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चीन, प्रेरणा भी! भय भी!

हरिवंश चीन, आज दुनिया के शीर्ष अध्येताओं, शासक पुरुषों और विश्लेषकों के लिए पहेली है. महज कुछ दशकों में एक देश अपनी प्रगति, ताकत और उभार से कैसे दुनिया की नयी महाशक्ति बन गया? क्या कभी भारत, चीन के मुकाबले खड़ा हो पायेगा? कौन-सी चीजें, चीन व भारत को अलग करती हैं? हर भारतीय के […]

हरिवंश

चीन, आज दुनिया के शीर्ष अध्येताओं, शासक पुरुषों और विश्लेषकों के लिए पहेली है. महज कुछ दशकों में एक देश अपनी प्रगति, ताकत और उभार से कैसे दुनिया की नयी महाशक्ति बन गया? क्या कभी भारत, चीन के मुकाबले खड़ा हो पायेगा? कौन-सी चीजें, चीन व भारत को अलग करती हैं? हर भारतीय के मन में आज यह जरूरी सवाल है? इसी पृष्ठभूमि में इस प्रसंग को समझने की कोशिश.

इस अक्तूबर में चीन यात्रा को एक वर्ष होंगे. पिछले वर्ष अक्तूबर में ही (23-24 अक्तूबर, 2013) देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह के साथ बीजिंग (चीन) जाना हुआ. चीन की यह दूसरी यात्रा थी, पर बीजिंग की पहली. हम मीडिया के लोग भव्य हिल्टन होटल में ठहरे थे. वहीं बीजिंग में रहनेवाले भारतीयों का एक समूह मिलने आया. कई युवा लड़के. बिहार-झारखंड से भी. इनमें से एक-दो अब चीन के नागरिक हैं. इसी समूह में मिला, युवा फरजंद (कुछेक कारणों से नाम बदल दिया है). धनबाद (झारखंड) का रहनेवाला. दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पढ़ा-लिखा. अब वह चीन का नागरिक है. पिछले 14 साल से फरजंद, बीजिंग में है.

महज तीन दशकों में, दुनिया की नयी महाशक्ति बन जानेवाले चीन ने कैसे करवट ली? मानव इतिहास में या आर्थिक विकास के संसार में, न भूतो न भविष्यति वाली कहानी. चीन के इस आर्थिक चमत्कार से दुनिया के अर्थशास्त्री और पंडित स्तब्ध हैं. 23 अक्तूबर 2013 का चीनी अखबार (अंग्रेजी भाषा का) ग्लोबल टाइम्स मेरे हाथ में था. पहले पेज की लीड खबर थी, चाइना रिसीव्स थ्री पीएमस (चीन में आज तीन प्रधानमंत्री आये). ये प्रधानमंत्री थे, रूस के प्रधानमंत्री दिमित्रि मेदवेदेव, भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह और मंगोलिया के प्रधानमंत्री नोटो अल्टांगखायु. खबर का संदेश साफ था. चीन की ताकत यह है कि एक ही दिन तीन-तीन देशों के प्रधानमंत्री, चीन के राष्ट्राध्यक्ष (राष्ट्रपति) से मिलने पहुंचे.

भारत को तो मुकाबले में ही नहीं गिनता चीन!

चीन को भारत जितनी आशंका से देखता है, उतनी ही हसरत से भी देखता है. भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी चीन के विकास से बहुत प्रभावित नजर आते हैं और बार-बार ‘स्किल, स्पीड एंड स्केल’ (हुनर, रफ्तार और पैमाना) की बात करते हैं. इस मंत्र के पीछे छिपा संदेश बहुत साफ है कि हमें चीन की तरह बहुत कम समय में पश्चिमी दुनिया जैसी तरक्की कर लेनी है. लेकिन क्या यह इतना आसान है? क्या हमारा मिजाज, हमारा मानस, हमारी इच्छाशक्ति इसके अनुरूप है? भ्रष्टाचार कम या ज्यादा चीन में भी है, पर भारत जैसी अक्षमता, बातें बनाने की आदत, संकल्पहीनता वहां नहीं है. चीनी जो ठान लेते हैं, उसकी विस्तृत योजना बनाते हैं और उसे समय पर पूरा करके दिखाते हैं. हमारा रवैया ‘चलता है’ वाला है. आज चीन सिर्फ अमेरिका को अपना प्रतियोगी मानता है. वह भारत से अपनी तुलना तक किये जाने को पसंद नहीं करता.

परियों की कथा जैसे आश्चर्य और स्तब्ध कर देनेवाला यह मुल्क अंदर से कैसा है? यह हमने सुना एक भारतीय से. एक झारखंडी से और एक बिहारी से. फरजंद से पूछा, इस मुल्क में क्यों बस गये? क्यों नागरिकता ली? भाषा, वेशभूषा, संस्कृति.. सबकुछ अजनबी? पराया भी? फरजंद का जवाब था, यहां क्वालिटी लाइफ (बेहतर जीवन) है. पूछा, कैसे? उसने कहा, यहां (चीन में) अनुशासन है. स्थिरता है. विकास की योजनाएं बनती हैं, तो उनका सख्ती से पालन होता है. तय समय के अंदर सरकारी काम होते हैं (डिलिवरी-इन-टाइम) और क्वालिटी गारंटीड (काम का स्तर श्रेष्ठ) है. फिर कहा कि यहां हर तरह की आजादी है. किसी अपराधी का डर-भय नहीं. चंदाखोरी या फिरौती नहीं है. सब आजादी है, घटिया राजनीति छोड़ कर.

