1942 के नायक तो जयप्रकाश ही थे
यह बात अलग है कि इस बुराई से निपटने के लिए जो सुझाव जेपी ने विकल्प के रूप में दिये थे, आगे चल कर उनके सहयोगी और उनको माननेवालों ने भी उस पर अमल नहीं किया. लेकिन, यह जेपी की कमजोरी नहीं, यह तो उनके माननेवालों की कमजोरी है. पिछले दिनों दो बार मुङो ऐसा […]
यह बात अलग है कि इस बुराई से निपटने के लिए जो सुझाव जेपी ने विकल्प के रूप में दिये थे, आगे चल कर उनके सहयोगी और उनको माननेवालों ने भी उस पर अमल नहीं किया. लेकिन, यह जेपी की कमजोरी नहीं, यह तो उनके माननेवालों की कमजोरी है.
पिछले दिनों दो बार मुङो ऐसा लगा कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण का सही मूल्यांकन नहीं हुआ है. पहली बार जब किसी ने यह सवाल किया कि 1942 के आसपास जेपी की क्या भूमिका थी, इसके पश्चात मैंने उस दौरान के जेपी की भूमिका के विषय में पढ़ा. इस बात का मेरे मन पर जो असर है, वह यह है कि सही मायने में 1942 के नायक तो जेपी ही थे. चाहे सोशलिस्ट पार्टी के नेता हों या कांग्रेस के या अलग-अलग विचारधारा के लोग, वे सब उन्हें बेहतर, श्रेष्ठ और क्रांतिकारी के रूप में देखते हैं. 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के नारे के बाद वे जेल भी गये.
लेकिन इस चर्चा में यह बात बहुत कम लोगों को ही जानकारी है या इसकी चर्चा अमूमन कम ही होती है कि 1940-42 तक जयप्रकाश लगातार बंदी रहे, जेल में रहे. अगर उस दौर में जेपी की तुलना किसी नेता से की जा सकती है तो वह थे, नेता जी सुभाष चंद्र बोस. 1940 के जून माह में जब पूरी कांग्रेस दुविधा में थी, उस समय अकेले जेपी ही थे, जो जमशेदपुर में मजदूर नेता के रूप में अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे थे. उस समय जेपी टाटा कारखाने के सामने भाषण करते हुए मजदूरों से आह्वान करते हैं कि एकजुट हों और अंगरेजी शासन को उखाड़ फेंके. इसी आरोप में उन्हें चाईबासा जेल में बंद किया गया. वहां उन्होंने लंबा उपवास किया, और इस उपवास से अंग्रेजों की अमानवीयता से पूरा देश वाकिफ हुआ. गांधीजी ने वायसराय को पत्र लिखा, और इसकी जांच की गयी. जेल को भंग करना पड़ा.
1942 में जेपी हजारीबाग में जेल तोड़ कर बाहर आये. 1942 से 46 के बीच नेपाल में ट्रेनिंग कैंप लगाया, ताकि क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण दिया जा सके. उन्हें गिरफ्तार कर लाहौर जेल लाया गया. इस काल में जेपी जवाहर लाल नेहरू और महात्मा गांधी के आभा मंडल में छिप गये जान पड़ते हैं. ऐसा लगता है कि इतिहास ने उनके साथ न्याय नहीं किया. तथ्यों पर गौर करने पर तो यही लगता है कि निर्णायक लड़ाई के नायक तो जेपी ही थे. दूसरे लोगों ने तो जेपी का अनुसरण किया.
दूसरी जरूरी बात यह है कि वह मौका उस वक्त का है जब महात्मा गांधी के मरने के बाद 5 दिन तक सेवाग्राम में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस पांच दिवसीय सम्मेलन को संपादित करके गोपाल कृष्ण गांधी ने एक पुस्तक बनायी है, ‘बापू नहीं रहे, अब रहनुमाई कौन करेगा.’ 11 मार्च से 15 मार्च के बीच हुई इस बैठक का विवरण पढ़ने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि सिर्फ जेपी ही हैं, जो बुनियादी सवाल उठा रहे हैं. वे कहते हैं, जो रास्ता हमने चुना है, उससे पश्चिम के देशों में जिस तरह का नेशन स्टेट बना है, जिसके तहत सेना, ब्यूरोक्रेसी, राजनेता को तो अहम स्थान प्राप्त है, लेकिन समाज को बहुत अहमियत नहीं दी गयी है. जेपी यह बात बहुत प्रमुखता से उठा रहे हैं.
