झारखंड में भी नैया मोदी भरोसे

बिना झामुमो के कांग्रेस का बेड़ा पार नहीं होनेवाला. वहीं चुनाव परिणाम से उत्साहित भाजपा झारखंड चुनाव में अब बगैर जोखिम लिये, बगैर तालमेल किये, बगैर मुख्यमंत्री का नाम तय किये, सिर्फ मोदी के नाम पर अकेले मैदान में भाग्य आजमा सकती है. महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को जिस प्रकार की सफलता मिली है, […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 19, 2014 11:54 PM

बिना झामुमो के कांग्रेस का बेड़ा पार नहीं होनेवाला. वहीं चुनाव परिणाम से उत्साहित भाजपा झारखंड चुनाव में अब बगैर जोखिम लिये, बगैर तालमेल किये, बगैर मुख्यमंत्री का नाम तय किये, सिर्फ मोदी के नाम पर अकेले मैदान में भाग्य आजमा सकती है.

महाराष्ट्र और हरियाणा में भाजपा को जिस प्रकार की सफलता मिली है, उससे यह बात साफ हो गयी है कि मोदी का जादू अभी काम कर रहा है. हरियाणा में अपने बल पर भाजपा को बहुमत मिला है, जबकि महाराष्ट्र में वह पहली बार सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है. कुछ माह पहले जब बिहार व यूपी के उपचुनाव के नतीजे आये थे, तो भाजपा को झटका लगा था. तब सवाल उठा कि लोकसभा चुनाव में मोदी का जो जादू चला था, वह राज्यों के चुनाव में नहीं चलेगा. लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपने दम पर सफलता मिलने के बाद भाजपा का एक वर्ग राज्यों में भी अपने बूते लड़ने का पक्षधर रहा है. इन दोनों राज्यों के चुनाव परिणाम का असर झारखंड में होनेवाले चुनाव पर भी पड़ेगा, जहां दो महीने के अंदर विधानसभा के चुनाव होने हैं.

महाराष्ट्र में 35 साल बाद भाजपा बगैर शिवसेना के उतरी थी. भाजपा को भले ही पूर्ण बहुमत नहीं मिला हो, लेकिन लगभग सवा सौ सीटें लाना और सबसे बड़ी पार्टी बनना उपलब्धि रही. 1990 से अब तक भाजपा 65 सीट का आंकड़ा पार नहीं कर सकी थी. इसलिए यह तय है कि अब मजबूत मनोबल के साथ भाजपा झारखंड चुनाव में उतरेगी. शिवसेना मजबूत क्षेत्रीय पार्टी है. उसका अपना आधार है. 1990 के चुनाव से वह क्रमश: 52 (1990), 73 (1995), 69 (1999), 62 (2004), 44 (2009) सीटें जीतते रही है. शिवसेना भी कभी सौ का आंकड़ा पार नहीं कर सकी. भाजपा के साथ रह कर भी नहीं, लेकिन इस चुनाव में जब भाजपा और शिवसेना ने अलग-अलग चुनाव लड़ा, तो भाजपा की सीटें बहुत बढ़ गयीं. साफ है कि मोदी के नाम पर वोट मिले हैं. हरियाणा में भी भाजपा पहली बार सत्ता में आयी है.

शिवसेना के साथ गंठबंधन भाजपा ने तोड़ लिया था. वह देखना चाहती थी कि महाराष्ट्र में उसकी असली ताकत क्या है. भाजपा भी यह जानती थी कि अपने बूते वहां बहुमत लाना मुश्किल है. इसलिए उसने शिवसेना के लिए दरवाजा हमेशा के लिए बंद नहीं किया. चुनाव में शिवसेना के खिलाफ नहीं बोलना मोदी की रणनीति का हिस्सा था. साफ है कि भाजपा अब यही चाहती है कि हर राज्य में चुनाव अकेले लड़े, मोदी के नाम पर लड़े, लेकिन सहयोगियों के लिए रास्ता खोल कर भी रखे, ताकि जरूरत पड़ने पर चुनाव बाद सहयोग लिया जाये. भाजपा किसी भी हालत में कांग्रेस या यूपीए को मौका नहीं देना चाहती. वह इस बात पर भी ध्यान दे रही है कि अब भविष्य में भी गंठबंधन से परहेज करते हुए उसको अपने बूते सरकार बनाने की तैयारी करनी होगी.

अकेले लड़ने के बावजूद शिवसेना बहुत घाटे में नहीं रही है. लगभग यही हाल झारखंड में झामुमो का रहा है. अपने क्षेत्र में झामुमो भी काफी मजबूत रहा है. अगर महाराष्ट्र में मराठी हित का मुद्दा शिवसेना का है तो झारखंड में झारखंडी का मुद्दा झामुमो का रहा है. आबादी व मतदाता के बढ़ने से अब समीकरण भी बदल रहे हैं. इसलिए क्षेत्रीय मुद्दे पर राजनीति करनेवाले दलों के अलावा भी अन्य दलों के लिए विकल्प उभर रहा है. इसी वोट बैंक पर भाजपा की नजर रही है. तमाम परिस्थितियों के बावजूद झारखंड में अभी झामुमो जैसी पार्टियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. मोदी की लहर के बावजूद शिबू सोरेन दुमका से जीते. 2000 के चुनाव में झामुमो ने 12 सीटें जीती थीं, लेकिन उसके बाद 2005 में उसे 17 और 2009 में 18 सीटें मिलीं. यानी विधानसभा चुनाव में झामुमो को बहुत फर्क नहीं पड़नेवाला. ऐसा भी नहीं कि वह अकेले 40-50 सीट ले आयेगा और यह भी नहीं होगा कि लहर के नाम पर झामुमो को चार-पांच सीटों पर समेट दिया जाये.

झारखंड में भाजपा अब अकेले चुनाव लड़ने की ओर बढ़ेगी. मोदी के नाम पर चुनाव लड़ने की वह पहले ही घोषणा कर चुकी है. लेकिन महाराष्ट्र की तर्ज पर भाजपा झारखंड में भी अपना एक सहयोगी रखेगी. यह सहयोगी आजसू हो सकती है या फिर जेवीएम. हो सकता है अंदर ही अंदर यह सहमति बने कि अलग-अलग भले ही लड़ें, लेकिन चुनाव बाद आगे की रणनीति तय करें.

भाजपा जानती है कि अकेले बहुमत लाना असंभव भले न हो, लेकिन कठिन है. इसलिए सीटें घटने की स्थिति के लिए भी वह रणनीति बना कर चलेगी. जहां तक कांग्रेस का सवाल है, तो वह महाराष्ट्र में अड़ गयी और एनसीपी से समझौता नहीं किया. उसका खमियाजा उसे भुगतना पड़ा. ऐसे में झारखंड में कांग्रेस एकला चलो के नारे पर शायद आगे नहीं बढ़े. राजनीतिक मजबूरी के तहत उसे गंठबंधन की ओर जाना ही पड़ेगा. कांग्रेस लाख दावा करे, लेकिन बगैर झामुमो के उसका बेड़ा पार नहीं होनेवाला. हरियाणा-महाराष्ट्र के चुनाव परिणाम से उत्साहित भाजपा झारखंड चुनाव में अब बगैर जोखिम लिये, बगैर मुख्यमंत्री का नाम तय किये, सिर्फ मोदी के नाम पर अकेले मैदान में भाग्य आजमा सकती है.

अनुज कुमार सिन्हा

वरिष्ठ संपादक

प्रभात खबर

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