गांव गया था, गांव से भागा..
घनश्यामपुर थाने के दारोगा ने मेरे रिपोर्ट लिखाने को जिस गंभीरता लिया, उससे मेरी धारणा और पुष्ट हुई कि अपराध मिटाने में समाज को आगे आना होगा. मुझे दुख इस बात का है कि सामान्यत: ‘स्वत: प्रमाणं परत: प्रमाणं’ में व्यस्त रहनेवाला मिथिलांचल अब बाहर से कलाकारी सीख कर लौटे पेशेवरों से भर गया है. […]
घनश्यामपुर थाने के दारोगा ने मेरे रिपोर्ट लिखाने को जिस गंभीरता लिया, उससे मेरी धारणा और पुष्ट हुई कि अपराध मिटाने में समाज को आगे आना होगा. मुझे दुख इस बात का है कि सामान्यत: ‘स्वत: प्रमाणं परत: प्रमाणं’ में व्यस्त रहनेवाला मिथिलांचल अब बाहर से कलाकारी सीख कर लौटे पेशेवरों से भर गया है. चिर-उपेक्षा की शिकार मिथिला के गांवों की तासीर अब उतनी ठंढी नहीं रह गयी है, जितनी हम बाहर से कल्पना कर लेते हैं.
छह अक्तूबर की सुबह जब मैं समस्तीपुर में जयनगर वाली इंटरसिटी ट्रेन में बैठा, तो वह मेरे पूर्व अनुभवों के विपरीत बिलकुल खाली थी. मुङो ट्रेन तक छोड़ने आये ‘दूर देहात’ के संपादक पोद्दार जी ने इसका कारण बकरीद की छुट्टी बताया. वहीं दो-एक काव्यप्रेमी मित्र मिल गये, जिनके साथ दरभंगा तक 55 किमी की दूरी मैंने आसानी से तय कर ली. वहां से मुङो आधारपुर गांव जाना था, जो महज 60 किमी दूर है, मगर पिछली बरसात में आयी बलान नदी की बाढ़ ने उस पक्की सड़क को कई जगह ध्वस्त कर दिया, जिससे सामान्य टैक्सियां उधर नहीं जातीं.
मिनी बसें और जीप, मैजिक जैसे वाहन उस इलाके के लोगों के आने-जाने के लिए मुख्य साधन हैं. मैं भी जब दरभंगा स्टेशन पर उतरा, तो मालूम हुआ कि वहां से तीन किमी दूर दोनार चौक से बस मिलेगी. टेम्पो कर वहां पहुंचा, तो कई वाहन खड़े थे, जो उसी दिशा में भिन्न-भिन्न गंतव्यों तक जाने के लिए सवारियों को भर नहीं, कस रहे थे. वहीं सिंदूरी लाल रंग की एक मैजिक खड़ी मिली, जिसमें बैठे अधिकतर यात्री आधारपुर जा रहे थे. वे सपरिवार कलकत्ता से आ रहे थे. मैं भी उसी में आधी बची सीट पर किसी तरह लद गया. नीचे जब सुई रखने की जगह नहीं थी, तो मेरा वीआइपी सूटकेस कहां अंट पाता. सो, खलासी ने मुङो मैजिक में किसी तरह कोंचने से पहले मेरा सूटकेस छत पर उठा कर रख दिया. यह कोई नयी बात नहीं थी. जब भी बस से यात्र करता हूं, खलासी मेरा गंतव्य पूछ कर सूटकेस अपने कब्जे में कर लेता है. उसे या तो वह छत पर रखता है या पीछे बने केबिन में. कभी मेरी इस बिरादरी के प्रति आस्था डिगी नहीं.