फरजंद कहते हैं, काम के बाद हमें अपनी धार्मिक आजादी भी है. नमाज पढ़ने से लेकर हर जायज काम करने की छूट. चेहरे पर खुशी का भाव लिये कहते हैं, मुङो ग्रीन कार्ड (चीन नागरिकता का प्रमाण) मिला, बिना एक पैसे घूस या रिश्वत दिये. बिना किसी पहुंच, पैरवी या याचना के. फिर कहते हैं, भारत में पला-बढ़ा हूं. अब भी वहां आना-जाना है. पर वहां तो आम आदमी ही लाचार है. क्या एक सामान्य भारतीय (चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, क्षेत्र या संप्रदाय का हो), भयमुक्त है? पुलिस-प्रशासन में उसका काम बिना घूस, तय समय के अंदर होता है? भारत में एक-एक सड़क बार-बार क्यों बनती है? फरजंद एक नजीर देते हुए कहते हैं कि मैं जिस संस्था में पढ़ने आया (जहां अब वह काम भी करते हैं), वहां के वाइस चासंलर साइकिल से आते थे. हालांकि चीनी सरकार ने उन्हें कार से आने की सुविधा दे रखी थी. वह चीन के प्रख्यात व्यक्ति हैं, फिर भी साइकिल से चलते हैं.

क्योंकि चीनी यह मानते हैं कि सरकारी खर्च कम से कम हो. वह यह भी बताते हैं कि चीन स्थित भारतीय दूतावास के सामान्य लोग कैसे मामूली चीज के लिए भी भव्य कारों का इस्तेमाल करते हैं. यह सब तो सरकारी कोष से हो रहा है न! कहां है, भारतीयों में भारत के प्रति दर्द? वहां तो सरकारी संपत्ति को अपना मानना, बिना टिकट यात्रा करना, सरकारी संपत्ति को बरबाद करना, आग लगाना.. ही भारतीयों और खासतौर से हिंदी इलाके का स्वभाव है. फरजंद कहते हैं कि भारत के लोगों का शगल है, सिर्फ और सिर्फ समस्या खड़ी करना. हंगामा करना. पर इसका हल कैसे और कौन निकाले, क्या इस पर कोशिश होती है? क्या यही आजादी का अर्थ है? सिर्फ और सिर्फ नकारात्मक सोच और काम.

फरजंद में पैशन (आवेग या आवेश) है. उनकी बातों में अपनी मातृभूमि के प्रति लगाव दिखता है. एक बेचैनी भी. फरजंद के बारे में और जानना चाहता हूं. वह बताते हैं कि उनकी पत्नी चीनी है. बच्चे हैं. ग्रीन कार्ड के बारे में जानने पर वह बताते हैं कि ग्रीन कार्ड पाने के पहले मुङो लगभग सौ दस्तावेज देने पड़े. अत्यंत कठिन चीज. इसे मिलने में लगभग ढाई से तीन वर्ष समय लगता है. आवदेन किया, तो मुङो इंतजार करने को कहा गया. आवेदन के एक वर्ष बाद सूचना मिली कि मेरा ग्रीन कार्ड तैयार है. एक बार भी मुझसे पूछताछ या इंक्वायरी नहीं हुई. हां, अपने स्रोतों से प्रशासन ने हर तरह की जानकारी पता कर ली होगी, तभी वे ग्रीन कार्ड देते हैं. फिर बताते हैं कि चीन जैसे मुल्क में, नागरिकता पाने के लिए मुङो कहीं दौड़ना नहीं पड़ा.

न ही घूस देनी पड़ी. लेकिन भारत में एक ड्राइविंग लाइसेंस बनवाना हो, राशन कार्ड बनवाना हो, जन्म या मृत्यु का प्रमाणपत्र बनवाना हो या इस तरह का कोई भी बुनियादी काम, जिसका सीधे संबंध गरीबों से है, क्या वे आसानी से होते हैं? फिर हम किस स्वतंत्रता की बात करते हैं? क्या एक गरीब या सामान्य भारतीय बच्चे का अपने आप स्कूल में एडमिशन होता है? वह कहते हैं, भारत सरकार ने एक पीआइओ कार्ड (पीपुल्स आफ इंडियन ओरिजिन) की शुरुआत की है. यह कार्ड अभी तक हमलोगों को नहीं मिला है. पिछले 14 साल से हम यहां हैं, लेकिन किसी ने आज तक, किसी तरह से हमें परेशान नहीं किया है. यहां हमारा जीवन शांत और सुखी है. भारत की तरह धर्म या जाति का फर्क यहां नहीं है. भारत में देखिए, अल्पसंख्यकों पर राजनीति होती है. वहां अल्पसंख्यक वोट बैंक हैं. विरोधी, उन्हें सांप्रदायिक कहते हैं. अल्पसंख्यक नेता भी इसी मुद्दे पर अपनी राजनीति करते हैं. वहां कोई पक्ष या राजनीतिक दल हमें सामान्य नागरिक नहीं रहने देना चाहता.

