क्या कभी वापस आयेगा कालाधन!

सिर्फ बयानों और नारों से नहीं आयेगा कालाधन नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा कार्यभार संभालने के तुरंत बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कालेधन की जांच के लिए विशेष जांच दल के गठन से यह उम्मीद बनी थी कि चुनावी वादे के अनुरूप यह सरकार इस मसले पर गंभीरता से कदम बढ़ायेगी. लेकिन पांच महीने बाद इस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 26, 2014 6:29 AM
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सिर्फ बयानों और नारों से नहीं आयेगा कालाधन
नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा कार्यभार संभालने के तुरंत बाद सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशानुसार कालेधन की जांच के लिए विशेष जांच दल के गठन से यह उम्मीद बनी थी कि चुनावी वादे के अनुरूप यह सरकार इस मसले पर गंभीरता से कदम बढ़ायेगी. लेकिन पांच महीने बाद इस दिशा में कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं हुई है. विदेशों में कालाधन रखनेवाले कुछ नामों को बताने में सरकार के संकोच और इस संबंध में सिर्फ राजनीति से यह मुद्दा कालेधन को वापस लाने और दोषियों को दंडित करने के उद्देश्य से भटक कर आरोप-प्रत्यारोप तक सिमट कर रह गया है. सरकारी और प्रशासनिक लापरवाही से दोषियों को चिह्नित करना तो दूर, अब तक कालेधन के आकार-प्रकार को लेकर भी अनिश्चितता बनी हुई है. इस मामले से जुड़े प्रमुख बिंदुओं पर एक चर्चा आज के समय में..
प्रोफेसर अरुण कुमार
अर्थशास्त्री, कालाधन मामलों के जानकार
कालाधन जमा करनेवाले नामों को उजगार कर देने भर से विदेशों में जमा कालाधन वापस नहीं आ पायेगा. नामों को उजागार करने के नाम पर मौजूदा केंद्र सरकार राजनीतिक-खेल खेल रही है. पूर्ववर्ती यूपीए सरकार भी कालेधन के मसले को लेकर पूरी तरह संशय की स्थिति में रही थी.
सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या कुछ नामों को उजगार करने मात्र से विदेशी बैंकों में जमा कालाधन कभी वापस आ सकेगा? मेरा मानना है कि ऐसे प्रयासों से यह मुमकिन नहीं है. राजनीतिक पार्टियां सिर्फ एचएसबीसी बैंक के 700 खाताधारकों और जर्मनी सरकार द्वारा सौंपे गये 126 नामों को ही उजागर करने की बात कर रही हैं. लाखों छोटे खाताधारकों के नामों को उजगार करने की बात कोई नहीं कर रहा है. वैसे भी अब इन विदेशी खातों में काफी कम पैसा बचा हुआ है.
भाजपा ने लोकसभा चुनाव के दौरान कालेधन के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया था. ऐसा लगता है कि भाजपा को इसकी पेचीदगियों के बारे में जानकारी नहीं थी. हमें यह ध्यान रखना होगा कि कालाधन गैरकानूनी तरीके से अजिर्त किया गया पैसा होता है. अधिक आमदनी और कालेधन में अंतर है. आज हालात यह है कि विदेशों में जमा कालाधन सिर्फ 10 फीसदी ही है, बाकी 90 फीसदी कालाधन देश के अंदर ही पैदा हो रहा है. आज कालाधन जीडीपी का 50 फीसदी हो गया है. मौजूदा समय में देश में 65 लाख करोड़ की काली अर्थव्यवस्था देश में फल-फूल रही है.
विदेश गये कालेधन में एक हिस्सा दूसरे रूपों में देश में वापस आ जाता है. कुछ हिस्सा लोग विदेश दौरे, बच्चों की पढ़ाई, इलाज और महंगी चीजें खरीदने पर करते हैं. उसी का एक हिस्सा लोग विदेशों में संपत्ति खरीदने पर निवेश कर देते हैं. केवल कुछ हिस्सा ही विदेशी बैंकों में जमा होता है. यह रकम विभिन्न अनुमानों से काफी कम है.
इस समय देश में कालेधन को लेकर जिस तरह की बहस हो रही है, उससे लगता है कि सरकार इस मामले में समझदारी नहीं दिखा रही है. विदेशी बैंकों के खाताधारकों की सही पहचान करना मुश्किल काम है. कई लोग फर्जी या दूसरे के नामों से पैसा जमा करते हैं. विदेशी बैंकों में लोग विभिन्न उपायों के जरिये पैसा जमा करते हैं. ऐसे लोगों को पकड़ने के लिए देश में ही धर-पकड़ करनी होगी.