मैजिक का एक-एक इंच जगह भर जाने के बाद युवा ड्राइवर अपनी सीट पर बैठा और हम दरभंगा जिले के उस देहात की ओर रवाना हुए, जो इस समय धान की बालियों से लदे हरे-भरे खेतों, मटमैले पानी वाली छोटी-छोटी नदियों, लाल और कमल और मखाने के गोल-गोल पत्ताें से भरे पोखरों तथा फसलों की हरीतिमा को हिममंडित होने का आभास दिलाते कासवन के सफेद फूलों से सुसज्जित है. पुरैन पात यानी कमल के पत्ते इतने बड़े-बड़े कि दो-तीन बिछा लें तो पांच फुट्टा जवान भी सो सकता है. इस इलाके में आज भी सामाजिक भोज पुरैन पातों पर ही होता है. बड़े-बड़े पुरैन पात पर मोती की तरह चमकते जल की बूंदों के बीच चूड़ा का मुहाने की तरह ऊंचा घेरा और उस घेरे को तोड़ कर बहता मिथिला का ख्यातिप्राप्त दही और उन दोनों को जायकेदार बनाता हुआ ‘डालना’ यानी कई सब्जियों को मिला कर बनाया गया तीखा व्यंजन जिसने देखा और चखा नहीं, उसका मिथिलांचल भ्रमण प्रकाश झा की फिल्मों की तरह ही पल्लवग्राही है.
मेरे आनंद में खलल तब पड़ी, जब कुछ दूर चलने के बाद मैजिक एक पेट्रोल पंप पर जाकर तेल भरने लगा और खलासी यात्रियों से किराया. यात्रियों ने डांटा भी कि यह बीच में किराया वसूलने का क्या तुक है? मगर खलासी का वसूल था, किराया वहीं वसूलना है. सो, मुङो भी बैग खोल कर भुगतान करना ही पड़ा. सूटकेस में ताला बंद था और खलासी पूरी यात्र या तो छत पर बैठा रहा या सवारियों को छत पर चढ़ाने-उतारने के क्रम में वाहन के पीछे लटका रहा, इसलिए मैं पास से गुजरते गांवों को देखता, घरों की फूस की छानी पर लतरती घीरा, सजमन, कुम्हर, कदीमा के फूलों और फलों को निहारता तथा यात्रियों के आपसी वार्तालाप में गांव के विभिन्न रंगों का रस लेता जा रहा था. दरभंगा से बेनीपुर-अलीनगर-पाली घनश्यामपुर वाले मार्ग से जाते हुए एक नयी बात जो दिखी, वह थी पूरे इलाके में मुसलिम आबादी और उसके साथ ही नयी-नयी मसजिदों की बहुतायत. पीली धोती और लाल पाग वाले लोग, जो ग्रामीण मिथिला की पहचान हुआ करते थे और जो दूर से ही चमकते थे, न जाने कहां चले गये! न जाने कहां चली गयीं वे छोटी-छोटी नावें, जिन पर बैठ कर मल्लाहों के काले, अधनंगे, पानीदार बच्चे चर-चांचरों में मछली मारा करते थे! पाली-घनश्यामपुर आकर ड्राइवर खलासी हो गया और खलासी ड्राइवर की भूमिका निभाने लगा. वहां से रास्ता जगह-जगह ऐसा टूटा था कि बाइकवाले युवक ही उस पर धड़ल्ले से निकल पाते थे. शाबाशी उन वाहन मालिकों को भी देना चाहिए जो अपनी गाड़ी की ऐसी-तैसी होने का खतरा मोल लेते हुए भी ग्रामीणों की सुविधा के लिए नियमित सेवा दे रहे थे.
मुङो याद है, बचपन में मेरे इलाके के लोग आवागमन की असुविधा के कारण ही कन्है-आधारपुर इलाके में अपनी बेटी नहीं देना चाहते थे. समय के अंतराल ने जहां राजधानियों में रहनेवालों को मेट्रो से चलने का सुख और बुलेट ट्रेन में बैठने का सपना दिया, इस देहात को एक रेलमार्ग भी सुलभ नहीं करा सका, जिसका सपना कभी रेल मंत्री ललित बाबू ने यहां के ग्रामीणों को दिखाया था. सकरी-हसनपुर रेलमार्ग ललित बाबू के निधन के बाद ही ठंडे बस्ते में डाल दिया गया.