फरजंद कहते हैं, चीन में स्वास्थ्य खर्चे जरूर महंगे हैं, लेकिन भारत से बेहतर हैं. भारत का हवाला देते हुए बताते हैं कि उनके पिता, पहले बिहार (अब झारखंड) के एक सरकारी कार्यालय में मुलाजिम थे. गंभीर रूप से अस्वस्थ हुए. कानूनन उनके कार्यालय को उनके मेडिकल का खर्च वहन करना था. पर लंबी प्रक्रिया के बाद, लंबी परेशानी और घूस के बाद उन्हें कुछ सुविधाएं मिल पायीं. पर चीन में यह बहुत आसान है. आप यहां पासपोर्ट पा चुके हैं, तो उसे लेकर जायें. तुरंत आपका बैंक खाता खुल जायेगा. एटीएम कार्ड मिलेगा. इस एटीएम से सिर्फ चीनी मुद्रा ही नहीं, बल्कि आपको जो भी विदेशी मुद्रा चाहिए, पांच मिनट के अंदर आपके पास उपलब्ध हो जायेगी. एक ही खाते से सभी तरह की मुद्राएं मिल जाती हैं. दूसरी तरफ आपको अगर भारत से कहीं विदेश जाना है, विदेशी मुद्राएं लेनी हैं, तो अब भी वहां इतनी आसान सुविधाएं नहीं हैं. उदारीकरण के पहले तो यह दु:स्वप्न था.

चीन में रेलवे के बारे में फरजंद बताते हैं. आप कल्पना नहीं कर सकते कि यहां रेल चलने में एक मिनट का फर्क नहीं होता. तय समय पर तय जगह पहुंचती है, यहां की रेल. यहां ऐसी व्यवस्था है कि बिना रेल टिकट आप प्लेटफार्म पर नहीं पहुंच सकते. फिर भारत को याद करते हैं कि किसी स्टेशन पर चेकिंग हो, तो बड़ी संख्या में बेटिकट पकड़े जाते हैं. पर चीन में आप रेलवे प्लेटफार्म पर तभी पहुंच सकते हैं, जब आपके पास टिकट है. चीन में एक टिकट पर एक प्लेटफार्म टिकट शुरू में ही मिल जाता है. चाहे उस टिकट पर चार-छह लोग जा रहे हों, पर विदा करने के लिए एक ही आदमी को इजाजत है. इससे प्लेटफार्म पर भीड़ नहीं होती. घुसने के समय ही प्लेटफार्म टिकट की चेकिंग होती है.

एक टिकट चेकर होता है और लंबी लाइन में खड़े होकर लोग टिकट चेक कराते हैं. रेलवे प्लेटफार्म पर हर जगह सुरक्षा का पुख्ता इंतजाम है. बड़ी-बड़ी एक्सरे मशीने हैं. पहले चेकिंग, फिर इंट्री. इसके बाद ट्रेन में डिब्बे में घुसते ही आप लाइन में खड़े हो जायें. वहां पर एक ही टीसी होगा, जो आपके साथ यात्र में होगा. यानी न्यूनतम रेल कर्मचारी और श्रेष्ठ रेल सुविधाएं. फरजंद बताते हैं कि चीन के रेलवे स्टेशन एयरपोर्ट जैसे हैं. साफ-सुथरे. कहीं एक तिनका या गंदगी नहीं. शोर नहीं. अब तो अधिक शहर बुलेट ट्रेन से जुड़े गये हैं. फिर वह पुरानी बातों को याद करते हुए कहते हैं कि जब भारत आजाद हुआ था, तो भारत-चीन लगभग एक ही हाल में थे. कई चीजों में चीन, भारत से पीछे था. रेलवे में भी. लेकिन अब? वह बताना नहीं भूलते कि चीन में क्वालिटी ऑफ लाइफ बेहतर है. कहते हैं, भारत में आजादी तो है. पर लड़कियों की क्या स्थिति है? बड़े, बूढ़े, बच्चे या महिलाओं के लिए कोई विशेष सुविधा है वहां?

