।।ललित मानसिंह।।
पूर्व राजनयिक
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से लोगों को काफी उम्मीदें हैं. इसकी वजह भी है. मोदी ने आम चुनाव बदलाव के नारे पर लड़ा और उन्हें निर्णायक जनादेश भी हासिल हुआ. उनके लिए बदलाव का मतलब सिर्फ सत्ता का हस्तांतरण नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था का तेजी से विकास करना रहा है. आर्थिक तरक्की के लिए वे विदेश नीति को प्रमुख हथियार के तौर पर इस्तेमाल करने की रणनीति अपना रहे हैं.
किसी को उम्मीद नहीं थी कि वे प्रधानमंत्री बनते ही विदेश नीति के मोरचे पर इतनी गंभीरता से कोशिश करेंगे. गुजरात का मुख्यमंत्री रहते उन्हें विदेश नीति के मामले में काफी कम अनुभव होने के कारण आशंकाएं जतायी गयी थीं. लेकिन केंद्र की सत्ता पर काबिज होते ही उन्होंने विदेश नीति के मामले में कई अहम फैसले लिये और अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क देशों के राष्ट्राध्यक्षों को आमंत्रित कर अपनी दूरदर्शिता का परिचय दिया. अब उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती है, पिछले दो सालों में भारत-अमेरिका के पटरी से उतरे संबंधों को ठीक करना.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के वर्ष 2000 में भारत दौरे के बाद दोनों देशों के संबंधों को नया आयाम मिला था. मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान 2005 में इसे मजबूती देने की कोशिश की गयी. अमेरिका और भारत के बीच हुए परमाणु करार से इसमें बेहतरी आयी. लेकिन, वर्ष 2012 के बजट में रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स लगाने और ड्रग कंट्रोल नीति के कारण अमेरिकी उद्योगपतियों का भरोसा भारत के प्रति कम हुआ. आर्थिक विकास को बढ़ाने के लिए सुधारों के उपाय नहीं अपनाये गये. न्यूक्लियर लायबिलिटी कानून में आनाकानी के कारण भी रिश्तों में खटास आयी. अमेरिका के लोगों का मानना रहा है कि भारत को इस मसले पर अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति दिलाने में उसकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है.
अमेरिकी प्रशासन के कुछ फैसले भारत-अमेरिका के रिश्तों को खराब करने में सहायक रहे हैं. भारतीय पेशेवर लोगों के अमेरिका में काम करने को लेकर वीसा नीति और भारतीय राजनयिक देवयानी के साथ हुए व्यवहार ने रिश्तों को काफी नुकसान पहुंचाया है. प्रधानमंत्री मोदी को सबसे पहले इस अविश्वास को दूर करने की पहल करनी होगी. प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान अमेरिका जलवायु परिवर्तन का मुद्दा प्रमुखता से उठायेगा. भारत भी इसके पक्ष में है. मोदी के अमेरिका दौरे के दौरान तीन महत्वपूर्ण द्विपक्षीय मुद्दों पर बात होगी. इनमें फार्मा, टैक्स और अमेरिकी निवेश को बढ़ावा देना होगा. दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा होगा रक्षा क्षेत्र में सहयोग. भारत अपनी सुरक्षा नीति को मजबूत बनाना चाहता है. इस क्षेत्र में अमेरिकी सहयोग हासिल करने के लिए ही रक्षा क्षेत्र में 49 फीसदी विदेशी निवेश को मंजूरी दी गयी है. अमेरिका भी चाहता है कि भारत के साथ सामरिक सहयोग बढ़े. यही वजह है कि प्रधानमंत्री मोदी के दौरे से पहले अमेरिकी रक्षा मंत्री हेगल ने भारत का दौरा किया था. भारत चाहेगा कि दोनों देश मिल कर नयी खोज करें. साथ ही, अमेरिका 34 संवेदनशील रक्षा तकनीकों का हस्तांतरण भारत को करे.