हसन अली का मामला जगजाहिर है. वर्ष 2007 में कहा गया कि उसके खाते में 8 बिलियन डॉलर की रकम जमा है, लेकिन 2011 में तात्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने कहा कि हसन अली के खाते में महज 60 हजार डॉलर है.
कालेधन को वापस लाने में इतनी देर हो चुकी है कि सारा पैसा इधर से उधर हो गया. कुछ साल पहले आयकर विभाग ने कुछ लोगों को नोटिस जारी किया था, लेकिन इन लोगों ने अपना खाता होने से साफ इनकार कर दिया. स्विट्जरलैंड की सरकार कहती है कि भारतीयों के सिर्फ 14 हजार करोड़ रुपये ही जमा हैं. हमारी दिक्कत यह है कि सरकारें जनता को वास्तविक बात नहीं बताती हैं. कालेधन का मसला काफी पेचीदा है. वर्तमान में विदेशों से अधिक देश में ही कालाधन है. इस पर लगाम लगाने की बात सरकार नहीं करती है, क्योंकि यह चुनावी मुद्दा बन चुका है. 2009 में लालकृष्ण आडवाणी ने लोगों को बताया कि अगर सारा विदेशी काला धन वापस आ जायेगा, तो सभी गांवों को 11 करोड़ रुपये मिलेंगे. उसी तरह बाबा रामदेव अपना अलग आंकड़ा पेश करते रहे हैं. किसी को कोई वास्तविक जानकारी नहीं है.
आज भारत की सभी आर्थिक गतिविधियों में अवैध तरीके अपनाये जाते हैं और यह संस्थागत रूप ले चुका है. आर्थिक उदारीकरण के पहले विदेशी बैंकों में पैसा रखने की प्रवृत्ति अधिक थी, लेकिन 1991 के बाद इन स्थितियों में बदलाव आया और देश में ही कालेधन का प्रवाह बढ़ने लगा. भ्रष्टाचार का कालाधन से सीधा संबंध होता है. जिस तरह घोटालों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है, उसी तरह काली अर्थव्यवस्था का आकार भी बढ़ता जा रहा है. कालेधन का आकार देश के सकल घरेलू उत्पाद का करीब 50 फीसदी हो गया है, जो 60 के दशक में महज 3 फीसदी था.
1991 के बाद कॉरपोरेट घोटालों में भी वृद्धि हुई है. उदारीकरण के बाद घोटालों का दौर-सा शुरू हो गया. विभिन्न राज्यों में भूमि आवंटन में गड़बड़ी और जनवितरण प्रणाली के अनाज में धांधली, प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन में भ्रष्टाचार से देश में क्रोनी कैपिटलिज्म की व्यवस्था मजबूत हो गयी है. यह राज्य और केंद्र दोनों जगहों पर देखा जा सकता है. क्रोनी कैपिटलिज्म के कारण गवर्नेस का स्तर काफी गिर गया है. व्यवस्था ऐसी बन गयी है कि कोई भी काम बिना पैसे के हो ही नहीं सकता है.
सरकारें नहीं चाहती कि कालेधन के खाताधारकों के नाम उजगार हों. यही वजह है कि सरकार दोहरे कराधान संधि और अन्य नियमों का हवाला देती रहती है. अगर सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति से काम करे तो वह विदेशों में ही नहीं, बल्कि देश के अंदर कालेधन के बढ़ते प्रवाह को रोक पाने में सफल होगी. अमेरिका और कई अन्य देशों ने स्विट्जरलैंड की सरकार पर दबाव बना कर अपने नागरिकों द्वारा जमा कराये गये कालेधन को वापस हासिल कर इसे साबित किया है.
सरकार की सक्रियता के बिना कालाधन वापस लाना संभव नहीं है, क्योंकि यह दूसरे देशों से जुड़ा मसला है. यदि सरकार जल्द नहीं चेती, तो कालाधन की समानांतर अर्थव्यस्था और भी मजबूत हो जायेगी. इससे सरकार की मौद्रिक नीति ही नहीं, बल्कि विकास भी प्रभावित होगा.
