भारत में मजदूरी व बंधुआ मजदूरी के दुष्चक्र से बच्चों की मुक्ति के काम में सक्रिय सामाजिक कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान में बच्चियों की शिक्षा के लिए संघर्षरत 17 वर्षीया मलाला यूसुफजई को 2014 के नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किये जाने की घोषणा दोनों पड़ोसी देशों के लिए गौरव का एक महत्वपूर्ण क्षण है.
यह इस बात का रेखांकन भी है कि दुनिया भर में बच्चों के अधिकारों को सुनिश्चित किया जाना सरकारों, समुदायों, समाजों और संगठनों की बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. नोबेल शांति पुरस्कार के लिए इस वर्ष कुल 278 नामांकन हुए थे, जो नोबेल इतिहास में सर्वाधिक संख्या है.
सत्यार्थी ने अपने संगठन ‘बचपन बचाओ आंदोलन’ के जरिये अब तक 80 हजार से अधिक बच्चों को श्रम और गुलामी के अमानवीय और आपराधिक भंवर से निकाल कर शिक्षा और खेल-कूद के उनके नैसर्गिक अधिकार सुनिश्चित कराने की कोशिश की है. 2011 में प्रकाशित यूनीसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में पांच से चौदह वर्ष की उम्र के 15 करोड़ से अधिक बच्चे श्रमिक हैं. 2001 की जनगणना के मुताबिक भारत में बाल मजदूरों की संख्या एक करोड़ 26 लाख थी. 2009-10 में भारत सरकार के सर्वेक्षण में इस संख्या में कमी तो आयी, लेकिन यह तब भी लगभग 50 लाख थी.
बाल श्रम के विरुद्ध संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों के बावजूद गरीबी तथा सरकारी उपेक्षा के कारण ऐसे बच्चों का बचपन शोषण के अंधेरे में खो जाता है. कैलाश सत्यार्थी और उनके साथी बच्चों के श्रम का लाभ उठा रहे शोषकों के हमलों को सहते और उनसे जूझते अपने उद्देश्य के लिए समर्पित रहे हैं. मजदूरी और मजबूरी से बच्चों को बचाने के उनके अनुभवों का इस्तेमाल दुनियाभर में हो रहा है. मलाला बचपन से ही तालिबानी आतंक के साये में जी रहे पाकिस्तान के स्वात क्षेत्र में बच्चियों की शिक्षा के पक्ष में लिख और बोल रही हैं. उनकी सक्रियता इतनी असरकारी रही कि आतंकियों ने उन्हें जान से मार देने की कोशिश की. सत्यार्थी की तरह मलाला ने भी हार नहीं मानी. दो भिन्न पीढ़ियों और देशों से संबद्ध इन शांति-सेनानियों को संयुक्त रूप से सम्मान यह संदेश है कि बचपन बचाना साझी और सामूहिक जिम्मेवारी है.