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जलते रहें कल्पवासियों के आकाशदीप

ज्ञात इतिहास में सिमरिया घाट पर पहली बार कुंभ सन् 2011 में स्वामी चिदात्मन के विशेष प्रयास से लगा था. उनके विवाद-रहित व्यक्तित्व और सांप्रदायिक-राजनीतिक सोच से विरत रहने के कारण वह कुंभ लोकप्रिय भी हुआ. कार्तिक मास आते ही देवकार्यो का तांता लग जाता है. धनवंतरि जयंती (धनतेरस), दीवाली से पहले यम को दीपदान, […]

ज्ञात इतिहास में सिमरिया घाट पर पहली बार कुंभ सन् 2011 में स्वामी चिदात्मन के विशेष प्रयास से लगा था. उनके विवाद-रहित व्यक्तित्व और सांप्रदायिक-राजनीतिक सोच से विरत रहने के कारण वह कुंभ लोकप्रिय भी हुआ.
कार्तिक मास आते ही देवकार्यो का तांता लग जाता है. धनवंतरि जयंती (धनतेरस), दीवाली से पहले यम को दीपदान, दीपावली की रात में लक्ष्मी-काली की पूजा, अगले दिन गोवर्धन पूजा यानी गोवंश का श्रृंगार, उसके बाद भ्रातृ द्वितीया के दिन भाई की पूजा, छठ के दिन सूर्य की पूजा का महापर्व, अक्षय नवमी की रात धातृ (आंवला) के नीचे भोजन और उसके बाद देवोत्थान एकादशी और इसी तरह के लोकपर्वो में कैसे मास बीत जाता है, ग्रामीणों को पता ही नहीं चलता.
इन्हीं दिनों मिथिलांचल की युवतियां ‘सामा चकेबा’ खेलती हैं, जो है तो पक्षियों की पूजा, मगर इसके बहाने उन्हें सूर्यास्त के बाद घर से निकल कर खेलने-कूदने और नाचने-गाने का अवसर मिल जाता है. जहां पूरे कार्तिक मास गांवों में दैविक पर्वो की गहमा-गहमी रहती है, वहीं ऐसे भी निर्लिप्त गृहस्थ हैं, जो इस मास घर से सिमरिया घाट आकर गंगातट पर कल्पवास करते हैं.
यह वह समय होता है, जब खेती का काम थोड़ा हलका हो जाता है और गंगा का निथरा जल भी सुबह-सुबह नहाने योग्य होता है. गंगा के किनारे कार्तिक मास में कल्पवास करने के लिए लोग अपनी घर-गृहस्थी की सुख-सुविधाओं को तिलांजलि देकर आते हैं और छोटी-सी फूस की झोपड़ी बना कर एक मास तक रहते हैं. यही है उपनिषद् के मंत्र ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा:’ की जीती-जागती लोक परंपरा, जो सदियों से सिमरिया घाट पर आकाशदीप की तरह जल रही है.
वैसे भी, कार्तिक में पितरों को मार्ग दिखाने के लिए गृहस्थों के घर से लेकर नदियों के घाटों पर आकाशदीप जलाने का विशेष माहात्म्य है. कल्पवास में दो बित्ते के घर में दो-तीन प्राणियों का सोना, भोजन बनाना, तुलसी चौरा बना कर सुबह-शाम पूजा करना-सब कुछ होता है. समय के साथ एक परिवर्तन यह हुआ है कि झोपड़ियों की जगह तंबुओं ने ले ली है, जो आसान भी है और किफायती भी. इसके बावजूद, आज भी बहुत-से संपन्न गृहस्थ हैं, जो झोपड़ी बना कर रहने में ही सहजता का अनुभव करते हैं.
राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का जन्म सिमरिया गांव में ही हुआ था. इस समय सिमरिया घाट का मेला जोरों पर है. मोकामा की ओर से गंगा पार कर घाट पहुंचने के लिए ऐतिहासिक ‘राजेंद्र पुल’ है, जो अभी दुरुस्त नहीं है. इसलिए उस पर बसों-ट्रकों का चलना प्रतिबंधित है. इन दिनों गंगा के दक्षिणी तट से उत्तरी तट पर बालू ढोने के लिए हजारों ट्रालियां लगी हुई हैं, जिसके कारण पुल पर दिन-रात जाम लगा रहता है और 13 किमी की दूरी तय करने में घंटों लग जाते हैं. परिवहन र्दुव्‍यवस्था ऐसी कि उस दूरी को नापने के लिए आपको पांच सौ रुपये भी टैक्सी वाले को देने पड़ सकते हैं. सिमरिया घाट का कार्तिक मास का कल्पवास उतना ही पुराना है, जितना प्रयाग के संगम तट का माघ मास का कल्पवास. मगर दोनों की प्रशासनिक व्यवस्था में बहुत अंतर है. यहां आकर आपको अनुभव हो जायेगा कि आप गंगा नहीं, वैतरणी नदी पार कर रहे हैं.