फरजंद को बचपन में गाये गीत अक्सर याद आते हैं, सारे जहां से अच्छा, हिंदोस्तां हमारा.. पुरानी बातों को याद करते हुए कहते हैं कि बचपन में इस गीत को बड़े जोश में हम गाते थे. पर जब दुनिया या चीन की व्यवस्था देखी, तब लगा कि हम भारतीय हिपोक्रेट हैं. ढकोसला करते हैं. हम भारतीयों को सिर्फ समस्या पैदा करना आता है. अल्पसंख्यकों के लिए तो वहां और भी मुसीबतें हैं. वैसे हर आम भारतीय मुसीबतों में ही जीता, ङोलता और कराहता है. आज हर चीनी के अंदर एक गौरव बोध और आकांक्षा है कि हमें दुनिया में सबसे बेहतर करना है. इंडिया से अच्छा करना है. चीन मानता है कि भारत हमारा मार्केट (बाजार) है. चीन में अपराध या आतंकवाद या सांप्रदायिकता का भय नहीं है. आम लोग खौफ में नहीं जीते. मर्डर या क्राइम बहुत कम है. इबादत की छूट है. यह निजी मामला है, चीन इसमें दखल नहीं देता.

लेकिन अपने निजी मुद्दे के लिए आप सरकार या व्यवस्था को बंधक नहीं बना सकते. हम भारतीय किस आजादी या डेमोक्रेसी की बात करते हैं? फिर वह मुझसे जानना चाहते हैं कि आज दिल्ली में कोई लड़की अकेले रात को दो बजे घूम सकती है? फरजंद कहते हैं कि आप यहां जिस होटल (होटल हिल्टन) में ठहरे हैं, जब मैं बीजिंग आया था, तो यहां सब्जी मार्केट था. भीड़भाड़ व गंदी जगह. बहुत कम समय में यह इलाका दुनिया के सर्वश्रेष्ठ, सुंदर इलाकों में से हो गया है. चीन, दुनिया के हर क्षेत्र में आज अपनी सरकार या अपने नेताओं की वजह से आगे है. आप बताइए कि भारत और चीन की रेल में कोई बराबरी है? एयरपोर्ट में कोई बराबरी है? सड़कों में बराबरी है? चीन के शिक्षण संस्थाओं की आज दुनिया में गिनती होती है.

मेरे पिता, 40 वर्ष तक एक सरकारी विभाग में काम करते रहे. वह हिंदुस्तानी हैं, लेकिन उनके पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है. आज वह बीमार हैं. उन पर प्रतिमाह 12-15 हजार का खर्च है. लेकिन उन्हें कहीं से कोई मदद नहीं है. यहां चीन में हमारे पास हेल्थ कार्ड है. एक विदेशी को यह कार्ड मिला है. हमारे बच्चों का सौ युआन में हेल्थ कार्ड बन गया. बच्चे बड़े हुए, तो मुङो उनके स्कूल के एडमिशन को लेकर कहीं दौड़ना नहीं पड़ा. सिर्फ अपने इलाके के स्कूल में जाकर एक इंटरव्यू देना पड़ा. सामान्य प्रक्रिया से एडमिशन हो गया. मैं जिस इलाके में रहता हूं, उसमें रहनेवाले सभी लोगों के बच्चे एक ही स्कूल में पढ़ते हैं. यहां भारत जैसी स्थिति नहीं है कि जिसकी जैसी हैसियत, उसके बच्चे की वैसी पढ़ाई. यहां हम सपरिवार यात्र करते हैं.

दूर-दूर के क्षेत्रों में. तिब्बत की ऊंची चोटियों तक रेल यात्र चीन में ही मुमकिन है. पर हमें कहीं बम विस्फोट का डर नहीं होता. भारत में आप कहीं भी, किसी ट्रेन में यात्र कीजिए, तो डर लगता है कि पता नहीं कब कहां विस्फोट हो जायेगा? यहां के युवा खुश हैं. यहां युवकों में फ्रस्ट्रेशन (निराशा) नहीं है. मैंने भारत में देखा है कि हमारे यूथ आर्गेनाइजेशन का मुखिया 60 वर्ष की उम्र का था. वह कैसे यंग इंडिया की बात कर सकता है? चीन में कोई युद्ध की बात नहीं करता. यह कौम अतीत में नहीं जीती है. इतिहास की बात नहीं पलटती. चीनी मानते हैं कि उसे जापान से सबसे अधिक दर्द, जख्म और घाव मिले हैं. बात-बात में हर चीनी आपको यह बतायेगा. जापान के प्रति नफरत वह जीता है. पर यह बात सिर्फ अतीत तक सीमित है. जापान से हर सहयोग लेकर चीन ने अपनी विकास यात्र शुरू की. यह है, चीन का मानस.

सीधे स्वर में, एक लय में यह सब सुनाते हुए फरजंद ने एक प्रतिप्रश्न किया कि फिर मैं क्यों न रहूं चीन में? सवाल में ही जवाब और जवाब में सवाल. यह सही है कि फरजंद के कुछ सवालों के जवाब हमारे पास नहीं थे. न हम बहस में उतरना चाहते थे. हमारी दिलचस्पी तो चीन के उस समाज को जानने की थी, जिसने दुनिया को स्तब्ध कर दिया है. वह भी एक बिहारी और झारखंडी चीनी की जुबान से. जो सपाट था. व्यवाहारिक था. जहां न दर्शन था. न वाद-विवाद और न बौद्धिक विमर्श. एक साफ सधा कॉमन मैन का अनुभव.

