इतिहास की गलती का दोहराव तो नहीं!

सरदार पटेल को कमोबेश नजरअंदाज कर कांग्रेस ने वह स्थान खाली छोड़ दिया, जिसे आज नरेंद्र मोदी भर रहे हैं. सोचने की बात यह है कि इंदिरा गांधी की अवहेलना कर क्या इस वक्त भाजपाई वही गलती नहीं दोहरा रहे हैं! लौह पुरुष और इस्पाती महिला के जन्मदिन और बरसी के सन्नीपात ने देश में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 3, 2014 8:10 AM

सरदार पटेल को कमोबेश नजरअंदाज कर कांग्रेस ने वह स्थान खाली छोड़ दिया, जिसे आज नरेंद्र मोदी भर रहे हैं. सोचने की बात यह है कि इंदिरा गांधी की अवहेलना कर क्या इस वक्त भाजपाई वही गलती नहीं दोहरा रहे हैं!

लौह पुरुष और इस्पाती महिला के जन्मदिन और बरसी के सन्नीपात ने देश में एक अशोभनीय बहस छेड़ दी है. जहां भाजपा पक्षधर मानते हैं कि नयी सरकार किसी दूसरे नेता के साथ अन्याय नहीं कर रही है, वह तो बस बरसों से चला आ रहा एक अनुचित असंतुलन दूर कर रही है. वहीं उसके आलोचकों का आरोप है कि वह जान-बूझ कर देश की एकता और अखंडता के लिए अपने प्राण देनेवाली इंदिरा गांधी का दलगत राजनीति के कारण अपमान कर रही है. एकता दिवस के रूप में पटेल के जन्मदिन का नया नामकरण कर वह कांग्रेस की विरासत में सेंधमारी करना चाहती है.

इसमें दो राय नहीं है कि आजादी की लड़ाई के अहम सिपह-सालार और भारत के एक प्रमुख राष्ट्रनिर्माता सरदार वल्लभभाई पटेल की कांग्रेसी-यूपीए राज में उपेक्षा होती आयी है. कम से कम पिछले तीस साल से उनके जन्मदिन पर इंदिरा जी की पुण्यतिथि भारी पड़ती रही है. उनके देहांत के बरसों बाद पटेल को भारतरत्न से सम्म्मानित किया जा चुका है और बीच-बीच में रियासतों व रजवाड़ों के भारत में विलय के दुष्कर अभियान में उनके योगदान का उल्लेख बतौर रस्मअदायगी किया जाता है. सच यह है कि देश के वंशवादी व्यक्तिपूजक जनतंत्र में नेहरू और उनके वंशज उत्तराधिकारियों के महिमा-मंडन ने किसी अन्य नेता के तटस्थ मूल्यांकन की गुंजाइश ही नहीं छोड़ी है. पटेल अकेले ऐसे महापुरुष नहीं हैं, जो इस मानसिकता के शिकार हुए हैं. मौलाना आजाद और चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य के अलावा जेपी, लोहिया तथा लालबहादुर शास्त्री की नियति भी कुछ ऐसी ही है.

अत: किसी को इस बात पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए कि मोदी सरकार पटेल की याद कृतज्ञता के साथ ताजा कर रही है. आज की पीढ़ी आजादी की लड़ाई में या कांग्रेस के इतिहास में पटेल के योगदान से परिचित नहीं है. वे आजाद भारत के पहले गृहमंत्री ही नहीं थे, बल्कि उपप्रधनमंत्री भी थे. इतिहासकारों की मेहरबानी से आज पटेल की छवि नेहरू की तुलना में एक प्रादेशिक प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी हिंदू विचारधारा के समर्थक वाली बन गयी है. यह बात बहुत कम लोगों की जानकारी में है, जब भारत के पहले प्रधनमंत्री पद की दावेदारी की बात चल रही थी, तो पटेल ही सबसे दमदार थे.

अधिकांश कांग्रेस समितियों ने उन्हीं के पक्ष में मतदान किया था. अल्पमत वाले नेहरू को यह पद गांधी जी के हस्तक्षेप से ही प्राप्त हो सका था. सरदार का योगदान रियासतों के विलय तक ही सीमित नहीं है. गुजरात में खेड़ा सत्याग्रह के संचालन या सहकारी आंदोलन को ऊर्जा देने में उनकी भूमिका निर्णायक रही. आजाद भारत की बदली जरूरत के अनुसार अखिल भारतीय प्रशासनिक सेवाओं का कायाकल्प भी उन्हीं ने किया. सुरक्षा व आंतरिक सुरक्षा से जुड़े संवेदनशील मुद्दों मे पटेल की गहरी दिलचस्पी थी. अपनी मृत्यु के कुछ ही समय पहले उन्होंने नेहरू को चीन से संभावित संकट से सतर्क किया था. कश्मीर को अस्थिर करनेवाले पाकिस्तान की साजिश पर उनकी पैनी नजर रहती थी. दुर्भाग्य से आजादी के कुछ ही दिनों बाद उनका निधन हो गया. इस गलतफहमी से भी छुटकारा पाने की जरूरत है कि नेहरू की तुलना में पटेल को बाहरी दुनिया की जानकारी नहीं थी. आखिर वह भी लंदन में पढ़े बैरिस्टर थे और बेहद कामयाब वकील थे. बहरहाल.

