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क्यों हर किसी को मात दे रहे हैं मोदी?

प्रधनामंत्री मोदी बिना किसी बैग-बैगेज को लेकर पीएम बने हैं, तो वह हर दबाव से मुक्त हैं, इसलिए एलान करते वक्त वे नायक भी हैं और एलान पूरे कैसे-कब होंगे, इसके लिए कोई ब्लू प्रिंट ना होने के कारण खलनायक भी हैं. नरेंद्र मोदी जिस राजनीति के जरिये सत्ता साध रहे हैं, उसमें केंद्र की […]

प्रधनामंत्री मोदी बिना किसी बैग-बैगेज को लेकर पीएम बने हैं, तो वह हर दबाव से मुक्त हैं, इसलिए एलान करते वक्त वे नायक भी हैं और एलान पूरे कैसे-कब होंगे, इसके लिए कोई ब्लू प्रिंट ना होने के कारण खलनायक भी हैं.

नरेंद्र मोदी जिस राजनीति के जरिये सत्ता साध रहे हैं, उसमें केंद्र की राजनीति हो या क्षत्रपों का मिजाज, दोनों के सामने ही खतरे की घंटी बजने लगी है कि उन्हें या तो पारंपरिक राजनीति छोड़नी पड़ेगी. क्योंकि बीते छह दशक की चुनावी राजनीति में जीत-हार को कभी राजनीतिक तौर तरीके बदलने के दायरे में रखा नहीं गया. लेकिन पहली बार अपने बूते देश की सत्ता पर काबिज होने के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने जिस तेवर के साथ गांव, किसान, मजदूर से लेकर कॉरपोरेट और औद्योगिक घरानों को भी मेक इन इंडिया से जोड़ने की बात कही और राज्य के चुनाव का एलान होते ही महाराष्ट्र और हरियाणा के गली-कूचों में रैली करनी शुरू की, उसने अरसे बाद बदलती राजनीति के नये संकेत तो दे ही दिये. यानी नेता सत्ता पाने के बाद सत्ता की ठसक में न रह कर सीधे संवाद बनाना ही होगा और विकास की परिभाषा को जाति या धर्म में बांटने से बचना होगा.

लोकसभा चुनाव के बाद महाराष्ट्र और हरियाणा के चुनाव में हर बड़े राजनेता या राजनीतिक दल का संकट यही हो चला है कि वोटर अपने होने का एहसास नेताओं के बात में कर नहीं पा रहा है, जबकि मोदी वोटरों को जोड़ कर संवाद बनाने में लगातार जुटे हैं. क्षत्रपों की मुश्किल है कि वे जातीय समीकरण के आसरे वोट बैंक नहीं बना सकते हैं.

राजनीतिक गंठबंधन की मुश्किल है कि जीत के आंकड़ों का विस्तार सिर्फ राजनीतिक दलों के मिलने से संभव नहीं होगा. और ये तीनों आधार तभी सत्ता दिला सकते हैं, जब देश के सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को समझते हुए राजनीति की जाये. ध्यान दें तो नरेंद्र मोदी ने बेहद बारीकी से अपने भाषणों में उस आर्थिक सुधार को ही निशाने पर लिया है, जिसने मंडल-कमंडल की राजनीति को बदला. जिसने भारत को बाजार में बदल दिया. लेकिन राजनीतिक तौर-तरीके अब बदलने शुरू हो गये हैं. क्योंकि कांग्रेस ही नहीं, बल्कि शरद पवार हों या चौटाला, उद्धव ठाकरे हों या फिर यूपी-बिहार के क्षत्रप, ध्यान दें तो बीते बीस-तीस बरस की इनकी राजनीति में कोई अंतर आया नहीं है. जबकि इस दौर में दो पीढ़ियां वोटर के तौर पर जन्म ले चुकी हैं, जिसे साधने में मोदी मास्टर साबित हो रहे हैं.

एक सवाल, क्या शरद पवार और ओम प्रकाश चौटाला की राजनीतिक पारी खत्म? इस सवाल पर आखिरी मुहर तो 19 अक्तूबर को लग ही जायेगी. लेकिन अब नया सवाल यह है कि महाराष्ट्र में शरद पवार की विरासत थामे बेटी सुप्रिया सुले हों या फिर भतीजे पवार, हरियाणा में ताउ यानी देवीलाल का नाम लेकर ओम प्रकाश चौटाला के साथ तीसरी पीढ़ी के अभय और अजय चौटाला राजनीति कर रहे हैं और इनके देखते-देखते चौथी पीढ़ी दुष्यंत और दिग्विजय चौटाला भी सत्ता पाने के लिए जोड़-तोड़ कर रहे हैं, तो क्या इन्हें अब बदलना होगा? यह सवाल इसलिए बड़ा है, क्योंकि पवार और देवीलाल ने राजनीति साठ के दशक में शुरू की.