फरजंद बताते हैं कि फिलहाल चीन के शहरों में दो बच्चे पैदा करने की अनुमति है और गांवों में एक. यह एक सख्त कानून है. चीन ने जनसंख्या विस्फोट की मुसीबतों से न सिर्फ चीनियों को अवगत कराया है, बल्कि दूरगामी नीति भी तय की है. बच्चे अगर संख्या से अधिक हो गये, तो कानूनी कार्रवाई होती है. उनका रजिस्ट्रेशन नहीं होगा.

न वे स्कूल जा सकते हैं, न नौकरी पा सकते हैं, न भ्रमण कर सकते हैं. चीन का उद्देश्य साफ है कि उतने ही नागरिक पैदा करो, जितने लोगों को अच्छा और बेहतर जीवन मिल सके. चीन में एक दस्तावेज मिलता है, जिसे हू-खाओ कहते हैं. जिस मोहल्ले में आप रहते हैं, यह दस्तावेज वहां होने का प्रमाणपत्र है. हर स्तर पर इसकी मानिटरिंग होती है. यही आपका चीनी होने का आइ-कार्ड है. हू-खाओ दस्तावेज से बच्चों के एडमिशन, नौकरी करने या कहीं आने-जाने वगैरह में मदद मिलती है. चीन में ऐसा नहीं है कि जब आपका मन करे, कहीं से कहीं चले जायें. फरजंद के साथ ही मिलते हैं, पटना के राकेश (नाम बदला हुआ). वह कहते हैं कि वह बिहार के गांव से हैं. संयुक्त परिवार से हैं. फिर बताते हैं कि यहां सरकार, अपने नागरिकों का रिकार्ड रखती है. आप ऐसा नहीं कर सकते कि जब आपका मन चाहा, आपने अपने बच्चे का दूसरे स्कूल में एडमिशन करा दिया या अगर आपके पास बहुत दौलत है, तो आप किसी पॉश एरिया में कहीं घर ले लिया. राकेश चीन के सरकारी स्कूलों में मिलने वाली शिक्षा की तारीफ करते हुए कहते हैं कि यहां के सरकारी स्कूलों की क्वालिटी उम्दा है.

एक बिहारी की बात सुन रहा था, जो जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में पढ़ने के बाद चीन आये, आगे की पढ़ाई के लिए. पर बाद में यहीं व्यवसाय में लग गये. वह बीजिंग के एक रेस्त्रं में काम करते हैं. कुछ ही दिनों पहले भारत से लौटे हैं और प्याज की महंगाई की चर्चा करते हैं. कहते हैं, भारत में सौ रुपये किलोग्राम प्याज की चर्चा हमने सुनी. खबर पढ़ी. लेकिन चीन में ऐसा नहीं होता. चीन में एक ही भाव आपको मिलेंगे. वह बताते हैं, भारत में लगातार छुट्टियां हैं.

उत्सव, आयोजन और हर नेता, जो दिवंगत हो गये हैं, उनके नाम पर अवकाश देना, हमारी राष्ट्रीय परंपरा है. पर चीन में दो ही बड़े उत्सव होते हैं. पहला उत्सव एक अक्तूबर को होता है. यह राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस अवसर पर लगभग हफ्ते दिन की छुट्टी रहती है. फिर वसंत का त्योहार है, जिसे स्प्रिंग फेस्टिवल कहते हैं. इसमें भी लगभग एक सप्ताह की छुट्टी होती है. स्प्रिंग फेस्टिवल का आशय भारत के संदर्भ में बहुत प्रासंगिक है. स्प्रिंग फेस्टिवल यानी फैमिली रियूनियन. परिवारों का मिलन. यहां के लोग पूर्वज दिवस मनाते हैं. अपने पूर्वज लोगों के स्मारक या जहां वो दफन हैं, वहां दीपक जला कर उनको याद करते हैं या अपने जीवित मां-बाप के पास जाकर उनसे मिलते हैं. आज चीन बिल्कुल आधुनिक बन गया है. फैशन में या अन्य मंहगी चीजों में. अत्यंत वैभवशाली और समृद्ध जीवनशैली के बीच भी चीन की जड़ें अपने इतिहास-अतीत से मजबूती से बंधी हैं.

