आठ सांस्कृतिक विरासतों का महाकुंभ

विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण कर सूफी मार्ग ने जो उच्च नैतिक मूल्य के आदर्श रखे, उसे आज अपनाने की जरूरत है. आम आदमी शांतिपूर्वक रहना चाहता है, मगर राष्ट्रीय और अंतररराष्ट्रीय राजनीति तनाव पैदा करना चाहती है. नगर पहले भी थे-काशी, कांची, मथुरा, द्वारका आदि, मगर उनका सह-अस्तित्व गांवों के लोकजीवन के साथ था. नगर […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 27, 2014 12:30 AM

विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण कर सूफी मार्ग ने जो उच्च नैतिक मूल्य के आदर्श रखे, उसे आज अपनाने की जरूरत है. आम आदमी शांतिपूर्वक रहना चाहता है, मगर राष्ट्रीय और अंतररराष्ट्रीय राजनीति तनाव पैदा करना चाहती है.

नगर पहले भी थे-काशी, कांची, मथुरा, द्वारका आदि, मगर उनका सह-अस्तित्व गांवों के लोकजीवन के साथ था. नगर और गांव एक दूसरे के पूरक थे. मगर आज गांवों को मार कर महानगर पनप रहे हैं. भारत ही नहीं, सभी विकासशील दक्षेस देशों में विकास की दिशा पश्चिमी विकसित देशों द्वारा परिभाषित की जा रही है, जिसमें खेतों-खलिहानों का विनाश कर उनकी जगह दैत्याकार मॉल ले रहे हैं.

लोकसंस्कृति, लोकनृत्य, लोकगीत आदि ग्रामीण जीवन से विलुप्त होकर नगर के मंचों पर बाबुओं के मनो-विनोद के विषय हो गये हैं. अब हमारे गांवों में भी सावन में न कोई कजरी-झूमर गाता है, न फागुन में फाग और न चैत में चैती गीत सुनायी देते हैं. ये सभी फिल्मों और पेशेवर कलाकारों के हवाले कर दिये गये हैं, जो अपनी व्यावसायिकता के लिए इन्हें मनमाने ढंग से विद्रूप कर रहे हैं. लोकसंस्कृति के सबसे बड़े विशेषज्ञ बाबू लोग हो गये हैं, जो अंगरेजी में शोधपत्र लिख सकते हैं, विदेशों में जाकर भारतीय संस्कृति पर घंटों भाषण दे सकते हैं, लेकिन न ढोल पर थाप दे सकते हैं, न लोकनर्तकों के पांव की फटी बिवाई देख सकते हैं. भारत का बुद्धिजीवी मर कर लंदन-न्यूयॉर्क-बीजिंग में जन्म लेना चाहता है, भारत के गांवों में नहीं, जो कई सदियों से प्रतिभा-पलायन का दंश ङोल रहा है. पाश्चात्य सभ्यता न केवल भारत, बल्कि सभी दक्षिण एशियाई देशों में अपनी जड़ें जमा चुकी है. इसे केवल शिक्षा और संस्कार से दूर किया जा सकता है. अब समय की मांग है कि सभी दक्षिण एशियाई देश अपने बच्चों को पड़ोसी देशों की भाषा और संस्कृति से परिचय कराएं.

2011 में आगरा में 30 सितंबर से 2 अक्तूबर तक आयोजित चतुर्थ सार्क फोकलोर एवं हेरिटेज फेस्टिवल, जिसमें दक्षिण एशिया के आठ देशों के सौ से ज्यादा संस्कृतिकर्मी, सहित्यकार और कलाकार एकत्र हुए थे. सार्क देशों की सामूहिक साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था ‘फाउंडेशन ऑफ सार्क राइटर्स एंड लिटरेचर्स (फोसवाल) द्वारा आगरा के ग्रैंड होटल में आयोजित उस त्रिदिवसीय लोकसंस्कृति सम्मेलन में आठों देश के साहित्यकार जिस तरह से धधाकर एक दूसरे से मिले और मुक्त भाव से एक सांस्कृतिक छत के नीचे बैठ कर विचारों और चिंताओं का आदान-प्रदान किया, वह अद्भुत था. तीनों दिन विभिन्न विषयों पर जम कर चर्चा होती रही. हर शाम तीन बजे से छह बजे तक प्रतिनिधियों का काव्यपाठ और उसके बाद सात बजे से नौ बजे तक भिन्न-भिन्न विद्यालयों के परिसर में जाकर छात्र-छात्रओं के समक्ष सांस्कृतिक कार्यक्रमों की प्रस्तुति. आठ दक्षेस देशों की अलग-अलग भौगोलिक-राजनीतिक सीमाएं, अलग-अलग आठ भाषाएं, लेकिन मन-प्राण एक. विभिन्न देशों की लोकसंस्कृतियों और लोककलाओं की जब विशद चर्चा होने लगी, तब सभी देशों के प्रतिनिधियों को यही अनुभव हुआ, जैसे वे अपने ही पारंपरिक गांव से गुजर रहे हों.