विदेशी बैंकों में कालेधन को वापस लाने की कोशिश तो करनी चाहिए, लेकिन देश के भीतर मजबूत होती काली अर्थव्यवस्था पर तत्काल रोक लगाना सबसे जरूरी ही नहीं, बल्कि जनहित में होगा. इससे आम भारतीयों का जीवन स्तर सुधारने में मदद मिलेगी और देश में असमान विकास की जगह समग्र विकास की नीति को बल मिलेगा. सिर्फ बयानों और राजनीतिक नारों से कालाधन वापस नहीं आ सकता है.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
कालेधन को लेकर सरकार की मंशा पर उठ रहे सवाल
एन के सिंह
वरिष्ठ पत्रकार
अगर भारत में कालेधन पर अंकुश पिछले 45 वर्षो से लगाया गया होता, तो यहां रहनेवाला हर व्यक्ति सात गुना अमीर होता, यानी भारत दुनिया के मध्य वर्ग आय समूह के देशों में होता. उसकी आय 1,500 डॉलर से बढ़ कर 10,500 डॉलर या करीब 80 हजार रुपये से बढ़ कर 5.25 लाख रुपये होती. कहना न होगा कि गरीबी का यह विद्रूप चेहरा नहीं दिखाई देता. आज स्थिति यह है कि हर रोज जब एक गरीब रात में सोने जाता है, तो कोई 15 रुपया, जो उसके विकास में खर्च किया जा सकता था, कालेधन के रूप में विदेशी बैंकों में जा चुका होता है. एक अनुमान के अनुसार अगर कालेधन पर अंकुश लगा होता, तो देश के सकल घरेलू उत्पादन विकास दर (जीडीपी ग्रोथ रेट) हर साल पांच प्रतिशत अधिक होती.
स्थिति की भयावहता इससे जानी जा सकती है कि 1955-56 में, अर्थशास्त्री कारीडोर के अनुसार देश में कालाधन मात्र चार-पांच प्रतिशत था, जो 1970 में वांगचू समिति के आकलन के अनुसार सात प्रतिशत हो गया. 1980-81 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस के अनुसार यह प्रतिशत 18 से 20 हो गया. जाने-माने अर्थशास्त्री और कालेधन पर विशेष अध्ययन करनेवाले प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार 1995-96 आते-आते जीडीपी का 50 प्रतिशत कालेधन के रूप में परिवर्तित होने लगा, जो आज लगभग 60 प्रतिशत का आंकड़ा छूने लगा है. विदेशी बैंकों में इस कालेधन का 10 प्रतिशत जमा किया जाता है और एक आकलन के अनुसार, अब तक लगभग दो ट्रिलियन डॉलर (सवा करोड़ करोड़ रुपये) देश का काला धन विदेशी बैंकों में जमा हो चुका है.
विदेशों में छिपाया कालाधन लाने के मुद्दे पर केंद्र सरकार की मंशा पर उंगली उठने लगी है और इसकी आंच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक पहुंच सकती है. वित्तमंत्री अरुण जेटली का तर्क लोगों को रास नहीं आ रहा है.
उदाहरण के लिए स्विट्जरलैंड के साथ जिस डीटीएए (डायरेक्ट टैक्स एवॉयडेंस एग्रीमेंट) के अनुच्छेद 24 की बात कह कर वित्त मंत्री मोदी सरकार को भी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार के समकक्ष खड़ा कर रहे हैं, जनता के मन में शंका उत्पन्न होने लगी है कि वह एक गलत तर्क है. 72 लोगों में 17 ऐसे लोग हैं, जिन पर पहले से ही मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और उनके नाम उजागर करने में कोई अड़चन नहीं है. बाकी के 55 लोगों पर मुकदमे की प्रक्रिया शुरू करके इस अनुच्छेद के प्रावधानों को निरस्त किया जा सकता है. अनुच्छेद के पैरा (2) में है कि जननीति के तहत अगर किसी व्यक्ति पर मुकदमे की प्रक्रिया शुरू हो गयी है, तो उसका नाम उजागर किया जा सकता है.
क्या हुआ नरेंद्र मोदी का 100 दिन में कालेधन को विदेश से वापस लाने का वादा? क्या यह अनुच्छेद उस समय नहीं था, जब यह वादा किया गया था? क्या जब इसी आधार पर भारतीय जनता पार्टी यूपीए सरकार को कोस रही थी, तो यह अनुच्छेद नहीं पढ़ा गया था? जनता ने वोट मोदी को दिया है, लिहाजा सवाल भी उन्हीं से पूछे जायेंगे.