यहां शादी के पहले घर लेना कानूनन जरूरी है. चीन ने जब यह पाया कि चीन के बुजुर्गो के प्रति युवापीढ़ी का भावनात्मक लगाव कमजोर पड़ रहा है या बूढ़े उपेक्षित हो रहे हैं, तो चीन ने नियम बनाया कि दो माह में एक बार हर युवा को अपने मां-बाप को देखना जरूरी है. चीन में माना जाता है कि शंघाई शहर के चीनी, बेस्ट हस्बैंड यानी श्रेष्ठ पति होते हैं. वे घर का सब काम संभालते हैं. बाजार का काम भी करते हैं. सफाई में भी रुचि रखते हैं. जब उनकी पत्नियां बाहर जाती हैं, तो वे पर्स भी ढोते हैं. घर में चीनी पति और पत्नी मिल कर काम करते हैं. चीन में पचास साल पहले औरतों की हालत, भारत की तरह ही खराब थीं. पर चीन की साम्यवादी पार्टी ने औरतों के हालात बदलने का संकल्प लिया. बड़े पैमाने पर देह व्यापार से जुड़ी महिलाएं, मुख्यधारा में लायी गयीं. देह व्यापार प्रतिबंधित किया गया. आज चीन की राजनीति में भी महिलाएं टॉप पर हैं. उद्योग-धंधों में, पढ़ाई में या गाइड के तौर पर चीनी महिलाओं की भूमिका, चीन की प्रगति में निर्णायक है. चीन की धरती पर जो सफाई या व्यवस्था का अनुशासन दिखता है, वह भारतीय मानस को स्तब्ध करता है.

एक भारतीय अधिकारी, जो भारतीय दूतावास में लंबे समय से चीन में काम कर रहे हैं, चीन के बारे में अपना अनुभव बताते हैं कि यहां व्यवस्था काम करती है. वह कहते हैं कि यहां के बच्चों को स्कूलों में चीनी नेताओं के बारे में पढ़ाया जाता है. माओ से लेकर देंग स्याओ पेंग के बारे में. पर चीन की युवा पीढ़ी देंग को पसंद करती है, जिन्हें यह श्रेय है कि उन्होंने आधुनिक चीन गढ़ा. आज शंघाई से बीजिंग, जिसके बीच की दूरी लगभग 2000 किलोमीटर है, पांच घंटे में रेल से लोग तय करते हैं. लोग बीजिंग और शंघाई के बीच हवाई जहाज छोड़ कर रेल यात्र पसंद करते हैं. चीन में, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का निर्णायक रोल है. पार्टी में अनेक बड़े नेता, आज भी गुमनाम रह कर काम करते हैं. एक काडर के रूप में जिंदगी शुरू कर, अंत तक गुमनाम रहते हैं. वे ही कामकाज के आधार पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के बड़े नेताओं का भविष्य तय करते हैं. दुनिया की दृष्टि से अनजान, नेपथ्य में रहते हुए, चुपचाप अपने मुल्क-देश के लिए काम करते हैं. वे चुनते हैं कि जिला स्तर में किस नेता में प्रतिभा है, जो आगे चल कर देश की रहनुमाई करेगा. चीन के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद तक जो नीचे स्तर से पहुंचनेवाले नेता हैं, उनका चयन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के ऐसे नेता ही करते हैं.

आज भारत में ऐसे नेताओं की पीढ़ी कहां है. पहले कांग्रेस के पास यह जमात थी. नेहरू की कैबिनेट में अनेक दिग्गज इसलिए नहीं गये, क्योंकि वे बाहर रह कर समाज का निर्माण करना चाहते थे. भावी नेताओं के लिए जमीन तैयार करना चाहते थे. उपराष्ट्रपति रहे स्वर्गीय कृष्णकांत के पिताजी लाला अचिंत्यराम को पंडित नेहरू ने अपनी कैबिनेट में शामिल करने के लिए न्योता. लाला अचिंत्यराम ने यह कह कर मना कर दिया कि सभी लोग सत्ता में चले जायेंगे, तो पार्टी निर्माण के काम में कौन रहेगा? आज किसी भी दल में, दल के निर्माण के लिए, दल की नींव को पुख्ता करने के लिए, नींव की ईंट बनने के लिए कितने नेता तैयार हैं? आज खाद बनने के लिए कितने भारतीय राजनीति में आते हैं? क्या महज सत्ता से प्रेरित नेताओं की जमात या समूह के पास वह संकल्प, वह दृष्टि, वह चरित्र, वह त्याग, वह अनुशासन है जो चीन जैसे देश से मुकाबला कर पायेगा? ऐसा नहीं है कि चीन में भ्रष्टाचार नहीं है.

वहां रहनेवाले एक भारतीय मित्र बताते हैं कि फर्ज करिए, दस बिलियन में अगर एक सड़क का ठेका आपको मिला. आपने अच्छा काम किया. अच्छी सड़क बनायी. और उसके बाद जो बचा, उस बचत से आपने संबंधित अफसरों-नेताओं को घूस दे कर आगे काम लिया, तो आप को काम करने का अवसर दोबारा मिलता है. संभव है, अगले साल आपको 30-35 बिलियन डालर के काम करने का ठेका मिल जाये. फिर सौ बिलियन डॉलर के काम का ठेका मिल जाये. पर बुनियादी शर्त यह है कि सड़क की क्वालिटी, सड़क के काम के स्तर पर कहीं समझौता नहीं होना चाहिए. सड़क बेहतर बनाइए और उसके बाद भ्रष्टाचार करिए, यह सोच है, चीन में. दूसरी तरफ भारत में हम सड़क या बांध पूरी तरह निगल जाते हैं.

