तेल की धार और देसी-विदेशी बाजार

देश में पिछले पचास वर्षो में तेल के आयात में अस्सी गुना से अधिक की वृद्धि हुई है. फिर अस्सी गुना अधिक तेल बेचनेवाली सरकारों को घाटा कैसे होने लगा? क्या आपने कभी सुना है कि तेल कंपनियों का दीवाला निकल गया? लेकिन जनता का कचूमर तो निकल रहा है! तेल कंपनियों के लिए एक […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 16, 2014 4:56 AM
देश में पिछले पचास वर्षो में तेल के आयात में अस्सी गुना से अधिक की वृद्धि हुई है. फिर अस्सी गुना अधिक तेल बेचनेवाली सरकारों को घाटा कैसे होने लगा? क्या आपने कभी सुना है कि तेल कंपनियों का दीवाला निकल गया? लेकिन जनता का कचूमर तो निकल रहा है!
तेल कंपनियों के लिए एक जोरदार ताली बजा दें, क्योंकि उन्होंने मंगलवार की आधी रात से पेट्रोल की कीमत एक रुपया प्रति लीटर कम कर दी है. पक्की बात है कि इस फैसले पर ढोल पीटे जायेंगे, उतना ही जितना कि महंगाई दर के गिरने को लेकर सरकार अपनी पीठ ख़ुद ही ठोक रही है. पचास रुपये किलो आलू और पचास रुपये पाव नींबू खरीदनेवाली देश की आम जनता चकित है कि आखिर कौन सी चीज सस्ती हुई. सरकार कह सकती है कि हमने पेट्रोल एक रुपया सस्ता कर दिया, इसलिए महंगाई दर न्यूनतम स्तर पर है. यह ठीक है कि 2014 में पेट्रोल की कीमतें पांच बार घटी हैं.
अगस्त में तीन बार और अक्तूबर में दो बार. लेकिन, अंतरराष्ट्रीय बाजार में क्रूड तेल की कीमतें जिस तेजी से गिरती चली गयीं, उसके अनुपात में यहां पेट्रोल की कीमतें दिखावे भर के लिए कम की गयीं. 2006 के बाद अब डीजल के दाम भी शायद पहली बार घटाये जायें. देश में डीजल की अंडर रिकवरी खत्म हो गयी है, इससे सरकारी कंपनियों को दो रुपये प्रति लीटर का मुनाफा हो रहा है.
ओएनजीसी, गेल, एचपीसीएल, बीपीसीएल, आइओसी, एमआरपीएल, चेन्नई पेट्रो में निवेश करनेवालों की बल्ले-बल्ले है. जब तक डीजल की कीमतें कम करने की घोषणा होगी, तब तक निवेशक और कंपनियां अपने वारे-न्यारे कर चुकी होंगी.
पिछले डेढ़ महीने से अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें लगातार गिर रही हैं, लेकिन भारत में पेट्रोल-डीजल की कीमत कम करनेवाली कंपनियां कुंभकरण की नींद से अब जागी हैं. चुनावों में यह मुद्दा नहीं बना कि सरकार पेट्रोलियम की कीमतें क्यों नहीं घटा रही है.
विमान में इस्तेमाल होनेवाले इंधन ‘एटीएफ’ की कीमतों में गिरावट की संभावना भी व्यक्त की जा रही है, लेकिन क्या इससे एयरलाइंस कंपनियां टिकटों की कीमत कम करेंगी? कच्चे तेल की घटती कीमतों का फायदा पेंट बनानेवाली कंपनियों से लेकर पीवीसी और बैग बनानेवाले कारखानों तक को हो रहा है, किंतु दाम कम करने के सवाल पर सबने चुप्पी साध रखी है.
आम तौर पर मध्य-पूर्व में एक बम फटने पर तेल की कीमतें आसमान छूने लगती हैं और सरकारें तेल संकट की दुहाई देने लगतीं हैं; लेकिन इस बार नदी की धारा उल्टी बह रही है. सीरिया और इराक लगातार हिंसा और युद्घ की चपेट में हैं. तब भी तेल की कीमतें लगातार गिरती गयीं.
एक आकलन यह भी है कि इराक के तेल कुओं से जो कच्चा तेल आइसिस आतंकी निकाल रहे हैं, उसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में वे पानी के भाव बेच रहे हैं. दूसरी थ्योरी यह है कि तेल खरीदनेवाले कम होते जा रहे हैं और उत्पादन करनेवालों में होड़ लग गयी है. अमेरिका हर महीने तेल का उत्पादन बढ़ाये जा रहा है. ‘यूएस एनर्जी प्रोडक्शन एडमिनिस्ट्रेशन’ का आकलन है कि अमेरिका 2015 आते-आते 90 लाख 30 हजार बैरल तेल का दोहन रोजाना करने लगेगा, जिसे आप रिकॉर्डतोड़ प्रोडक्शन कह सकते हैं. सितंबर, 2014 में सऊदी अरब ने हर रोज एक लाख अरब बैरल अतिरिक्त तेल का उत्पादन आरंभ कर दिया था. लीबिया ने तो हद ही कर दी थी, उसने हर रोज तय सीमा से अधिक पांच लाख बैरल तेल निकालना शुरू कर दिया था.