आज उस नेशन स्टेट का पिरामिड और ज्यादा मजबूत हुआ है, और सामान्य जन और समाज उसी अनुपात में कमजोर हुआ है. 1942 से 1948 के बीच के जो जेपी हमारे सामने हैं और वही निरंतरता, सातत्यता आगे भी हम देखते हैं. उनके विचारों में ईमानदारी थी, तभी उन्होंने सरकार में जाने की कोशिश भी नहीं की. सरकार में शामिल होने के प्रस्ताव को उन्होंने ठुकरा दिया. साठ के दशक में यह सवाल बार-बार सामने आया कि नेहरू के बाद कौन. स्वाभाविक रूप से जेपी का नाम लोग सामने रखते थे. शायद नेहरू की भी यही इच्छा थी.
जेपी के जीवन के ये जो प्रसंग हैं- 1942 के या उसके बाद के- उनको काट कर- हम अकसर 1974 के जेपी को याद करते हैं. इस दौरान का मूल्यांकन करते हुए काफी बुद्धिमान लोग भी जेपी को एक विफल राजनेता के रूप में प्रस्तुत करते हैं. पर, यह देखना ज्यादा जरूरी है कि मार्क्सवादी जेपी ने अनुभवों से खुद को कैसे बदला और उसी दृष्टि से भारत को बनाने की कोशिश जीवन भर की. 1948 में राजनीतिक व्यवस्था, राज्य व्यवस्था के पुनर्रचना का प्रश्न नेहरू से उठाया. मेरी राय में, जब वे राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना का सवाल उठा रहे थे, तो क्यों नहीं इस बात को सामने रखा कि संविधान फिर से लिखा जाना चाहिए. यहां जेपी का अंतर्विरोध नजर आता है. वे राज्य व्यवस्था की पुनर्रचना की बात करते हैं और संविधान को फिर से लिखे जाने की बात नहीं कहते या वर्तमान संविधान जिसके परिणामस्वरूप आज की दुर्दशा है, उस पर चुप रहते हैं, तो यह एक बिल्कुल नये शोध का विषय है. आखिर क्यों समाजवादी लोगों ने संविधान सभा का बहिष्कार किया और जेपी भी यह कहने में क्यों हिचक रहे हैं, इस पर चर्चा होनी चाहिए.
1971 के चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस ने अंधाधुंध पैसा खर्च किया, इससे पीड़ित जेपी ने चुनाव-सुधार की बात सबसे पहले की. वे इस पर सिर्फ एक बयान देकर चुप नहीं हुए, उन्होंने अंगरेजी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस में इस विषय पर लगातार पांच लेख लिख कर चुनाव-सुधार के एजेंडे को देश के सामने रखा. जेपी ने इस खतरे को सबसे पहले भांप लिया था. आगे चल कर विपक्षी राजनीतिक दलों ने भी इस मुद्दे को उठाया. यह बात अलग है कि इस बुराई से निपटने के लिए जो सुझाव जेपी ने विकल्प के रूप में दिये थे, आगे चल कर उनके सहयोगी और उनको माननेवालों ने भी उस पर अमल नहीं किया. लेकिन, यह जेपी की कमजोरी नहीं, यह तो उनके माननेवालों की कमजोरी है.
यदि विनोबा भावे के बजाय जेपी को गांधी का उत्तराधिकारी माना गया होता, तो शुरू में ही जेपी ये सवाल उठा कर सरकार को नयी दिशा देने की कोशिश करते, जो काम उन्होंने 1971 के बाद शुरू किया. गांधी के कई सहयोगियों ने, भावी भारत की तसवीर क्या होगी, इस विषय में लिखा-पढ़ा है, इसमें किशोर लाल सरूवाला, जेसी कुमारप्पा का नाम प्रमुख है. सवाल यह है कि इन्होंने खाका बनाया और सरकार ने जो रास्ता चुना वह विपरीत दिशा में जाता है. विनोबा ने जो समानांतर भूदान, ग्रामदान आंदोलन चलाया, उससे गांधीजी के रचनात्मक काम करनेवाले लोगों में उत्साह पैदा हुआ, लेकिन इसके बरक्स सरकार ने जो गांव के विषय में योजना बनायी, उसका जेपी या विनोबा के सुझाव से लेना-देना नहीं. आज प्रधानमंत्री की ‘आदर्श ग्राम’ योजना किसी नारे से ज्यादा नहीं है. सांसद और विधायक निधि का पैसा लगा देने मात्र से आदर्श ग्राम नहीं बन सकता. इसके लिए जरूरी है कि गांव आर्थिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र हो, जो किसी योजना में नहीं दिखती. इस लिहाज से आदर्श ग्राम दिल्ली के किसी मुहल्ले की नकल भर है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
रामबहादुर राय
वरिष्ठ पत्रकार
delhi@prabhatkhabar.in