आरटीआइ से उठ रहा लोगों का भरोसा
भ्रष्टाचार से लड़ने के हथियार को बनाया जा रहा भोथरा यूपीए-1 की सरकार के समय जब सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ) आया, तो लगा कि गांव की योजनाओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर की परियोजनाओं में घपला-घोटाला रुकेगा. क्योंकि, जनता के पास सूचना की ताकत होगी. इस ताकत से कुछ सकारात्मक बदलाव भी आये, पर अब […]
भ्रष्टाचार से लड़ने के हथियार को बनाया जा रहा भोथरा
यूपीए-1 की सरकार के समय जब सूचना का अधिकार कानून (आरटीआइ) आया, तो लगा कि गांव की योजनाओं से लेकर राष्ट्रीय स्तर की परियोजनाओं में घपला-घोटाला रुकेगा. क्योंकि, जनता के पास सूचना की ताकत होगी. इस ताकत से कुछ सकारात्मक बदलाव भी आये, पर अब सूचना हासिल करना आसान नहीं रह गया है.
अफरोज आलम साहिल
साल 2005 में जब सूचना का अधिकार (आरटीआइ) कानून लागू हुआ था, तो इसे भ्रष्टाचार से लड़ने के सशक्त हथियार के रूप में देखा गया. यह कानून यकीनन कई बदलाव लेकर आया. लेकिन इस कानून को लेकर शुरू में जो उत्साह था, उसमें धीरे-धीरे कमी होती दिखायी दे रही है. सरकारी पेचीदगियों के कारण यह कानून उतना जनसुलभ नहीं है, जितना होने की उम्मीद थी. जानिए, आरटीआइ की राह में पांच बड़ी मुश्किलें :
1. आयोग में लंबित मामले : आरटीआइ कार्यकर्ता सूचना आयोगों में लंबित मामले को आरटीआइ कानून के लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में देख रहे हैं. क्योंकि इसकी वजह से इनको सूचना के लिए सालों-साल इंतजार करना पड़ रहा है. हाल में पेश की गयी आरटीआइ असेसमेंट एंड ऐडवोकेसी ग्रुप (राग) और साम्य सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देशभर के 23 सूचना आयोगों में 31 दिसंबर 2013 तक 1.98 लाख से ज्यादा मामले लंबित हैं. मामलों के निबटारे की मौजूदा रफ्तार से सभी मामलों के निबटारे में मध्य प्रदेश में 60 साल और पश्चिम बंगाल में 17 साल लग सकते हैं. केंद्रीय सूचना आयोग में इस समय 32,533 मामले लंबित हैं.
2. सूचना आयुक्तों की कमी : सूचना आयुक्तों की नियुक्ति भी एक बड़ी चुनौती है. कानून के प्रावधानों के तहत प्रत्येक सूचना आयोग में 11 आयुक्त होने चाहिए. लेकिन केंद्रीय सूचना आयोग में इस समय सिर्फ सात सूचना आयुक्त हैं. पिछले दो महीनों से मुख्य सूचना आयुक्त का पद भी खाली पड़ा है. असम राज्य सूचना आयोग की वेबसाइट के मुताबिक, यहां मुख्य सूचना आयुक्त के साथ-साथ नौ सूचना आयुक्तों के पद रिक्त हैं.
मध्य प्रदेश, राजस्थान, सिक्किम, मेघालय जैसे राज्यों में सिर्फ एक-एक सूचना आयुक्त ही अभी है. तो वहीं गोवा, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मणिपुर, मिजोरम, नगालैंड, ओड़िशा और पश्चिम बंगाल में सिर्फ दो-दो सूचना आयुक्त ही नियुक्त हैं. छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु में आठ-आठ सूचना आयुक्तों के पद खाली हैं. तो वहीं गुजरात में रिक्त पदों की संख्या सात है. बाकी के राज्यों की हालत भी इससे बेहतर नहीं हैं.
