..नहीं तो गधे पंजीरी खाते रहेंगे

भ्रष्टाचार मिटाना है, तो वहीं से शुरू करो जहां खड़े हो. गांधी के अलावा किसी ने मुल्क को और इसके अंदर के इंसान को पहचाना ही नहीं. आज फिर गांधी की जरूरत है. वरना गधे पंजीरी खाते रहेंगे और जरूरतमंद भूखा मरता रहेगा. यह हद थी उसके हुदहुद की. बैताली की नीम गिर गयी. सो […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 17, 2014 11:51 PM
भ्रष्टाचार मिटाना है, तो वहीं से शुरू करो जहां खड़े हो. गांधी के अलावा किसी ने मुल्क को और इसके अंदर के इंसान को पहचाना ही नहीं. आज फिर गांधी की जरूरत है. वरना गधे पंजीरी खाते रहेंगे और जरूरतमंद भूखा मरता रहेगा.
यह हद थी उसके हुदहुद की. बैताली की नीम गिर गयी. सो तो ठीक था, लेकिन वह अपनी हद के बाहर जाकर क्यों गिरी, वरना समरजीत सिंह का इंडिया मार्का नल क्यों झुकता. बिलकुल फर्शी सलाम की तरह नलके का हत्था ऊपर उठा है और नलका बीच कमर के पास से झुक कर टूट गया है. हुदहुद का यह नया टंटा है, जो अलसुबह समरजीत और बैताली के बीच चालू हो गया. उधर सैफुनिया हुदहुद की सात पुश्त पर चढ़ी बैठी है. गरियाये जा रही है- हुदहुदा के माई के सियार ले जाये.. उसकी असल दिक्कत है कि उसके तीनों बच्चे आज क्या खायेंगे? छिनरौवाला पंडित पहले से ही इस ताक में बैठा रहता है, कब मौका मिले औ कब स्कूल बंद करे. आज घूम-घूम के कह गया कि हुदहुद है, स्कूल बंद रहेगा. लेटे-लेटे कयूम चचा ने रोका भी- इ हुदहुद के है भाई? बूंदाबांदी जारी रही. नवल उपाधिया जनम के मुरहा पानी से बचने वास्ते मोटी कलवार के ओसारे में साइकिल समेत खड़े हैं- का रे सैफुनिया तोके का भवा. बस इतना सुनना था कि सैफुनिया चालू- कुल मौसम सुने रहे, मुला आज ये मुआ हुदहुद कहां से आ गिरा. लड़िकवे स्कूल कैसे जइहैं? औ न जइहैं त खइहैं का. एक कमरा क घर, ऊपर से चुअनी छत. दुय परानी हम, तीन इ माटी मिले लौंडे, तीन कबरी बकरी. चूल्हा-चक्की, खटिया-बिछावन.. ई हुदहुद में गुजारा कैसे होयी. दुपहरे क खाना स्कूल में मिलत रहा. कुल राशन पंडित के खीसे में.
चौराहा गुलजार है. सारे मेंबरान अपनी-अपनी जगह अपनी-अपनी खबर के साथ मौजूद हैं. बैताली और समरजीत सिंह के बीच के मुकदमे का फैसला हो चुका है, दोनों पक्ष राजी हैं और खुश हैं. नीम की जो डाल इंडिया मार्का पर गिरी है, वह समरजीत को मिल गयी. बैताली खुश कि नीम की कटाई बची, पुलिस के घूस से बचे. अब तो सीधा सा जवाब है.

