।। नंद चतुर्वेदी ।।
लिछमी तेरे तीन नाम ‘परस्या, परसू, परसराम’
बचपन में मां एक गरीब आदमी की कहानी कहती थी. कहानी एक ऐसे गरीब आदमी की थी, जो धीरे-धीरे अमीर हो गया. गरीब आदमी ज्यों-ज्यों अमीर होता गया उसके नाम भी बदलते गये. मां ने कहा वह जब नितांत निर्धन था, न खाने के लिए अन्न था, न पहनने के लिए कपड़े, तब मोहल्ले वाले ‘परस्या’ नाम से बुलाते और उससे चाहा-अनचाहा मनोविनोद करते.
देखते-देखते ‘परस्या’ के दिन फिर गये. मेहनत-मजदूरी करके उसने कुछ कमा-धमा लिया. कमा-धमा लिया तो इज्जत-आबरू भी बढ़ गयी. अब उसे मोहल्ले में ‘परसू’, ‘परसू’ कहा जाने लगा. कुछ समय बाद ‘परसू’ की हैसियत बढ़ गयी, चेहरा-मोहरा चमकने लगा, तो देखा गया कि उसका नाम ‘परसू’ से बदल कर ‘परशुराम’ हो गया. मां ने कहानी का अंत
इस तरह किया ‘देखा बेटा लक्ष्मी कैसे-कैसे नाम बदल देती है.’ लिछमी तेरे तीन नाम ‘परस्या, परसू, परसराम’. मां से सुनी यह बोध-कथा इस संस्कृत के सुभाषित के साथ और अधिक मर्म-भेदी हो गयी है जिसके अनुसार सब गुण कंचन के अधीन कहे गये हैं ‘सर्वेगुण कांचनमाश्रयंति:’.
बेशक जिस दुनिया में हम रहते-बसते हैं, उसमें सारी महिमा, सारी रोशनी, सारा प्रभाव संपत्ति का ही नजर आता है और लगता है सारे क्लेश, सारे अंधेरे, सारे दुर्भाग्य निर्धनता के कारण हैं. महाभारत में गांधारी ने कृष्ण से कष्टों का वर्णन करते हुए निर्धनता को ‘कष्टातिकष्टम्’ कहा है. गांधारी ने वासुदेव से कहा, ‘‘वासुदेव! वृद्घावस्था कष्ट है, निर्धन जीवन भी कष्ट है, पुत्र-मृत्यु महाशोक है और भूख तो ‘कष्टातिकष्टंम’.
वासुदेव जरा कष्टम्, कष्टंम जीवन, निर्धनम्
पुत्र शोकं महाकष्टम्, कष्टातिकष्टंम् क्षुधा:
संपत्ति-संग्रह और त्याग के बारे में या कि संपत्ति की आभा और संपत्ति-विहीनता के अंधेरों के बारे में भारतीय मनीषा ने निरंतर विमर्श किया है. देखने की बात यह है कि इस विमर्श के निष्कर्ष ‘अतिवादी’ नहीं है. जिंदगी की रोशनी न संपदा के अकूत संग्रह में है और न निर्धनता की विवशताओं में. वह न संपत्ति के नशे में है और न संपत्ति-विहीनता के खंडहरों में.
वह उस तृप्ति में है जो न प्रभुता के मद में बेचैन रहती है और न दीनता में ज्वरग्रस्त. कहना चाहिए कि वह संतुलन की रोशनी तलाश करती है और उसकी छाया में बैठना चाहती है. इस संतुलन की पक्षधरता करने वाले कबीर हैं. क्षुधित भक्त से आग्रह करते हैं, कुछ खा-पी लो फिर नि:शंक होकर भजन करो. भूख को गाली देते हैं, कुतिया कहते हैं. एक दोहे में कहते हैं-
कबिरा क्षूधा कूकरी, करत भजन में भंग.
या को टुकड़ा डालि के, भजन करो नि:शंक॥
अर्थात् भूखी कुतिया बार-बार भजन में विघA डालेगी. पहले उस कुतिया को टुकड़ा डालो फिर नि:शंक होकर हरि स्मरण करो. दूसरी ओर धन संचय के मद में इतराये लोगों को जोर से कहते हैं-
कहा चुनाये भेड़ियां लांबी भींत पसार.
घर तो साढ़े तीन हथ, घनौ के पौने-वार॥
अर्थात् लंबी-चौड़ी दीवारें चुन-चुन कर क्या भेड़ियां बना रहा है? शरीर तो साढ़े तीन हाथ भर है ज्यादा से ज्यादा पौने चार का!
लक्षित करें कि संचय और त्याग की अतियों का निषेध करते कबीर भारतीय संस्कृति की उस विशेषता को रेखांकित करते हैं जो मनुष्य को विनाश से बचाती है. उसकी तरफ संकेत करते उनका एक दोहा इस तरह है-
जो जल बाढ़े नाव में, घर में बाढ़ै दाम.
