दलबदल की राजनीति में आस्था का सवाल
हाल के वर्षो में पहले गंठबंधन व उसके बाद तेजी से पनपी दलबदल की राजनीति ने राजनीतिक आस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है. यह सवाल ना सिर्फ वोटरों के सामने है, बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी है. झारखंड में चुनाव प्रक्रिया के तेज होते ही दलों और नेताओं की उठापटक परवान चढ़ गयी […]
हाल के वर्षो में पहले गंठबंधन व उसके बाद तेजी से पनपी दलबदल की राजनीति ने राजनीतिक आस्था पर सवाल खड़ा कर दिया है. यह सवाल ना सिर्फ वोटरों के सामने है, बल्कि राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए भी है. झारखंड में चुनाव प्रक्रिया के तेज होते ही दलों और नेताओं की उठापटक परवान चढ़ गयी है.
गंठबंधन की राजनीति ने ऐसे दौर को जन्म दिया, जहां पार्टियां बिना किसी विचारधारा के सामंजस्य या साझा कार्यक्रम के अपने फायदे के लिए एक-दूसरे से सीटों का तालमेल करने लगीं. ऐसी कई सीटों पर जहां कि किसी पार्टी का अस्तित्व होते हुए भी सालों-साल वहां वह चुनाव में नहीं उतर पाती, क्योंकि वह सीट वह अपने साथी दल को देती रही. कार्यकर्ताओं और नेताओं का उस पार्टी से मोहभंग होता रहा और वे दूसरे दलों की ओर रुख करते रहे. अब पार्टियों के इन अनैतिक गंठबंधन को नेताओं ने अपना लिया है.
चुनाव के पहले नेताओं की एक से दूसरे दल में कूद-फांद अब हैरत में डालती. टिकट नहीं मिला तो फिर वापसी. यह भी सही है कि इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार राजनीतिक दल भी हैं, जो दूसरे दलों के नेताओं को अपने दल में इसलिए नहीं लेते कि उससे उनकी पार्टी मजबूत होगी, बल्कि दूसरी पार्टी को नुकसान कितना होगा, आकलन का आधार हो जाता है. इन सबके बीच, कार्यकर्ताओं को चुनाव के अंत-अंत तक पता नहीं होता, कि उन्हें किनके नेतृत्व में चुनाव लड़ना है.
पार्टियां भी टिकट की घोषणा अंतिम समय में इसलिए करती हैं ताकि असंतुष्टों को दूसरे दलों में जुगाड़ बैठाने का समय कम मिले. दूसरी ओर, अपनी पार्टी और नेताओं का अनुसरण करते हुए चुनाव के बीच में भी अपने फायदे के लिए कार्यकर्ताओं का एक दल से दूसरे दल में आना-जाना शुरू हो गया है. दलीय राजनीति के इस दौर ने कई सवाल खड़े किये हैं. ये जहां विचारधारा और एजेंडे के आधार पर होनी चाहिए, वहीं यह चुनावी समीकरण बनाने-बिगाड़ने का हथियार बन गयी है. ऐसे में मतदाता खुद को दुविधा में फंसा हुआ महसूस कर रहा है कि किस दल के आधार पर वह किसे चुन रहा है, या व्यक्ति के आधार पर वह किस राजनीतिक दल के साथ जा रहा है. कुछ भी हो, दुविधा के इस दौर ने भारतीय लोकतंत्र के पाये को जरूर हिला कर रख दिया है.