श्रीमती गांध्ी ने भारत के राष्ट्रनिर्माण में जो असाधारण भूमिका निभायी, उसका गायन निरंतर होता रहा है. अत: यहां उन्हें दोहराने की जरूरत नहीं है. जो लोग कांग्रेस की और नेहरू-गांधी परिवार की कुनबापरस्ती से परेशान हैं, वे सिर्फ आपातकाल के काले अध्याय और उस दौर की अत्याचारी तानाशाही की बाते करते हैं. इसके अलावा जिन परिस्थितियों में और जिन हथकंडों को अपना कर गूंगी गुड़िया समझी जानेवाली इंदिरा गांधी ने शास्त्री जी के देहांत के बाद कांग्रेस को तोड़ कर सत्ता हथियायी और फिर लोक-लुभावन नारों के सहारे करोड़ों वंचितों को अपना अंधभक्त बना लिया, वह सब भी उनकी छवि को धूमिल ही करता है. पर इस बात को कतई अनदेखा नहीं किया जा सकता कि श्रीमती गांधी ने इस देश को उसका खोया हुआ आत्मसम्मान लौटाया. 1962 में चीन के साथ लड़े सीमायुद्ध ने नेहरू को बुरी तरह तोड़ दिया था. भारत अंतरराष्ट्रीय मंच पर अकेला पड़ गया था. देश का बड़ा हिस्सा अकाल से जूझ रहा था. आत्मसम्मान ताक पर रख विदेशी अनाज का दान ग्रहण कर भारतवासी अपनी भूख मिटाने को विवश थे. नक्सलवादी विप्लव ने एक और संकट पैदा कर दिया था. भले ही जय जवान-जय किसान का नारा देने वाले लालबहादुर शास्त्री ने एक बड़ी सीमा तक हमारा आत्मविश्वास फिर से पैदा कर दिया था, उनके न रहने पर अस्थिरता व अराजकता की आशंकाएं भयंकर रूप ले रही थीं.

श्रीमती गांधी को हरित क्रांति की सफलता, अंतरिक्ष अन्वेक्षण, सागर के गर्भ में तेल की खोज और पोखरण परमाणु विस्फोट का श्रेय देना ही होगा. जाहिर है कि उनकी मुद्रा जनता का हित चाहनेवाली तुनक मिजाज महारानी ही जैसी थी,जनतांत्रिक नेता वाली नहीं, पर उनके देश-प्रेम पर शक नहीं किया जा सकता है. नेहरू की तरह वे आखिरी अंग्रेज या आखिरी मुगल नहीं थीं, बल्कि देसी हिंदुस्तानी थीं. जिन्हें अपने सर्वज्ञ होने का गुमान नहीं था. बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष के दौरान उन्होंने निक्सन और किसिंजर के भयादोहन का डट कर मुकाबला किया और उनकी धौंस-धमकी की परवाह न कर पाकिस्तान के दो टुकड़े कर डाले. आपातकाल के पहले जिन जनतांत्रिक संस्थाओं का और संवैधानिक सत्ताओं का अवमूल्यन उनके कार्यकाल में हुआ था, वह जारी रहा, पर तब भी श्रीमती गांधी की छाप मिटायी नहीं जा सकती. आज कुछ लोग यह भी कहते हैं कि उनकी पुण्यतिथि अनायास सिख विरोधी भयावह सांप्रदायिक दंगों की याद भी ताजा कराती है, मगर मेरी समझ में इसके लिए इंदिरा को नहीं, उनके उत्तराधिकारी को ही जिम्मेवार या जवाबदेह ठहराया जा सकता है.

सरदार पटेल और श्रीमती गांधी को तराजू के दो पलड़ों में अलग-अलग रख तोलने की, डंडी मारने की या बटखरा इधर-उधर बदलने की जरूरत नहीं. देश को दोनों के प्रति समान रूप से आभार प्रकट करना चाहिए और इनका सम्मान करना हमारा कर्तव्य है. सरदार पटेल को कमोबेश नजरदांज कर कांग्रेस ने वह स्थान खाली छोड़ दिया, जिसे आज नरेंद्र मोदी भर रहे हैं. सोचने की बात यह है कि इंदिरा गांधी की अवहेलना कर क्या इस वक्त भाजपाई वही गलती नहीं दोहरा रहे हैं!

पुष्पेश पंत

वरिष्ठ स्तंभकार

pushpeshpant@gmail.com

Next Article

Exit mobile version