दोनों हाथ उलीचिये यह सज्जन को काम॥
यदि नाव में जल बढ़ने लगे और घर में संपदा तो दोनों हाथों से जल को बाहर उलीच दो और संपदा को पुण्य कार्य में दान कर दो. स्पष्ट है कि जीवन-निर्वाह और गरिमा बचाये रखने के लिए संपदा-संचय से कोई गुरेज नहीं है, लेकिन यहीं उसकी मर्यादा है, इसके आगे निषेध की पत्रिका है. मर्यादा तोड़ने के अशुभ परिणामों को ‘पाप’ कह-कह कर ‘विवेक का राज-पथ’ बनाया गया है. स्मरण करें उस उपनिषद् की कथा का जिसमें देवता, दानव और मनुष्य ब्रह्मजी से शिष्टाचार भेंट करने जाते हैं, आशीर्वाद का आग्रह करते हैं.
ब्रह्म प्रसन्न होकर देवताओं से कहते हैं ‘दमन करो’, दानवों से ‘दया करो’ मनुष्यों से ‘दार करो’. विश्वास किया गया है कि विवेक ‘आत्म-निर्णय’ की शक्ति देता है. लेकिन संपत्ति-संचय की दिशा में ‘आत्म-निर्णय’ कमजोर और अविश्वसनीय रहा है. दुनिया भर की धर्म-संस्कृतियों ने संपदा के जादू से बचने के असंख्य आग्रह किये हैं, लेकिन संग्रह और लालच के कारण दीनता के द्वीपों की संख्या ही बढ़ती चली गयी है.
समृद्घि और दीनता को लेकर दुनिया में सबसे बड़ी बहस चल रही है! कई-कई मोहक और जादुई सिद्घांतों से उनके औचित्य को सिद्घ किया जा रहा है. ‘ईश्वर और भाग्य’ दोनों ने समृद्घिशालियों की पक्षधरता की है. आज भी समृद्घि का पक्ष भाग्यवाद और ईश्वर के नुमाइंदे यथावत् ले रहे हैं. दुनिया समृद्घि और दीनता के द्वीपों में बंट गयी है. सबसे बड़ा चमत्कार तो यह हुआ है कि समृद्घि ने अपना रूप ही बदल लिया है.
शताब्दियों तक जो अनुभव-गम्य, अदृश्य रही. जीवन-रस की तरह वह शरीर वाली हो गयी चमकता हीरा, फाइव स्टार हॉटल, एक अतुलनीय कार, चमकती सड़क, चुनौती देती प्रतिस्पर्धा, ईष्र्या. अर्थशास्त्रियों के लिए ‘विकास’. समृद्घिशालियों के लिए जंगल-जल-जमीन श्रमिकों का शोषण. भाषाशास्त्रियों के लिए मोहक शब्द माला-नव-उदारवाद निजीकरण, वैश्वीकरण इत्यादि. समृद्घि का अध्यात्म-समाप्त होकर उसका अर्थ होने लगा, बैंक-बैलेंस, काला-धन, लूट, घोटाला, घूस, अनुत्पादक पूंजी, संस्कृति का अर्थ होने लगा बाजार, अप-संस्कृति, देह, सम्मोहन. सारांश में मुट्ठी भर अमीर और उनके खरीदे हुए ‘सीइओ जनसंपर्क अधिकारी, ब्यूरोक्रेट्स, राज्याधिकारी इत्यादि जो इस शरीर वाली समृद्घि के बरक्स उस दीनता को न देखना चाहते हैं, न देखते हैं जो पीने के स्वच्छ पानी के लिए तरसती है, जिसके चलते नवजात शिशु रक्त-अल्पता के कारण अकाल मर जाते हैं, स्त्रियां देह-व्यापार करती हैं, युवक हिंसा-चोरी, हत्याएं करके अपनी सामाजिक उपस्थिति दर्ज कराते हैं.
अपनी इसी दीनता का बदला चुकाने के लिए युवा उन आतंकवादी संगठनों में शामिल होते हैं, जहां वे धर्म के लिए मर कर अपनी गुमनाम जिंदगी की सार्थकता प्रमाणित कर सकें.
समृद्घि का बेहद असंतोषजनक बंटवारा होता नजर आ रहा है, जिसका परिणाम वह व्यापक फैलती हुई हिंसा है जिसे तथाकथित सरकारें सेनाओं के बल से भी शांत करने में कामयाब नहीं होतीं. कुछ चुने हुए राजमार्ग, बहुमंजिली इमारतें, फाइव स्टार होटल और चुने हुए राजपुरुष सुरक्षित रोशनी वाले किलों में सुरक्षित अनुभव कर रहे हों, लेकिन गैर-बराबरी के अंधेरे की सुरंगें जब तक इसी तरह भयावह रहती हैं यह सवाल लगातार पूछा जाता रहेगा-कितनी दूर है रोशनी?