नयी दिल्ली में इंडिया गेट के पास से दस दिन पूर्व अपहृत तीन वर्षीया बच्ची के सकुशल मिल जाने से जहां उसके परिजनों को सुकून हासिल हुआ है, वहीं इस प्रकरण में सोशल मीडिया की सकारात्मक भूमिका भी रेखांकित हुई है. फेसबुक, ट्विटर और व्हाट्स ऐप जैसे सोशल मीडिया नेटवर्क पर इस बच्ची की तस्वीरें और विवरण बडे़ पैमाने पर साझा किये गये थे.
पुलिस का मानना है कि इसी कारण अपहरणकर्ता दबाव में आ गये थे और उन्हें बच्ची को छोड़ना पड़ा. दरअसल, ब्रॉडबैंड और मोबाइल फोन के जरिये इंटरनेट के व्यापक प्रसार ने आपदाओं, दुर्घटनाओं और अपराधिक घटनाओं की स्थिति में आम जन की भागीदारी बढ़ा दी है. मीडिया और सार्वजनिक बहसों में आम तौर पर सोशल मीडिया के नकारात्मक और नुकसानदेह उपयोगों की ही चर्चा होती है. लेकिन, इस मामले ने फिर इस बात के महत्व को स्थापित किया है कि सरकार और समाज द्वारा नयी संचार तकनीकों के उपयोग से अपराधों से निपटने में मदद मिल सकती है. हमारे देश में बच्चों के अपहरण की घटनाएं लगातार बढ़ी हैं.
संसद के पिछले सत्र में सरकार द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, देश में हर साल एक लाख से अधिक बच्चे गायब हो जाते हैं. जबकि पाकिस्तान में यह संख्या तीन हजार और चीन में दस हजार ही है. 2011 से जून, 2014 के बीच भारत में 3.25 लाख से अधिक बच्चे गायब हुए, जिनमें से 45 फीसदी का कुछ पता नहीं चल सका है. गायब हुए बच्चों में अधिकतर बच्चियां हैं.
ज्यादातर अपहृत बच्चियां वेश्यावृत्ति में धकेल दी जाती हैं. एक रिपोर्ट के अनुसार, बिहार में 35 से 40 हजार बच्चे लापता हैं, जबकि झारखंड सरकार राज्य के लापता बच्चों के बारे में राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो को 2009 के बाद से कोई सूचना नहीं दे रही है. हाई-फाई सुरक्षा इंतजामों के बावजूद देश की राजधानी दिल्ली में भी हर दिन औसतन 18 बच्चे लापता हो जाते हैं, जिनमें चार का कोई पता नहीं चल पाता है. ऐसे में आधुनिक तकनीक और सोशल मीडिया नेटवर्क के जरिये सूचनाओं का अधिक-से-अधिक प्रसार एक कारगर तरीका हो सकता है, जिससे अपराधी भी दबाव में आयेंगे और प्रशासनिक-तंत्र भी अधिक सक्रिय होगा. उम्मीद है, हम इस दिशा में आगे बढ़ेंगे.