लगभग दो घंटे की कष्टप्रद यात्र के बाद जब आधारपुर पहुंचा, तो ड्राइवर गांव के सिवाने से लौट जाना चाहा, मगर कलकत्ता से आये सहयात्री परिवार के अनुनय-विनय पर वह गांव के भीतर आया. मैजिक मेरे बहनोई के दरवाजे पर ही रुका और मेरे सात भांजों में से एक ने सूटकेस खलासी के हाथ से लेकर एक चौकी पर रख दिया. लोगों से मिलते-जुलते, शोक-संतप्त बहन और उसकी शाखा-प्रशाखाओं को सांत्वना देने के बाद जब मैंने घर से उस उपलक्ष्य में लाया सामान निकालने के लिए सूटकेस खोला, तो उसमें ऊपर ही रखा वह झोला गायब था, जिसमें सारा रुपया, कीमती कैमरा और उन सबसे भी मूल्यवान दो डायरियां थी, जिनमें बहुत सी अप्रकाशित कविताएं थीं.
प्राय: मेरे कंधे पर लटका रहनेवाला वह झोला साहित्य आकादमी की ओर से मिला था, जो बाजार में दुर्लभ है. ज्यादा सुरक्षित रखने के लिए मैंने उसे तालाबंद सूटकेस में रख दिया था. मजे की बात यह कि ताला उसी तरह बंद था, मगर किसी ने उसके साथ छेड़छाड़ की है, यह आसानी से ताला न खुलने से मुङो शक हुआ. संयोग से, पाली में कुछ पलों के गाड़ी से उतरते समय वाहन का नंबर देख लेने के कारण मुङो याद था. इसके बाद तो यह खबर जंगल की आग की तरह पूरे गांव में फैल गयी और इससे पहले घटी इसी प्रकार की घटनाएं एक-एक कर बांबियों से मेरे सामने निकलने लगीं. चूंकि बैग का ताला बंद रहता है, इसलिए लोग शक नहीं करते हैं. वारदात का पता तब चलता है, जब ताला खुलता है. दुखद यह है कि लोग पुलिस को रिपोर्ट इस मानसिकता के कारण नहीं करते कि पुलिस कुछ नहीं करेगी. क्योंकि ऐसी वारदातें पेशेवर गिरोह करते हैं, जो बिना पुलिस के सहयोग से संभव नहीं.
जिस बिहार पुलिस के शीर्ष डीएन गौतम, गुप्तेश्वर पांडेय जैसे मनीषी रहें, उसके बारे में ग्रामीणों की यह धारणा मुङो अच्छी नहीं लगी, और उनके इस भ्रम को तोड़ने के लिए मैं कोजागरा की रात, जब सभी ग्रामीण लक्ष्मीपूजा कर पान-मखान बांटने में व्यस्त थे, एक भांजे के बाइक के पीछे बैठ कर घनश्यामपुर थाना जाकर रिपोर्ट लिखा आया. वहां के दारोगा राउत ने जिस गंभीरता से मेरे प्रकरण को लिया, उससे मेरी धारणा और पुष्ट हुई कि अपराध मिटाने में पुलिस के साथ समाज को भी आगे आना होगा. सबसे अधिक दुख मुङो इस बात का है कि सामान्यत: ‘स्वत: प्रमाणं परत: प्रमाणं’ में व्यस्त रहनेवाला मिथिलांचल अब बाहर से कलाकारी सीख कर लौटे पेशेवरों से भर गया है. चिर-उपेक्षा की शिकार मिथिला के गांवों की तासीर अब उतनी ठंडी नहीं रह गयी है, जितनी हम बाहर से कल्पना कर लेते हैं.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार
buddhinathji @gmail.com