पहले दिन समारोह में दक्षेस के सदस्य भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, भूटान, नेपाल, मालदीव और अफगानिस्तान के सम्मानित अतिथियों का स्वागत करते हुए फाउंडेशन की अध्यक्ष, सुप्रसिद्ध कथाकार श्रीमती अजीत कौर ने कहा कि आठों देशों की साझा संस्कृति है, जिसके मूलतत्व को पहचानने और उसे सुदृढ़ करने की जरूरत है. इसका उद्घाटन करते हुए श्रीलंका के उच्चायुक्त प्रसाद करियावासम ने भारत और श्रीलंका की समान संस्कृति की चर्चा करते हुए रामायण और बौद्ध काल से लेकर पिछली सदी के ‘रेडियो सिलोन’ के जमाने तक का जिक्र किया. लोक संस्कृति के विशेषज्ञ डॉ आशीष नंदी ने कहा कि वैज्ञानिक उपलब्धियों ने मानव को प्रकृति का अनादर करना सिखा दिया, जिसका कुप्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ते प्राकृतिक संकट में देखा जा सकता है. बंगाल के उप उच्चायुक्त जनाब महबूब हसन सालेह ने बांग्ला भाषा-संस्कृति को भारत और बांग्लादेश के बीच सेतु के रूप में देखा और रवींद्रनाथ टैगोर तथा काजी नजरुल इस्लाम की कविता से लोकजीवन को ओतप्रोत बताया. उन्होंने बांग्लादेश और पश्चिम बंगाल के लोकजीवन में बाउल समुदाय, लालन फकीर के प्रभाव के अलावा बिहुला, महुआ घटवारिन आदि लोककथाओं पर प्रकाश डाला. नेपाल के प्रो अभि सुबेदी ने बताया कि माओवादी भी आत्मनिरीक्षण के क्रम में अपने देश की लोकपरंपराओं को सीख रहे हैं. नेपाली फॉकलोर सोसाइटी ने 47 खंडों में नेपाल की लोकपरंपरा, लोककथा और लोकगीतों को संकलित किया है. भूटान के सांसद साहित्यकार सोनम किंगा ने कहा कि आज भी भूटान की साहित्यिक पहचान के लिए वाचिक साहित्य (लोजे) की महत्वपूर्ण भूमिका है.

पाकिस्तान के डॉ खालिद जावेद ने कहा कि विभिन्न संस्कृतियों का सम्मिश्रण कर सूफी मार्ग ने जो उच्च नैतिक मूल्य और उच्च धार्मिक सहिष्णुता के आदर्श रखे, उसे आज मन से अपनाने की जरूरत है. आम आदमी शांतिपूर्वक रहना चाहता है, मगर राष्ट्रीय और अंतररराष्ट्रीय राजनीति तनाव पैदा करना चाहती है. अफगानिस्तान की आरिफा अमरलूर ने कहा कि पश्तो साहित्य में भारत सर्वाधिक लोकप्रिय है. यहां की कहानियां, जीवन चरित पश्तो फॉकलोर के अभिन्न अंग हैं.

सायंकालीन कविगोष्ठी में सभी देशों के प्रतिभागी रचनाकारों ने काव्यपाठ किया. मुङो अतिविशिष्ट अतिथि के रूप में काव्यपाठ के लिए फाउंडेशन की ओर से आमंत्रित किया गया था. सभी प्रतिभागियों के विशेष आग्रह पर मुङो दोनों दिन काव्यपाठ करना पड़ा. मुङो इस बात की खुशी हुई कि बहुत से मेहमान मेरी कविता का ठीक-ठीक अर्थ नहीं जानते थे, फिर भी उन्होंने गीतों के शब्द-संगीत का भरपूर आनंद लिया. यहां तक कि बांग्लादेश और श्रीलंका के प्रतिनिधिमंडल ने मुङो अपने देश के कार्यक्रमों के लिए आमंत्रित भी कर दिया. प्रथम दिन पाकिस्तान की खूबसूरत कवयित्री आयशा खान के काव्य-संग्रह ‘बिल्डिंग ब्रिजेज’ का लोकार्पण हुआ, जिसकी एक प्रति आयशा ने बड़े भाव-भीने शब्दों में मुङो भेंट की.

सांस्कृतिक कार्यक्रमों में पाकिस्तान का मलंग दरवेश, नेपाल का मयूर नृत्य मंडली, श्रीलंका का कालुरच्छि मंडली और विद्यापति मंडली और बांग्लादेश का बाउल समुदाय दर्शकों पर स्थायी प्रभाव छोड़ गया. 30 सितंबर को जब सभी मिले थे, तब सभी एक-दूसरे से अपरिचित थे, मगर 3 अक्तूबर को जब एक-दूसरे से विदा हुए, तब सभी उदास थे. इस महाकुंभ ने सबको साझा संस्कृति से जोड़ कर एक बना दिया था- यत्र विश्वं भवत्येक नीडम्..

डॉ बुद्धिनाथ मिश्र

वरिष्ठ साहित्यकार

buddhinathji@gmail.com

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