झारखंड को दूरदर्शी और सशक्त नेतृत्व की दरकार

प्रो अश्वनी कुमार,टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज झारखंड के गठन की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक थी. ऐतिहासिक, सामाजिक और सौ वर्ष की आदिवासी चेतना से जुड़े जनांदोलन की पृष्ठभूमि में राज्य का निर्माण हुआ था. झारखंड के साथ ही उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ को भी राज्य के रूप में मान्यता दी गयी थी, लेकिन झारखंड में निर्माण के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 31, 2014 12:31 PM

प्रो अश्वनी कुमार,टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज

झारखंड के गठन की पृष्ठभूमि ऐतिहासिक थी. ऐतिहासिक, सामाजिक और सौ वर्ष की आदिवासी चेतना से जुड़े जनांदोलन की पृष्ठभूमि में राज्य का निर्माण हुआ था. झारखंड के साथ ही उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ को भी राज्य के रूप में मान्यता दी गयी थी, लेकिन झारखंड में निर्माण के बाद से ही लगातार राजनीतिक अस्थिरता रही है.

अक्सर यह बात कही जाती है कि राजनीतिक अस्थिरता के कारण ही राज्य का उस तरह से विकास नहीं हो पाया है, जैसी अपेक्षा और आकांक्षा के साथ राज्य का गठन किया गया था. उन आकांक्षाओं की पूर्ति किस हद तक हो सकी है, उन्हें पूरा करने की राह में क्या-क्या बाधाएं हैं, कैसे इन बाधाओं को पार करते हुए राज्य की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक आकांक्षाओं की पूर्ति की जा सकती है, इन्हीं प्रश्नों के परिप्रेक्ष्य में झारखंड के समक्ष मौजूद चुनौतियों को समझा जा सकता है.

विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े झारखंड के सामने राष्ट्रीय स्तर पर बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में नये सिरे से अपना भविष्य तय करने की चुनौती है. इस साल संपन्न लोकसभा चुनाव में केंद्र में सरकार बनाने के लिए देश की जनता ने जैसा जनादेश दिया है, उसे स्वतंत्र भारत के राजनीतिक इतिहास में एक बड़े परिवर्तन के रूप में देखा जाना चाहिए. साथ ही उम्मीद करनी चाहिए कि देश में जैसा राजनीतिक बदलाव हुआ है, उसका असर झारखंड के चुनाव पर भी पड़ेगा. अगर राज्य के विधानसभा चुनाव में भी जनता विकास और सुशासन के मुद्दे पर आगे बढ़ती है और किसी एक पार्टी या गंठबंधन के पक्ष में स्पष्ट जनादेश देती है, तो राज्य के बेहतर भविष्य की संभावना फिर से दिखने लगेगी.

झारखंड के विकास को नयी दिशा देने में सक्षम नेतृत्व का अभाव ही राज्य की सबसे बड़ी कमी है. राज्य में आदिवासी बनाम गैर आदिवासी नेतृत्व का सवाल अक्सर उठाया जाता है, लेकिन राज्य को इससे कोई फायदा मिलता नहीं दिखा. ओड़िशा, बिहार, राजस्थान, छत्तीसगढ़ आदि राज्यों की ओर देखते हुए अगर झारखंड की हकीकत को समझने का प्रयास किया जाये, तो यही लगता है राज्य अपने गठन के बाद से ही एक कद्दावर, करिश्माई, एवं गवर्नेस से जुड़े नेतृत्व की कमी ङोल रहा है. अगर राज्य की स्थिति का विश्लेषण किया जाये, तो गंठबंधन की राजनीति का खामियाजा, आर्थिक विकास के गलत पैमाने, राज्य की प्राकृतिक संपदा का नुकसान, भ्रष्टाचार और माओवाद की समस्या आदि सबमें बढ़ोतरी हुई है. खाद्य सुरक्षा, मनरेगा, मानव तस्करी जैसे पैमानों पर राज्य की स्थिति कमजोर है. ऐसे में मजबूत क्षेत्रीय नेतृत्व के उभरे बिना राज्य की बेहतरी की कल्पना नहीं की जा सकती.

