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पटाखा उद्योग और पुराने नियम-कानून

अपने देश में पटाखा निर्माण से संबंधित कानून और उस पर अमल का इंतजाम इतना लचर है कि दिवाली के आसपास दीये का जलना जितना तय है, तकरीबन उतना ही तय लगता है पटाखा-फैक्ट्री में विस्फोट होना! कहानी हर बार एक सी रहती है- नियमों के पालन में लापरवाही के आरोप में जितनी पटाखा फैक्ट्रियां […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 22, 2014 1:43 AM

अपने देश में पटाखा निर्माण से संबंधित कानून और उस पर अमल का इंतजाम इतना लचर है कि दिवाली के आसपास दीये का जलना जितना तय है, तकरीबन उतना ही तय लगता है पटाखा-फैक्ट्री में विस्फोट होना! कहानी हर बार एक सी रहती है- नियमों के पालन में लापरवाही के आरोप में जितनी पटाखा फैक्ट्रियां बंद की जाती हैं, उससे ज्यादा साल भर में खुल जाती हैं. हम-आप हर साल लाचारी के भाव से खबर पढ़ते-सुनते हैं कि कुछ गरीब मजदूर पटाखा-फैक्ट्री में विस्फोट में मारे गये.

इस साल भी आंध्रप्रदेश के पूर्वी गोदावरी जिले के एक गांव की निजी फैक्ट्री में विस्फोट से 17 लोगों की मौत की खबर आयी है. 2012 में एक फैक्ट्री में इससे कहीं बड़ी दुर्घटना हुई थी, जिसमें 35 लोगों ने जान गंवायी थी. तब खबरें आयी थीं कि पटाखा निर्माण के लिए विख्यात दक्षिण भारत में इसकी महज 780 फैक्ट्रियां लाइसेंसशुदा हैं, जबकि इतनी ही तादाद में बिना लाइसेंस की फैक्ट्रियां बेखौफ चल रही हैं. कहने की जरूरत नहीं कि ऐसा प्रशासन की मिलीभगत से होता है.

भारत में पटाखा उद्योग का सालाना कारोबार करीब 2000 करोड़ रुपये का है और इससे करीब 4 लाख लोगों की जीविका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुई है. इस उद्योग के विकास की सालाना दर 10 फीसदी के आसपास है. पर, कारोबार एवं रोजगार के लिहाज से संभावनाशील इस उद्योग का नियमन आज भी 1884 के इंडियन एक्सप्लोसिव एक्ट और उसकी छाया में बने एक्सप्लोसिल रूल, 2008 के अंतर्गत होता है. विश्व में पटाखों का बाजार 7 अरब डॉलर का है और निर्माता चाहते हैं कि नियमों को आज की परिस्थितियों के अनुकूल बनाया जाये, ताकि वैश्विक बाजार में भारत का निर्यात 5 फीसदी से आगे बढ़े.

पटाखों के वैश्विक बाजार पर फिलहाल चीन का वर्चस्व है. भारत में भी चीन से वैध-अवैध तरीके से 500 करोड़ रुपये के पटाखे आते हैं. पटाखों की बढ़ती मांग ज्यादा उत्पादन के लिए उकसाती है, तो यह उकसावा जर्जर नियमों की अनदेखी के लिए बाध्य करता है. जाहिर है, ऐसे में जान हमेशा गरीब मजदूरों की ही जाती है. जब तक पटाखा-उद्योग का नियमन मौजूदा जरूरतों एवं वैश्विक मानकों के अनुकूल नहीं होगा, हम मजदूरों की जान से खिलवाड़ के समाचार पढ़ने को बाध्य होते रहेंगे.

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