काम किया नहीं और पैसा ले लिया. क्या हमारा यह मानस चीन जैसे देश का मुकाबला कर सकता है? चीन में हमारे भारतीय साथी, हमारे सवाल के जवाब में हमें ही बताने को कहते हैं कि भारत के वे लोग, जो सड़क पर गाड़ी चलाने का ट्रैफिक अनुशासन नहीं मानते, ट्रैफि क सिपाही की पिटाई करते हैं, ट्रेन में बिना टिकट यात्र करते हैं, ट्रेन के रिजर्व डिब्बे में टिकट व आरक्षण न होने पर भी घुस जाते हैं और हकदार व्यक्ति को ही उसकी सीट से उठा देते हैं, जहां अपराधी आतंकित करते हैं, जहां जनता के बीच अपराधी पूजे जाते है , जहां छोटे स्तर पर स्कूल में एक व्यक्ति अपने एक बच्चे का दो-तीन जगह नाम लिखवाता है, ताकि वह गलत ढंग से स्कालरशिप ले सके, अध्यापकों पर दबाव दे सके, दो-तीन जगह मिड डे मिल का फर्जी बिल बन सके, जहां अध्यापकों में अनैतिकता हो, ग्राम प्रधान में अनैतिकता हो, जहां साधारण लोगों में अनैतिकता हो, जहां कोई अनुशासन में बंधने को तैयार न हो, वह समाज चीनी समाज के मुकाबले कहां खड़ा हो पायेगा? कैसे खड़ा हो पायेगा? भारत में सामान्य फितरत है, नेताओं को दोष देने की. हम भारतीय कहते हैं कि नेता भ्रष्ट हो गये हैं. मंत्री भ्रष्ट हो गये हैं. पर उसके पहले एक सामान्य चीनी की नैतिकता और एक सामान्य भारतीय की नैतिकता आप आंक लीजिए? हां, आप यह कह सकते हैं कि एक सामान्य चीनी को कानून का भय है. यह तर्क चल सकता है. पर जो भारतीय समाज, कानून का ही आदर न करे, अपना ही कानून न माने, वह समाज किस तरह से चीन जैसे तेजी से प्रगति कर रहे अनुशासित समाज के सामने टिक सकता है?

दरअसल पिछले 30-40 वर्षो पहले चीन ने प्रगति का अपना मानस बनाया. एक सपना, एक परिकल्पना, एक संकल्प कि हमें दुनिया की सबसे बड़ी ताकत बनना है? हमें गरीबी खत्म करनी है? हमें बेरोजगारी खत्म करनी है? हमारा शहर सुंदर होना चाहिए? हमारा मुल्क सुंदर होना चाहिए? हम दुनिया के नंबर एक देश बने? ऐसे सपने भारत में कहां है? हमारे बिहारी मित्र यह सब बताने के साथ-साथ उल्लेख करते हैं कि बिहार-यूपी में जब एक बच्च परीक्षा देने जाता है, तो परिवार से दस-दस लोग उसे चोरी कराने जाते हैं. जहां पर सामान्य जन का मानस ऐसा हो, वह देश, चीन के संकल्प के आगे कैसे टिकेगा? फिर वह कहते हैं कि मैं भारत के बड़े नेताओं, मंत्रियों और नौकरशाहों के भ्रष्टाचार की बात नहीं कर रहा. यह तो आप सब बेहतर जानते हैं. वह बताते हैं कि चीन में भी भ्रष्टाचार है. ऐसा नहीं है कि चीन में सब साफ -सुथरे हैं. पर एक फर्क है कि चीन में हर साल कुछेक बड़े लोगों या नेताओं को सरेआम फांसी या सख्त सजा होती है. अनेक बड़े लोग, जिनके बारे में लगा कि अगले शासक वह होनेवाले हैं, पर जैसे ही उनसे जुड़ी भ्रष्टाचार की कोई बात सामने आयी, तो उनकी जिंदगी जेल की सलाखों के पीछे गुजरती है. या फांसी तक सजा होती है. यह फर्क है चीन और भारत का.

चीन के हमारे बिहारी मित्र कहते हैं कि चीन में भी पांच धर्म हैं. पर पहला देशधर्म है. किसी भी धर्म को यह इजाजत नहीं है कि वह चीन की राजनीतिक व्यवस्था को बंधक बना सके. यहां एक ही कसौटी है. आर्थिक उपलब्धि ही सबसे महत्वपूर्ण चीज है. हर साल जनवरी आते-आते लगभग हर संबंधित विभाग या संस्थान को यह सूचना दे दी जाती है कि अगले साल इस देश का जीडीपी क्या होगा? उसमें आपकी भूमिका क्या है? हमारा सपना क्या है? हम कितना निवेश करनेवाले हैं? कितने लोगों को रोजगार देनेवाले हैं? हमारी कंपनी कितना आगे बढ़ेगी? हमारी कंपनी या संस्था के लोगों के जीवन, यानी चीन के समाज पर इसका कितना असर पड़ेगा? इन सब चीजों के बारे में नीचे के स्तर तक की योजना चीन में बनती है. ऊपर से नीचे तक तालमेल.