आज मुद्दा सिर्फ इतना हीं नहीं है कि कालाधन वापस कैसे हो. कैसे इसे सफेद करके उत्पादन में लगाया जाये, ताकि देश में अंतर-संरचनात्मक विकास हो, रोजगार बढ़े. असली मुद्दा यह है कि आज से इसको रोका कैसे जाये और इसके लिए क्या-क्या कदम उठाये जायें. जब सरकार पुराना कालाधन वापस लाने में ही अपेक्षित दिलचस्पी नहीं ले रही है, तो वर्तमान कर-ढांचे को सख्त बनाने में कितना सक्रिय होगी, यह देखना अभी बाकी है.
सर्वोच्च न्यायालय में जिस बेचारगी के भाव से सरकार ने हलफनामा दायर करते कहा कि दोहरे कर संबंधी समझौते के तहत उसके हाथ बंधे हुए हैं, उसने शायद इस अभियान को (अगर यह अभियान का स्वरूप लेता भी है) एक बड़ी क्षति पहुंचायी है. इस हलफनामे के बाद जब कभी भारत की सरकार विदेशी बैंकों से नाम या जमा धन राशि के आंकड़े मांगेगी, तो जवाब एक ही होगा, ‘आपने स्वयं ही अपने सुप्रीम कोर्ट में इस अनुबंध के प्रावधान को उद्धृत करते हुए कहा है कि नाम उजागर नहीं किये जा सकते, लिहाजा हमसे यह क्यों मांग रहे हैं?’
इस पूरी प्रक्रिया में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की छवि पर आंच आयी है, भले ही उन्हें ‘प्रतीक’ की राजनीति में मिलती सफलता के कारण इसका भान न हो. करप्शन और कालेधन पर पहले दिन से ही एक जबरदस्त अभियान शुरू होना चाहिए था, ताकि जन-अपेक्षा और सरकार के प्रयास में एक तारतम्य दिखायी देता, लेकिन ऐसा पांच महीने बीतने के बाद भी नहीं दिखायी दिया, बल्कि इसकी जगह एक बेचारगी का भाव नजर आया. महज यह कहने से कि ‘न खाऊंगा न खाने दूंगा’ जनता हफ्ते-दो हफ्ते तो खुश नजर आयेगी, पर उसके बाद परिणाम के बारे में भी पूछना शुरू करेगी.
यह सही है कि आज अधिकतर बुद्धिजीवियों से लेकर सड़क पर खोमचा लगानेवाले तक को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी में एक ऐसा नेता दिखाई दे रहा है, जो देश के भविष्य को बदल देगा. कई दशकों बाद किसी नेता के लिए यह भाव आया है अन्यथा देश ‘कोऊ नृप होहीं हमें का हानि’ के मोड में चला गया था. इतिहास गवाह है एक नेता, उसके द्वारा विकसित सिस्टम या उसकी नीतियों ने पूरे समाज को नयी ऊंचाइयों पर पहुंचाया है. सम्राट अशोक, अकबर, माओ, लेनिन, चे ग्वेरा, लूला उनमें से कुछ हैं. गांधी भी कुछ दिन और रहते तो देश के विकास का मार्ग बदलना नेहरू की मजबूरी हो गयी होती. लिहाजा मोदी का पूरे उत्साह से अनुकरण करना देश की जनता के लिए एक मात्र विकल्प होगा. नेतृत्व को समुचित समय देना भी नेता की पूर्ण उपादेयता के लिए उतना ही जरूरी है.
विश्वास और अंध-विश्वास में अंतर होता है. जहां तर्क की सीमाएं खत्म होती हैं, वहीं से अंध-विश्वास की सीमा शुरू होती है. ईश्वर तर्क से परे है, लिहाजा भक्ति में अंध-विश्वास लाजमी है. ‘माम् ही पार्थ व्यपाश्रित्य’ या ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ कह कर कृष्ण भगवान ने अंध-विश्वास पर अपनी वैध्यता की मोहर गीता में लगा दी है. लेकिन मनुष्य पूर्ण नहीं है, लिहाजा हम उसमें मात्र विश्वास करते हैं, जो दिक्-काल-सापेक्ष होता है. मोदी में हमें भरोसा तो है, पर यह भरोसा हर क्षण तर्क की कसौटी पर कसा जाना जरूरी है.