पेड़ किसने काटा? हुदहुद ने. कहो लखन भाई, खोजे हुदहुद को? जोर का ठहाका लगा. जो लोग अब तक इसे हथिहा नक्षत्र का भूय लोटन बरखा मान रहे थे, आंधी-पानी समझ रहे थे, वे चौंके बैठे हैं- इसे कहते हैं हुदहुद! खबर बनी कि हुदहुद भी कोई मौसम है. खबर दो बनी कि सैफुन फुआ के लड़िके आज खायेंगे क्या. अनवार फूफा तो किसी भी दिन अपने घर नहीं खाते, कोई न कोई उन्हें खिला देता है, एवज में किस्सा तोता-मैना सुन लेता है. का हिंदू का मुसलमान अनवार सबके फूफा हैं और सैफुन फुआ. लेकिन लड़के पता नहीं किसको पड़े हैं कि पेट ही नहीं भरता. खाने के बाद ससुरे घूम-घूम के गरियाते हैं. भोला दुबे ने कहा- लड़कों के लिए पंजीरी का इंतजाम हो जाये.

पंजीरी? किसके घर बनी है भाई? लाल्साहेब की आंख गोल हो गयी. उमर दरजी ने टुकड़ा जोड़ा- ये लो दुनिया जहान की खबर इन्हें रहती है, लेकिन इत्ता भी नहीं मालूम कि पंजीरी का है. भोला ने दस्तावेज खोला- सरकार केवल गेहूं-चावल ही नहीं बांटती, पंजीरी भी देती है बच्चों के लिए. हर गांव में आंगनबाड़ी है वहां आता है.

लेकिन हमने तो देखा नहीं, लखन कहार ने मुंह घुमा कर पूछा. वह पंजीरी रात में बिकती है, पहले तो इसे भैंस वाले खरीदते रहे, अब गबरू भी खरीदने लगा है, जिसके पास कोई दुधारू जानवर नहीं है. लखन कहार ने अपने पड़ोसी की खबर को बता दी. भोला ने नया खुलासा किया- गबरू के पास जो गधा है, वह बगैर पंजीरी के कुछ भी नहीं खाता. तो तय हुआ कि गबरू के घर से पंजीरी मंगायी जाये, जिससे सैफुन फुआ का मुंह तो बंद हो.

शिक्षा नीति और भ्रष्टाचार जेरे बहस है. मंच पर मद्दू पत्रकार हैं- सरकार को हम खुल कर गरियाते हैं चोर है भ्रष्ट है. लेकिन गांव की स्थिति देखो. बच्चों का भोजन तक प्रधान, अध्यापक और नौकर मिल कर खा रहे हैं. स्कूल में दस भी लड़के नहीं, पचास का आंकड़ा दिया जा रहा है. बच्चों के कपड़े, उनको मुफ्त में मिलनेवाली किताब सब औने-पौने दाम पर बेची जा रही है. और जो लोग यह काम करते हैं, वही जोर-जोर से सरकार को गरियाते हैं. सब इतना गड्ड-मड्ड हो गया है कि सुधरने की कोइ गुंजाइश ही नहीं दिखती. कयूम ने हामी भरी. जे बात तो सही है. दुखरन मिसिर क नाती मांटेसरी में पढ़ता है. एक दिन वो महुआ क पत्ता लिए आया औ पूछा चचा यह किसका पत्ता है. इ हाल है.
अब चिखुरी की बारी थी. गंदगी नीचे से बह रही है या ऊपर से, यह बहस का मुद्दा नहीं है. आज भ्रष्टाचार राष्ट्रीय सहूलियत बन चुका है. इसे मिटाना है, तो वहीं से शुरू करो जहां खड़े हो. हमें अपने आप से लड़ना है. गांधी के अलावा किसी ने मुल्क को और इसके अंदर के इंसान को पहचाना ही नहीं. आज फिर गांधी की जरूरत है. वरना गधे पंजीरी खाते रहेंगे और जरूरतमंद भूखा मरता रहेगा.. तभी नवल ने सूचना दी, हुदहुद गया. पूरब से आसमान साफ हो रहा बा..
जय हो पंचो कहते हुए नवल ने साइकिल उठा ली- जा रे जमाना, गधे पंजीरी का भोग लगा रहे हैं, गबरू मकई क ठेंठी पकड़े बैठा बा..
चंचल
सामाजिक कार्यकर्ता
samtaghar@gmail.com

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