तीसरा प्रमुख क्षेत्र होगा ऊर्जा. भारत चाहेगा कि अमेरिका शेल गैस भारत को दे. यह गैस काफी सस्ती होती है. न्यूक्यिर, सोलर और ग्रीन ऊर्जा के क्षेत्र में भी समझौते होने की पूरी संभावना है. इसके अलावा, भारत अफगानिस्तान का मुद्दा भी उठायेगा, क्योंकि 2015 में वहां से अमेरिकी सैनिकों की वापसी होगी. यह भारत की सुरक्षा के लिए सबसे अहम मसला है. इसके अलावा इराक, इसलामिक स्टेट जैसे मुद्दे भी प्रमुखता से उठेंगे. हाल में चीनी राष्ट्रपति के दौरे के दौरान जिस प्रकार सीमा पर विवाद खड़ा हुआ, उसे देखकर कहा जा सकता है कि चीन के मसले पर विस्तार से बात होगी. चीन भारत और अमेरिका के लिए आर्थिक और सामरिक चुनौती पेश कर रहा है. पूर्वी एशिया में चीन का बढ़ता दखल दोनों देशों के लिए चिंता का विषय है.
इस दौरे में अमेरिका विकसित देशों की ओर से ट्रेड फेसिलिटेशन समझौते का मुद्दा उठायेगा, जबकि भारत विकासशील देशों की ओर से खाद्य सुरक्षा की चिंताओं से अमेरिका को अवगत करायेगा. भारत चाहेगा कि संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी सदस्य के तौर पर वह भारत का समर्थन करे, क्योंकि बिना अमेरिकी सहयोग के भारत स्थायी सदस्य नहीं बन सकता है. अमेरिकी निवेश को आकर्षित करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी अमेरिका में रह रहे भारतीयों को लुभाने की कोशिश करेंगे और साथ ही अमेरिका के उद्योगपतियों से सीधा संवाद बनायेंगे. काफी समय बाद दोनों देशों के बीच रिश्तों को मजबूती देने की कोशिश दोनों ओर से की जा रही है.
प्रधानमंत्री का स्पष्ट मानना है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए विकसित देशों से संबंध बेहतर करना ही होगा. इसी को देखते हुए साल के आखिर तक उनकी मुलाकात न सिर्फ पड़ोसी देशों के प्रमुखों के साथ, बल्कि पांच प्रमुख क्षेत्रीय संगठनों- ब्रिक्स, एशियन, यूरोपियन स्पेस एजेंसी, जी-20 और सार्क देशों के सम्मेलनों में प्रमुख नेताओं से भी होने की उम्मीद है.
इससे पहले, जापान और चीन समेत कई राष्ट्राध्यक्षों से उनकी मुलाकात हो चुकी है. इन नेताओं के साथ बैठकों में उन्होंने अपनी मौजूदगी दमदार तरीके से पेश की.
भूटान, नेपाल और जापान के दौरे के बाद प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका दौरे पर सबकी निगाहें टिकी है. भूटान और नेपाल के साथ संबंधों को मजबूती प्रदान कर प्रधानमंत्री मोदी पड़ोसी राष्ट्रों के साथ भारत के रिश्तों को मजबूत करने की प्राथमिकता जाहिर कर चुके हैं. अब वे काफी इंतजार के बाद अमेरिका के दौरे पर गये हैं. इस दौरान वे संयुक्त राष्ट्र की आम सभा को भी संबोधित करेंगे और भारत के नजरिये को विश्व के सामने रखने की कोशिश करेंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने कुर्सी संभालते ही वैश्विक मोरचे पर तेजी से काम करने की कोशिश की है. उनकी कोशिश यह है कि भारत आर्थिक तौर पर सशक्त बने. इसके लिए विभिन्न देशों से संबंध बेहतर होना जरूरी है. इसी कड़ी में उनकी अमेरिका यात्रा काफी मायने रखती है. प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका दौरे को लेकर काफी उत्साह का माहौल है. ऐसी उम्मीद है कि भारत और अमेरिका के बीच 10 वर्षीय रक्षा सहयोग समझौते को नयी दिशा मिलेगी. यह सहयोग समझौता अगले साल खत्म हो रहा है. निश्चित तौर पर भारत चाहेगा कि अमेरिका किसी प्रकार पाकिस्तान को सैन्य मदद नहीं पहुंचाये. दोनों देश आतंकवाद से निबटने के लिए खुफिया जानकारी के आदान-प्रदान को लेकर समझौता कर सकते हैं. मौजूदा वैश्विक माहौल में यह अमेरिका के हित में है कि वह भारत से आर्थिक और सामरिक संबंधों को मजबूत करने की दिशा में कदम उठाये.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)