इसके दो फायदे हैं. एक तो हमें यह समझने का मौका मिलता है कि हमारा अपने नेता का अनुसरण करना कितना ठीक है और कब तक ठीक है. दूसरा, यह नेता को भी अधिनायकवादी होने से बचाता है और उसे सत्ता के समय-सिद्ध जाल में फंसने नहीं देता, जिसे अंगरेजी में ‘ट्रेपिंग्स ऑफ पॉवर’ कहते हैं.
सिर्फ नामों को लेकर बवाल काफी नहीं
विजय विद्रोही
वरिष्ठ पत्रकार
कांग्रेस और बीजेपी के बीच कालेधन को लेकर खेल चल रहा है. पहले बीजेपी कहती थी कि मनमोहन सिंह सरकार नाम क्यों छुपा रही है और अब यही बात कांग्रेस कह रही है कि मोदी सरकार नाम बताने से डर क्यों रही है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बीजेपी के सांसद निशिकांत दुबे संसद में ठीक ही बयान दे रहे थे कि कालाधन कभी वापस नहीं आ सकता!
विदेशी बैंकों में जमा कालेधन पर क्या होना चाहिए था? कालाधन वापस लाने की कोशिश होनी चाहिए थी. यह काम तभी हो सकता है, जब स्विस बैंक जैसे बैंकों में जमा भारतीयों के पैसे को कालाधन घोषित किया जा सके. इसके लिए प्रवर्तन निदेशालय (इडी) जैसी भारतीय जांच एजेंसियों को साबित करना होगा कि यह पैसा टैक्स की रकम चुकाये बिना जमा किया गया है या यह पैसा मादक द्रव्यों को बेच कर कमाया गया है या फिर आंतकवादियों को हथियार बेच कर कमाया गया है.
लेकिन, इस संबंध में किस सरकार ने कितनी कोशिश की, इन कोशिशों का नतीजा क्या निकला और आगे सरकार क्या-क्या उपाय करनेवाली है, इन सवालों के जवाब न तो यूपीए सरकार के पास थे और न ही एनडीए सरकार के पास ही हैं. कांग्रेस और बीजेपी के बीच कालेधन को लेकर खो-खो खेल चल रहा है. पहले बीजेपी कहती थी कि मनमोहन सिंह सरकार नाम क्यों छुपा रही है और अब यही बात कांग्रेस कह रही है कि मोदी सरकार नाम बताने से डर क्यों रही है.
हैरानी की बात है कि अभी तक यही तय नहीं है कि भारत का कितना पैसा कालेधन के रूप में विदेशों में किस-किस बैंक में जमा है. सीबीआइ के पूर्व निदेशक एपी सिंह ने कहा था कि 31 लाख करोड़ से ज्यादा का कालाधन है. बीजेपी टास्क फोर्स का मानना है कि यह 87 लाख करोड़ के आसपास है. वाशिंगटन की एक ग्लोबल फाइनेंशियल एजेंसी की नजर में कालाधन 28 लाख करोड़ के आसपास है. बाबा रामदेव कहते रहे हैं कि भारत का चार सौ लाख करोड़ रुपया विदेशी बैंकों में जमा है.
एक वक्त कालेधन को मुख्य चुनावी मुद्दा बनानेवाले बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी 75 लाख करोड़ कालाधन वापस लाने की बात करते रहे थे. मनमोहन सिंह सरकार की तरफ से संसद में पेश किये गये श्वेत पत्र में इसकी मात्र तीस हजार करोड़ के लगभग आंकी गयी थी. एक खबर यह भी आयी कि दिसंबर, 2013 तक स्विस बैंकों में 14 हजार करोड़ रुपये का कालाधन जमा था, जो 2012 के मुकाबले 42 फीसदी बढ़ा था. मनमोहन सिंह सरकार ने ही 2013 में तीन भारतीय संस्थाओं (नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ फाइनेंशियल मैनेजमेंट, नेशनल काउंसिल फॉर एप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी) से काले धन की मात्र का पता लगाने को कहा था, लेकिन अभी इसकी रिपोर्ट आनी बाकी है.
मोदी सरकार का कहना है कि वह सुप्रीम कोर्ट में 27 अक्तूबर को होनेवाली सुनवाई में उन 800 में से 136 लोगों के नाम खोल देगी, जिनके खिलाफ कालेधन की जांच चल रही है. हैरानी की बात है कि बंद लिफाफे में यह नाम सौंपे जायेंगे. पिछली सरकार ने भी बंद लिफाफा सुप्रीम कोर्ट में जमा करवाया था, जिसमें फ्रांस सरकार की तरफ से भेजे गये करीब 800 नाम थे.