3. टालू रवैया : जन सूचना अधिकारियों का रवैया आवेदनों को टालने वाला हो गया है. सूचना के अधिकार की धारा 6(3) के तहत आवेदनों को एक टेबल से दूसरे टेबल का चक्कर लगवाया जाता है, जिससे तय समय पर सूचना नहीं मिल पाती है. अपीलें भी नजरअंदाज कर दी जाती हैं. यही नहीं, सूचना देने से बचने के लिए लोक सूचना अधिकारियों और अपीलीय अधिकारियों की ओर से आरटीआइ कानून की धारा-8 का अपनी सहूलियत के हिसाब से तोड़ने-मरोड़ने के कई उदाहरण सामने आये हैं.
आरटीआइ कार्यकर्ता इसकी असल वजह आयोग द्वारा इन अधिकारियों पर कानून के प्रावधानों के तहत जुर्माना न लगाना मानते हैं. आरटीआइ से हासिल दस्तावेज बताते हैं कि जनवरी 2012 से दिसंबर 2013 तक पूरे देश में सिर्फ 3870 मामलों में ही जन सूचना अधिकारियों पर जुर्माना लगाया गया है.
4. अदालती दखल व राज्य की अधिसूचनाएं : विभिन्न अदालतों के आदेशों व राज्य सरकार की अधिसूचनाओं से भी आरटीआइ कमजोर हो रहा है. सूचना अधिकारी व आयुक्त इन अधिसूचनाओं व आदेशों का हवाला देकर सूचना देने से इनकार कर देते हैं. हाल के दिनों में गोवा उच्च न्यायालय व मद्रास उच्च न्यायालय का आदेश काफी चर्चा में रहा. हालांकि मद्रास उच्च न्यायालय ने अपने फैसले को वापस ले लिया है.
मध्य प्रदेश में राज्य सरकार ने अधिसूचना निकाल कर गृह विभाग के साथ-साथ कई विभागों को आरटीआइ के दायरे से बाहर कर दिया है. मध्य प्रदेश की आरटीआइ कार्यकर्ता रॉली शिवहरे बताती हैं कि जब उन्होंने राज्य के गृह विभाग में आरटीआइ आवेदन दिया तो जवाब में अधिसूचना की कॉपी के साथ बताया गया कि यह विभाग आरटीआइ के दायरे से बाहर है. कई राज्यों में फीस भी अलग-अलग वसूल की जाती है.
5. धारा-4 का पालन नहीं, स्टांप की कमी : सूचना के अधिकार की धारा-4 में हर सरकारी दफ्तर को 17 बिंदुओं पर स्वयं सूचना जारी करने का आदेश है, ताकि लोगों को आवेदन देने की जरूरत ही न पड़े. लेकिन अधिकतर मंत्रलयों व विभागों में इसका पालन नहीं हो रहा है. 9 साल पूरा होने के बाद भी कई विभागों ने अपनी वेबसाइट पर सूचना अधिकारियों के नाम तक नहीं डाले हैं, जिससे जन सूचना अधिकारी के नाम भेजे जाने वाले आवेदन स्वीकार ही नहीं किये जाते हैं और आवेदन वापस लौट आते हैं.
जानकार स्टांप की कमी को भी एक बड़ी चुनौती मानते हैं. महाराष्ट्र में कोर्ट स्टांप न मिलने के कारण लोग आरटीआइ के आवेदन दाखिल नहीं कर पा रहे हैं. डाकघरों में 10 रुपये का पोस्टल ऑर्डर देने में भी आना-कानी की जाती है. केंद्रीय सूचना आयोग की सिफारिशों के बावजूद डाक विभाग ने आरटीआइ के लिए अलग से स्टांप जारी नहीं किये हैं. आरटीआइ से मिली जानकारी बताती है कि पेपर की कमी की वजह से देश की दोनों सिक्युरिटी प्रिंटिंग प्रेस स्टांप नहीं छाप सकतीं.
(बीबीसी हिंदी डॉटकॉम से साभार)