अल्जीरिया, अंगोला, इक्वाडोर, ईरान, इराक, कुवैत, लीबिया, नाइजीरिया, कतर, सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात और बेनेजुएला जैसे बारह तेल उत्पादक देशों का संगठन ‘ओपेक’ ने भी रोजाना चार लाख बैरल अतिरिक्त कच्चा तेल निकालना आरंभ कर दिया है. यानी दुनियाभर के तेल उत्पादक देशों में होड़ लग गयी है कि कौन कितना ज्यादा कच्चे तेल का दोहन कर सकता है.
लेकिन, दूसरी तसवीर यह है कि तेल के उपभोक्ता अपनी जरूरतों में लगातार कटौती कर रहे हैं. अमेरिका के एनर्जी डिपार्टमेंट ने जानकारी दी है कि दुनिया के औद्योगिक देशों ने 2014 के मध्य तक दो लाख बैरल रोजाना के हिसाब से तेल के खर्चे में कमी कर दी है. अमेरिकी उपभोक्ता 2013 तक रोज पांच लाख बैरल तेल खर्च करते थे, किंतु इस साल अमेरिकी रोजाना 40 हजार बैरल कम तेल खर्चने लगे हैं. चीन में तो बाहर से मंगानेवाले तेल पर निर्भरता 60 प्रतिशत कम हो गयी है. इससे दुनियाभर के शेयर बाजार में कच्चे तेल में पैसे लगानेवाले हाथ तंग होने लगेंगे.
डॉलर के मुकाबले रुपये के अच्छे दिन अब भी नहीं आये. अंतरराष्ट्रीय बाजार में ईरान ही एक मात्र अपवाद है, जहां से भारत को कच्चा तेल डॉलर में नहीं, रुपये में खरीदने की सुविधा मिली हुई है. अकेले ईरान, भारत के कुल आयात का 12 प्रतिशत तेल आपूर्ति करता रहा है. भारत इस समय घरेलू आवश्यकताओं को पूरी करने के 80 प्रतिशत कच्चे तेल का आयात करता है. इसके लिए दुनिया के 30 देश भारत को तेल बेचते हैं.
अंतरराष्ट्रीय बाजार से तेल खरीदने के लिए अमूमन डॉलर, यूरो, सोना और ऑयल बांड की आवश्यकता पड़ती है. डॉलर रिजर्व के मामले में भारत पूरी दुनिया में नौवें स्थान पर है, जबकि चीन पहले स्थान पर. भारत के पास सितंबर, 2014 तक 3,14,182 मिलियन डॉलर रिजर्व मुद्रा के रूप में जमा है.
भारत को हर माह लगभग साढ़े दस अरब डॉलर तेल आयात पर खर्च करना होता है. 12 सितंबर, 2014 से 12 अक्तूबर, 2014 तक भारत ने 10,063,918,368 डॉलर के कच्चे तेल आयात किये थे. मतलब, भारत के पास 33 महीने के लिए डॉलर रिजर्व मुद्रा के रूप में जमा है.
तेल का आयात करनेवाली भारतीय कंपनियां रिजर्व बैंक के माध्यम से ऑयल बांड और डॉलर खरीदती हैं और फिर उससे उन देशों को भुगतान किया जाता है, जहां से तेल आता है. डॉलर के मुकाबले रुपये की कीमत गिरी है, तो इसका लाभ भी रिजर्व बैंक को हुआ है. इसे ध्यान में रखना होगा कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने ही पेट्रोल को खुले बाजार में लाने का निर्णय लिया था.
2015 तक शायद डीजल भी खुले बाजार में आ जायेगा. 1960-61 में भारत मात्र आठ लाख टन पेट्रोलियम का आयात करता था. 2011 में कच्चे तेल का आयात बढ़ते-बढ़ते 172.11 एमएमटी हो गया. आशय यह कि पचास वर्षो में तेल के आयात में अस्सी गुना से अधिक की वृद्घि हुई है.
फिर अस्सी गुना अधिक तेल बेचनेवाली सरकारों को घाटा कैसे होने लगा? क्या आपने कभी सुना है कि तेल कंपनियों का दीवाला निकल गया? लेकिन जनता का कचूमर तो निकल रहा है! महंगाई कम करने के लोक-लुभावन नारों के बीच देश का आम आदमी ख़ुद को ठगा हुआ महसूस कर रहा है.
पुष्परंजन
संपादक, ईयू-एशिया न्यूज

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