फिर इसकी सख्त मानिटरिंग शुरू होती है. बिहार के मित्र कहते हैं कि पश्चिम के मीडिया में आज बार-बार चीन में सामाजिक तनाव की खबरें आती हैं. पर अंदर के हालात बिल्कुल अलग हैं. आप घूम कर देख लीजिए. चीन का समाज शांत है. समरस है. चीन की एक ही भूख है, आर्थिक प्रगति. वह चीन की भाषा के बारे में कहते हैं कि रूस की तरह यहां हर शब्द का चीनी अनुवाद उपलब्ध है. चीन के लोग दुनिया को जानने के लिए अंग्रेजी पढ़ रहे हैं. वह कहते हैं कि चीन में आज एक एमबीबीएस डाक्टर 25 लाख में तैयार होता है. इसी में उसके रहने-खाने, फीस वगैरह सब कुछ का खर्च आ जाता है. पर भारत में लगभग एक करोड़ में एक डाक्टर तैयार होता है. इसलिए बड़े पैमाने पर भारत के लोग डाक्टर बनने चीन आ रहे हैं. वह पूछते हैं कि भारत को किसने रोक रखा है कि अपने यहां 25 लाख में डाक्टर तैयार न करें? क्या भारत असमर्थ है? क्या भारत में प्रतिभा नहीं है. वह मानते हैं कि भारत के पास सबकुछ है, पर भारत की सरकार या व्यवस्था के पास सपना नहीं है. इच्छा शक्ति नहीं है. भारत के नेता, उस भ्रष्ट व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं, जिसके तहत उनकी निजी महत्व बना रहे.

चीन में जहां हम ठहरे थे, वहां लगभग सोलह लेन की सड़के हैं. हम भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री के साथ रूस से चीन पहुंचे थे. रूस की तरह चीन में भी ‘द ग्रेट हाल ऑफ पीपुल’ या चीन की सत्ता जहां रहती है, वहां न्यूनतम सुरक्षा है. थ्यानमेन चौक के सामने गुलाबों के फूल के अद्भुत बाग हैं. थ्यानमेन हॉल में माओ की बड़ी तस्वीर लगी है. ग्रेट पीपुल्स हाल भव्य है. इन सब जगहों पर कहीं भी बड़ी सुरक्षा नहीं, पर राजसत्ता का इकबाल बिना बोले दिखता है. आज भारत में पग-पग पर सुरक्षा है, पर अपराधियों में, आतंकवादियों में, भ्रष्ट लोगों में, दलालों में कहीं कोई भय नहीं.

भारत ने देखा, एक तरफ भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परंपरा और लीक से हट कर चीन के राष्ट्रपति का स्वागत किया. प्रोटोकाल तोड़ कर अगवानी की. फिर भी जिस क्षण चीन के राष्ट्रपति शी-जिनपिंग के भव्य हवाई जहाज ने भारत की धरती को छुआ, उसी क्षण चीन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सैनिक भारतीय सीमा में घुसे. दरअसल, हम भारत के लोग चीन का मानस समझने में विफल हैं. किसी भी समस्या के समाधान या रणनीतिक उत्तर के लिए, पहले समस्या के स्वरूप या उसकी गंभीरता या गहराई को सही रूप से आंकना जरूरी है. चीन हमेशा भारत के प्रति कठोर रहेगा. चीन मानता है कि भारत कोई ताकत है ही नहीं. इक्कीसवीं सदी का चीन अलग है. चीन दुनिया की नयी महाशक्ति है. जापान ने चीन के विकास में लगभग सौ बिलियन डॉलर निवेश किया है, फिर भी चीन ने जापान के सेनकाको द्वीपसमूह पर अपना दावा किया है. वियतनाम और चीन के बीच 50 बिलियन डॉलर का व्यापार है, पर वियतनाम और चीन के रिश्तों में खटास है.

आज चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. भारत-चीन का बड़ा व्यापार है. पर इस व्यापार यानी ट्रेड सरप्लस का बड़ा लाभ चीन को मिलता है. इसके लिए भी चीन भारत को दोष दे रहा है कि भारत ने लौह अयस्क भेजना बंद कर दिया. याद रखिए, चीन अपना लौह अयस्क नहीं खोदता, पर दुनिया के अलग-अलग देशों में जाकर लौह अयस्क, खनिज या तेल एकत्र कर रहा है. हमने अपना मैनुफैक्चिरिंग सेक्टर खराब हालत में रखा है. चीन आज व्यापार में या दुनिया के बाजार में निर्णायक हैसियत में है. चीनी व्यक्तिगत चर्चा में उन पश्चिमी पत्रकारों-लेखकों की कटु आलोचना करते हैं, जो चीन और भारत की तुलना करते हैं. वे कहते हैं कि क्या अमेरिका और मैक्सिको की तुलना हो सकती है? आज चीन सिर्फ अमेरिका को अपना प्रतियोगी मानता है. रूस के लगातार कमजोर होने के कारण चीन दुनिया में अपनी स्थिति और मजबूत कर रहा है. (जारी)

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