तब बीजेपी ने बहुत शोर मचाया था कि नाम सार्वजनिक क्यों नहीं किये जा रहे हैं. तब सरकार की तरफ से कहा गया था कि नाम सार्वजनिक नहीं किये जा सकते, क्योंकि भारत सरकार अंतरराष्ट्रीय संधि की शर्तो के कारण नाम नहीं बताने के लिए तब तक बाध्य है, जब तक कि जांच के बाद अदालत में चार्जशीट नहीं दाखिल की जाती. लेकिन इस तर्क को तब बीजेपी ने नकार दिया था और लोकसभा चुनावों में बड़ा चुनावी मुद्दा बनाते हुए सत्ता में आने पर सौ दिनों में कालाधन वापस लाने की बात कही थी. अब कहानी बदल चुकी है. बीजेपी सत्ता में है और वह अंतरराष्ट्रीय संधि से बंधे होने की दुहाई दे रही है और कांग्रेस अब विपक्ष में है और वह बीजेपी से नाम बताने के लिए ललकार रही है.
बड़ा सवाल है कि क्या नाम बताना जरूरी है और क्या नाम सामने आने से कालाधन भी वापस आ जायेगा? सवाल यह भी है कि सुप्रीम कोर्ट क्यों इस पर टिप्पणी करने से परहेज कर रहा है? आखिर सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर ही कालेधन की वापसी के लिए एसआइटी गठित की गयी है, जो कोर्ट की देखरेख में ही जांच कर रही है. ऐसे में कोर्ट से भी यही उम्मीद की जाती है कि वह याचिका लगानेवाले वरिष्ठ वकील राम जेठमलानी के माध्यम से दोनों दलों को कालेधन पर राजनीति नहीं करने के लिए कह सकता है. सबसे बड़ी बात है कि स्विस बैंक में खाता खोलना कोई गैरकानूनी काम नहीं है. वहां कोई भी भारतीय बैंक की शर्तो को पूरा करने के बाद खाता खोल सकता है.
जो खाता खुला है और उसमें जो पैसा जमा है, वह कालेधन की श्रेणी में आता है, इसे साबित करने के बाद ही उस पैसे को भारत लाया जा सकता है. अब जो 800 नाम भारत सरकार के पास आये हैं, उन सबको इडी नोटिस करेगा या कर रहा होगा या कर चुका होगा. खाताधारकों को अपने जवाब देने हैं. वे कागज-पत्रों के साथ अगर यह साबित कर देते हैं कि उनके खाते में जमा पैसे पर सरकार को टैक्स दिया गया है या सारी कमाई नियम व कायदे-कानून के हिसाब से की गयी है या जिस देश में उनकी कोई कंपनी रजिस्टर की गयी है, उस देश के कानून के हिसाब से वहां टैक्स चुकाया गया है, तो ऐसे में वह खाताधारक पाकसाफ निकल जायेगा (अगर इडी इन दस्तावेजों से सहमत हो जाता है तो).
लेकिन, जो खाताधारक संतोषजनक जवाब नहीं दे पाते हैं, उनके खातों की पूरी जांच करना और आय-व्यय में गड़बड़ी का हिसाब निकाल कर उसे कालाधन साबित करना, यह एक टेढ़ी खीर है. इसके लिए इडी विभाग को पापड़ बेलने पड़ेंगे. खूब दौरे भी करने पड़ेंगे, खाताधारकों के फोन कॉल भी रिकॉर्ड करने पड़ेंगे और इधर-उधर से सारे कागज भी निकलवाने पड़ेंगे. इसके लिए इडी विभाग को पैसा चाहिए, लोग चाहिए और केंद्र सरकार से लेकर राज्य सरकारों के विभिन्न विभागों से सहयोग भी चाहिए. लेकिन हैरत की बात है कि इस पर कोई बात नहीं हो रही है. सिर्फ नाम को लेकर बवाल हो रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या बीजेपी के सांसद निशिकांत दुबे संसद में ठीक ही बयान दे रहे थे कि कालाधन कभी वापस नहीं आ सकता!
