार रुपये सरकारी खजाने में जमा करायें, तब अदालत के आदेश की पूर्ति की कार्रवाई हो पायेगी.
इंदिरा ने फिर अदालत की गुहार लगायी. तब जाकर सरकार की ओर से कहा गया कि नपाई शुल्क छूट दे दी गयी है. उम्मीद की जानी चाहिए कि इंदिरा जाधव की जिंदगी जीने की सुविधा जिंदगी की लड़ाई हारने से पहले मिल जायेगी.
उस दिन अखबार के भीतरी पन्ने पर यह समाचार पढ़ कर झटका सिर्फ इस बात का नहीं लगा कि एक शहीद सिपाही की विधवा को उसका अधिकार मिलने में लगभग आधी सदी लग गयी. जिस बात ने ज्यादा झिझोरा वह यह थ कि हम किने असंवेदनशील बन गये हैं. इंदिरा जाधव की त्रसदी का यह समाचार भी किसी अखबार के पहले पóो पर छपने लायक नहीं समझा गया, लेकिन क्यों? एक शहीद की विधवा को उसका अधिकार मिलने में पचास साल लग जानेवाला समाचार किसी अखबार की प्रमुख सुर्खी क्यों नहीं बन सकता? बहुत सारे जवाब हो सकते हैं इस सवाल के, लेकिन चिंतनीय विषय यह है कि ऐसी घटनाएं हमारी चेतना को झकझोरती क्यों नहीं? ऐसा लगता है कि हमारे समाज में असंवेदनशीलता लगातार पसरती जा रही है. कुल मिला कर हमारा समय उन मानवीय भावनाओं के क्षरण का समय है, जो एक व्यक्ति को मनुष्य बनाती हैं. संबंधों की तरलता, एक को दूसरे से जोड़नवाली आत्मीयता, परायी पीड़ा का एहसास करानेवाली करुणा की भावना, सहज मानवीय प्रवृत्तियों के प्रति जुड़ाव का एहसास.. ये सबकुछ कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं. त्रसदी उनका पीछे छूटते जाना नहीं है, बल्कि यह है कि हमें इसका एहसास क्यों नहीं होता!
इंदिरा जाधव आज 64 साल की हैं. जब इनके पति सीमा पर शहीद हुए, तो उनकी उम्र मात्र 25 साल थी. आज वे कैंसर की मरीज हैं. जिन अभावों और पीड़ा में उन्होंने अपनी जिंदगी जी होगी, उसके बारे में सोचने की जरूरत भी हमें महसूस नहीं होती. सवाल किसी एक सिपाही की विधवा का नहीं है, सवाल है मानवीय संवेदनाओं के लगातार सूखते जाने का. पत्थर बनते जा रहे हैं हम. इसीलिए, न हमें समाज में फैलती विषमता का दर्द छूता है और न ही उस भूख को हम समझ पाते हैं, जो रातों में सोने नहीं देती और दिन में काम करने लायक नहीं रहने देती. इंदिरा जाधव का यह प्रकरण कोई अकेला उदाहरण नहीं है. विकास की नयी-नयी अवधारणाओं के उदाहरणों के बीच मानवीय अवनति की पीड़ा को समझने की आवश्यकता भी निरंतर बढ़ती जा रही है.
विश्वनाथ सचदेव
वरिष्ठ पत्रकार
delhi@prabhatkhabar.in