जो एक मास का मेला इस राज्य को दाय के रूप में मिला है, उसे यदि शासन द्वारा ठीक से संवार दिया जाये, तो यहां भी प्रयाग की भांति लाखों लोग मास करने आ सकते हैं. इससे स्थानीय ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति सुधरेगी. अभी भी, इस क्षेत्र में उपजी चीजें जैसे कोरहा, देसी जमाइन आदि बड़ी मात्र में बिक रही है. वस्तुस्थिति यह है कि पक्का घाट न बनने के कारण, बाढ़ के कटाव ने कई स्नान-घाट स्नानार्थियों के लिए जानलेवा हो गये हैं. इस बार, सरकार की खास पहल पर, कल्पवासियों में स्वास्थ्य चेतना ज्यादा दिख रही है.
जिस दिन कल्पवास शुरू हुआ, उसी दिन सिमरिया घाट के सर्वमंगला आश्रम में ‘विश्व वा्मय’ में वेद-विज्ञान की उपादेयता’ विषयक संगोष्ठी रखी गयी थी, जिसमें भारत और नेपाल के संस्कृत विद्वानों ने भाग लिया था. इसके कार्यकर्ताओं में मुसलिम युवकों की सहभागिता आह्लादकारी थी.
आश्रम के सूत्रत्मा स्वामी चिदात्मन जी गृहस्थ बैरागी हैं और अन्य नामी-गिरामी बाबाओं के विपरीत उनके जीवन और दिनचर्या का हर पहलू खुले पन्नों की तरह है. हजारों भक्तों की आस्था के केंद्र स्वामी चिदात्मन को मैंने आश्रम के बीचोबीच सीमेंट की बनी जिस चबूतरे पर दिन भर भक्तों से बातें करते देखा, उसी पीठ पर सायं-प्रात: संध्या-वंदन, पूजा-पाठ करते और रात में एक चादर ओढ़ कर सोते हुए भी देखा. जिस दौर में बाजार ने साधु-संतों को भी आत्म-प्रचार और भोग-विलास में जकड़ लिया है, उस दौर में ऐसा सहज-सरल जीवन वाले विरक्त साधु अपवाद ही हैं.
सिमरिया घाट पर कुंभ स्नान के लिए शास्त्रीय आधार तैयार करने और पीठाधीशों को इसके लिए सहमत कराने में उनकी भूमिका अग्रगण्य है. उनकी ‘अमृत कलश’ पुस्तक में द्वादश कुंभ स्थली प्रयाग, हरिद्वार, नासिक, उज्जैन, बदरीनाथ, गंगासागर, सिमरिया, जगन्नाथपुरी, कामाख्या, रामेश्वरम, द्वारका, कुरुक्षेत्र और कुंभकोणम का विस्तृत निरूपण किया गया है.
कल्पवास में उस क्षेत्र के गांवों मे फल-फूल रहे तमाम वैष्णव आश्रमों ने अपना तंबू गाड़ा है. सबने अपने भक्तों के लिए वास-स्थान अपने परिसर में दे रखा है. प्रात:काल सभी साधू अपने भक्तों के जत्थे के साथ प्रभातफेरी के बहाने जनबल का प्रदर्शन करते हुए गंगा-स्नान करते हैं. मिथिलांचल स्मार्तो और शाक्तों का गढ़ रहा है. वहां घर-घर भगवती का ‘सीरा’ पूजा जाता है और प्रथम मंगल गीत के रूप में महाकवि विद्यापति रचित ‘जय जय भैरवि’ गाया जाता है. सदियों से शाक्तपीठ रहने के कारण वहां वामाचार का भी काफी विकास हुआ था. संस्कृत विद्वानों द्वारा लिखी तंत्र-मंत्र की लाखों दुर्लभ पांडुलिपियां वहां गांव-गांव में पंडितों के घर में समुचित संरक्षण और ‘आरक्षण’ की प्रतीक्षा कर रही हैं.
नये दौर में, मिथिला में शक्तिपीठों के उत्तरोत्तर ह्रास और वैष्णव पीठों के उत्थान का इतिहास भी रोचक है. आज गांवों में राममार्गी वैष्णवों के आश्रम ज्यादा काम कर रहे हैं, यह मुझे सिमरिया घाट के मेले में घूमने से ही पता चला. यह मेला पूरे कार्तिक गुलजार रहेगा और कल्पवासियों के तंबू उखड़ने के साथ ही समाप्त हो जायेगा.
ज्ञात इतिहास में सिमरिया घाट पर पहली बार कुंभ 2011 में स्वामी चिदात्मन के विशेष प्रयास से लगा था. उनके विवाद-रहित व्यक्तित्व और सांप्रदायिक-राजनीतिक सोच से विरत रहने के कारण वह कुंभ लोकप्रिय भी हुआ. यहां कार्तिक में कुंभ लगने का नक्षत्रीय कारण सूर्य, गुरु और चंद्रमा का तुला राशि में एक साथ आना है. अगला कुंभ यहां 2017 में लगनेवाला है, जिसकी तैयारी अब शुरू हो जानी चाहिए.
डॉ बुद्धिनाथ मिश्र
वरिष्ठ साहित्यकार

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