जबकि महाराष्ट्र की राजनीति हो या हरियाणा में राजनीति करने का अंदाज दोनों जगहों पर कोई फर्क नहीं आया. शरद पवार ने जिस पश्चिमी महाराष्ट्र से राजनीति शुरू की, वह इलाका गन्ने की खेती और चीनी फैक्ट्रियों के कारण ‘चाशनी की कटोरी’ कहा जाता रहा. और पहली बार शरद पवार के इसी गढ़ में शरद पवार का असर कम होता नजर आ रहा है. असर कम होने की सबसे बड़ी वजह कृषि मंत्री होकर भी बीते पांच बरस में पवार ने इस इलाके की तरफ पलट कर भी नहीं देखा. पवार अपने इलाके में ही नहीं, बल्कि महाराष्ट्र के वोटरों को यही एहसास दिलाते रहे कि उनका कद केंद्र में भी खासा बड़ा है और समीकरणों के आसरे उनकी राजनीति सबसे उम्दा है. नरेंद्र मोदी ने पवार की इसी साख पर सीधी चोट इस बार बारामती पहुंच कर की. यानी समीकरण बैठाने में माहिर पवार के सौदेबाजी की सियासत को खुले तौर पर ठेंगा दिखा कर मोदी ने यह तो तय कर दिया कि पवार की राजनीति की उल्टी गिनती शुरू हो गयी.

जाट और अहिर की सियासत तले चौटाला की सियासत को भी न्यूनतम जरूरत तले जिस बारीकी से मोदी ने ला खड़ा किया, उसने हरियाणा में भी संकेत दे दिया है कि अब खाप पंचायत, चौपाल और जातीय समीकरण के आसरे हरियाणा की सियासत को बांधा नहीं जा सकता है.

इसलिए महाराष्ट्र हो या हरियाणा, दोनों जगहों पर नरेंद्र मोदी ने तमाम राजनीतिक दलों के सामने खुद को खलनायक करार करवा कर उस वोटर के जेहन में अपने को नायक बना दिया, जो पवार और चौटाला सरीखी राजनीति से ऊब चुकी थी. सत्ता संभालने के 140 दिनों के भीतर बतौर पीएम एलानों की झड़ी जिस अंदाज में कालाधन, गंगा सफाई, जजों की नियुक्ति, जनधन योजना, इ-गवर्नेस, स्किल इंडिया, डिजिटल इंडिया, मेक इन इंडिया, आदर्श गांव, स्वच्छ भारत और श्रमेव जयते की लगायी, उससे संदेश यही गया कि कमोबेश हर तबके के लिए कुछ ना कुछ है. मोदी ने हर नारे के आसरे पिछली सरकारों के कुछ न करने पर अंगुली उठा कर अपनी तरफ उठनेवाली हर अंगुली को भी रोका. अब सवाल है कि नारों की जमीन क्या वाकई पुख्ता है या फिर पहली बार प्रधानमंत्री खुद ही विपक्ष की भूमिका निभाते हुए हर तबके की मुश्किलों को उभार रहे हैं और कुछ करने के संकेत दे रहे हैं.

ध्यान दें, तो कांग्रेस अभी भी खुद को विपक्ष मानने के हालात में नहीं आयी है. हो सकता है कि प्रधनामंत्री मोदी बिना किसी बैग-बैगेज को लेकर पीएम बने हैं, तो वह हर दबाव से मुक्त हैं, इसलिए एलान करते वक्त वे नायक भी हैं और एलान पूरे कैसे-कब होंगे, इसके लिए कोई ब्लू प्रिंट ना होने के कारण खलनायक भी हैं. लेकिन दोनों स्थितियों में विपक्ष किसी भूमिका में है ही नहीं. शायद इसीलिए जब मजदूरों के लिए श्रमेव जयते का जिक्र मोदी करते हैं, तो यह हर किसी को अनूठा भी लगता है. लेकिन, मौलिक सवाल और कोई नहीं, आरएसएस की शाखा बीएमएस यह कह कर उठाती है कि मजदूरों की मौजूदगी के बगैर श्रमेव जयते का मतलब क्या है. असल खेल यही है कि संघ परिवार ही मोदी की उस सियासत को साधेगा, जिस सियासत में होनेवाले हर ऐलान की जमीन पोपली है. संघ चाहता है कि मोदी पोपली जमीन को भी पुख्ता करते चलें. तो संकेत साफ है, पहली बार मोदी को राजनीतिक चुनौती देनेवाला या चुनौती देते हुए दिखायी देनेवाला भी कोई नहीं है, इसलिए अब मोदी बनाम आल की थ्योरी तले गंठबंधन के आसरे चुनावी जीत की बिसात को ही हर राज्य, हर राजनीतिक दल देख रहा है. और यही नरेंद्र मोदी की जीत है.

पुण्य प्रसून वाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
punyaprasun@gmail.com

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