कालेधन पर यूपीए सरकार के श्वेतपत्र की कुछ खास बातें
तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने 21 मई, 2012 को लोकसभा के पटल पर केंद्र सरकार की ओर से कालेधन पर श्वेतपत्र प्रस्तुत किया था, जिसमें कालेधन को एक गंभीर मुद्दा मानते हुए इसके विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से विेषण की कोशिश की गयी थी. इस श्वेतपत्र के मुख्य बिंदु इस प्रकार थे:-
– श्वेतपत्र में कालाधन को परिभाषित करते हुए कहा गया था कि ये वैसी परिसंपत्तियां या संसाधन हैं, जिनके बारे में इनके उत्पादन के समय या बाद में कभी संबंधित सरकारी विभागों को सूचित नहीं किया गया हो.
– कालाधन (अ) अपराध, मादक द्रव्यों के कारोबार, आतंकवाद और भ्रष्टाचार या (ब) सरकार को बिना वैध कर चुकाने की प्रक्रिया द्वारा कमाया जा सकता है. दूसरी स्थिति में व्यवसाय वैध हो सकता है, लेकिन आरोपित ने कर नहीं चुका कर अपने आय की जानकारी छुपायी है.
– श्वेतपत्र में विस्तार से बताया गया है कि किस प्रकार दस्तावेजों और लेखा की प्रक्रियाओं के साथ छेड़-छाड़ कर कालाधन एकत्र किया जाता है.
– कुछ क्षेत्रों को चिह्नित किया गया है, जहां कालाधन के पैदा होने की संभावना सबसे अधिक होती है. ऐसे क्षेत्र हैं- भूमि और रियल इस्टेट, सराफा और आभूषण, वित्तीय बाजार, सार्वजनिक खरीद, नॉन-प्रॉफिट क्षेत्र, असंगठित क्षेत्र और नकद अर्थव्यवस्था.
– इस श्वेतपत्र में कालाधन की मात्र के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी है. सरकार के अनुसार इसका आकलन कर पाना बहुत मुश्किल है. इसमें जानकारी दी गयी है कि 2010 में भारत के प्रति स्विस बैंकों की देनदारी 7,924 करोड़ थी, जो उन बैंकों की कुल देनदारी का 0.13 फीसदी था.
– इस दस्तावेज के अनुसार सेंट्रल बोर्ड ऑफ डायरेक्ट टैक्सेज, इन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट, फाइनेंसियल इंटेलिजेंस यूनिट और सेंट्रल बोर्ड ऑफ एक्साइज एंड कस्टम्स कालाधन की जांच एजेंसियां हैं. सेंट्रल इकोनॉमिक इंटेलिजेंस ब्यूरो, नेशनल इंवेस्टिगेशन एजेंसी और हाइ लेवल कमिटी समन्वय करनेवाली संस्थाएं हैं.
– सरकार ने इस श्वेतपत्र में जनता की स्वीकृति, राजनीतिक आम सहमति और नीतियों को लागू करने की प्रतिबद्धता के साथ दीर्घकालिक रणनीति की जरूरत पर बल दिया है. इसमें पांच मूल बातों को रेखांकित किया है-
1. कालाधन के खिलाफ वैश्विक मुहिम में शामिल होना.
2. वैधानिक कार्य-योजना तैयार करना.
3. अवैध धन से निपटने के लिए संस्थाओं की स्थापना,
4. नियम-कानूनों को लागू करने के लिए तंत्र तैयार करना, और
5. संबंधित कर्मचारियों को प्रभावी रूप से कार्य करने के लिए कुशल बनाने का प्रयास.
इस श्वेतपत्र में वैध स्नेतों से कालेधन के उद्गम को रोकने के निम्नलिखित उपाय सुझाये हैं-
1. कर दरों का पुनरीक्षण और डिजिटल तकनीक के उपयोग से कर जमा करने में होनेवाले खर्च में कमी.
2. कालाधन उगानेवाले व्यावसायिक क्षेत्रों में आवश्यक आर्थिक सुधार.
3. कालाधन कारोबार को हतोत्साहित करने के लिए प्रयास, जिनमें गुड्स एंड सर्विसेज टैक्स जैसे पहल शामिल हैं. इसके अलावा प्रत्यक्ष कर प्रशासन के कामकाज में आवश्यक सुधार.
4. लोगों में जागरूकता फैलाना और विदेशों में कालाधन रखनेवालों को एक बार मोहलत देना, ताकि उनमें सुधार हो सके.
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