मोटे तौर पर सिद्धांत यही कहता है कि जहां-जहां मजबूत क्षेत्रीय लीडरशिप विकसित होता है, वहां विकास को गति मिलती है. हालांकि बिहार में लालू यादव, उत्तर प्रदेश में मायावती और अखिलेश यादव के शासन को मजबूत क्षेत्रीय लीडरशिप के रूप में देखा जा सकता है, लेकिन हमें ध्यान रखना होगा कि विकास के विषय में जहां नेतृत्वकर्ता की समझ छोटी हो, वहां मजबूत क्षेत्रीय लीडरशिप भी अप्रभावकारी साबित होता है. इसलिए मजबूत नेतृत्व के साथ यह भी जरूरी है कि शासन करनेवाला व्यक्ति विकास को बड़े फलक पर रख कर देखे. वह सिर्फ जाति, जनजाति, धर्म की राजनीति में न उलझा रहे, बल्कि मानव विकास के सूचकांकों पर राज्य, समाज के अंदर ढांचागत बदलाव के प्रति सजग और समर्पित रह कर विकास करे. एक तरफ झारखंड सामाजिक और आर्थिक सूचकांक के ज्यादातर मानकों पर पिछड़ता रहा है, दूसरी तरफ पड़ोसी राज्य ओड़िशा स्थायी शासन के कारण विकास कर रहा है. नक्सलवाद से प्रभावित होने के बावजूद छत्तीसगढ़ ने स्थायी शासन और गुड गवर्नेस के मामले में अपना छत्तीसगढ़ी मॉडल बनाया है.

इसलिए अब आदिवासी और गैरआदिवासी के सवाल से आगे बढ़ते हुए क्षेत्रीय अस्मिता को व्यापक रूप से परिभाषित करने का समय आ गया है. राज्य की सामाजिक बुनावट को अब आदिवासी और गैरआदिवासी से ईतर बहुभाषी समाज के रूप में देखा जाना चाहिए और उसी के अनुरूप समाज को सही ढंग से परिभाषित किया जाना चाहिए. समग्र धारा के अंदर ही झारखंड को अपना विकास मॉडल रखना होगा.

विकास का एक ही मॉडल देश के सभी राज्यों पर लागू नहीं हो सकता. सभी राज्य विकास के अपने-अपने मॉडल गढ़ सकते हैं, इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए. अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक ‘अनसर्टेन ग्लोरी’ में लिखा है कि हिमाचल का अपना विकास मॉडल है, उत्तराखंड भी अपने विकास मॉडल के साथ आगे बढ़ रहा है, लेकिन झारखंड? भ्रष्टाचार, गुटबंदी, संसाधनों की लूट, माओवादियों के साथ राजनीतिक लड़ाई लड़ने की इच्छाशक्ति से जूझता झारखंड यदि अब भी अपने निर्माण के छोटे से कालखंड की कमियों को दूर करते हुए आगे बढ़े, तो यह भी अपना नया विकास मॉडल गढ़ सकता है. इसलिए समय आ गया है कि समग्र विकास के सवाल को आगे रखते हुए कदम बढ़ाये जाएं.

राज्यों का विकास सिर्फ केंद्र द्वारा दी गयी धनराशि और संसाधनों से होना होता तो राज्य को बीआरजीएफ, आइएपी के तहत मदद मिलती रही है. रघुराम राजन कमिटी की रिपोर्ट में झारखंड को पिछड़े राज्यों की श्रेणी में रखा गया है. इसलिए झारखंड के सामने विकास सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती है. पिछड़ेपन के साथ सुदृढ़ राजनीतिक नेतृत्व का अभाव, गुड गवर्नेस की कमी, प्रशासनिक सुधार का अभाव आदि समस्याओं से प्रदेश जूझ रहा है. हालांकि अन्य राज्यों की भांति झारखंड के लोगों की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी बदल रही हैं. ऐसे में राज्य की जनता अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु किसी एक राजनीतिक दल को मैंडेट दे, तो झारखंड एक नयी ईबारत लिख सकता है.

(आलेख बातचीत पर आधारित)

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