यह आखिर कैसी शिक्षा व्यवस्था है!
कहीं न कहीं कक्षा पांच और कक्षा आठ तक की शिक्षा व्यवस्था में कोई भारी गड़बड़ी है, जिसके चलते बीए-एमए पास लोग भी अपनी भाषा ठीक से नहीं लिख पाते. इससे हम नीचे से ऊपर तक अपने देश की शिक्षा प्रणाली की हालत का अंदाजा बखूबी लगा सकते हैं. पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में […]
कहीं न कहीं कक्षा पांच और कक्षा आठ तक की शिक्षा व्यवस्था में कोई भारी गड़बड़ी है, जिसके चलते बीए-एमए पास लोग भी अपनी भाषा ठीक से नहीं लिख पाते. इससे हम नीचे से ऊपर तक अपने देश की शिक्षा प्रणाली की हालत का अंदाजा बखूबी लगा सकते हैं.
पिछले दिनों एक हिंदी अखबार में एक विज्ञापन छपा था, जिसमें पीएचडी डिग्री हासिल करने पर बधाई दी गयी थी. इस विज्ञापन में लिखा हुआ था-
कुमारी टीना दुबे को पी.एच.डी.
कुमारी टीना दुबे को देवी अहिल्या विश्वविघालय इन्दौर ने हिन्दी विषय के अन्तर्गत ‘प्रसाद के नाटको में राष्ट्रीय-चेतना’ विषय पर पी एच. डी की उपाधी प्रदान की उन्होने अपना शौधकार्य डॉ. दिलीप कुमार चौहान के निर्देशन मे पूर्ण किया.
हॉर्दिक बधाई एंव शुभकामनाए.
इन लाइनों को यहां पर देने का मेरा मंतव्य पीएचडी डिग्री पर सवाल उठाना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि हमारे देश में शिक्षा का स्तर कैसा है. पिछले दिनों मैंने बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों के तमाम उन युवा लोगों से बात की, जो लिखने का काम करते हैं. उनसे मैंने एक सवाल पूछा कि ठीक-ठीक हिंदी लिखना किस कक्षा तक और सही-सही वाक्य बनाना और सही शब्द चयन यानी व्याकरण किस कक्षा तक हमें पढ़ायी जाती है? सभी जगह एक ही जवाब मिला कि सही-सही हिंदी लिखना कक्षा पांच तक और व्याकरण कक्षा आठ तक पढ़ायी जाती है.
इसका मतलब यह हुआ कि कहीं न कहीं कक्षा पांच और कक्षा आठ तक की शिक्षा व्यवस्था में कोई भारी गड़बड़ी है, जिसके चलते बीए-एमए पास लोग भी अपनी भाषा ठीक से नहीं लिख पाते. इससे हम नीचे से ऊपर तक अपने देश की शिक्षा प्रणाली की हालत का अंदाजा बखूबी लगा सकते हैं. साथ ही इस बात का भी अंदाजा किया जा सकता है कि विकसित देशों की कतार में खड़े होने के जिस सपने को हम देख रहे हैं या हमें दिखाया जा रहा है, वह हमारी पहुंच के कितना करीब है! लेकिन ताज्जुब इस बात पर है कि हमारे समाज और सरकारों की प्राथमिकता में यह शिक्षा व्यवस्था है ही नहीं.
हो भी कैसे? एक और उदाहरण- एक हिंदीभाषी राज्य के मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने देश के एक प्रतिष्ठित इंजीनियरिंग इंस्टीट्यूट में पढ़ाई की है. वह सेना की विजिटर्स बुक में लिखते हैं- ‘पुरे विरो को सरधंजली’. आप समझ पाये कि वह क्या लिखना चाहते थे? हम आपको बताते हैं. वह लिखना चाहते थे- पूरे वीरों को श्रद्धांजलि. तो कैसी पढ़ाई हो रही है हमारे स्कूलों में. ‘असर 2013’ की रिपोर्ट के मुताबिक, कक्षा पांच में पढ़ रहे 47 फीसदी बच्चे ही कक्षा दो के स्तर का टेक्स्ट पढ़ पाते हैं और यदि सिर्फ सरकारी स्कूलों को देखें तो यह अनुपात सिर्फ 41.1 फीसदी ही आता है. यही नहीं, सरकारी स्कूलों में ऐसे बच्चों के अनुपात में सुधार होने की जगह गिरावट ही आ रही है.
सरकारी स्कूलों में 2009 के दौरान कक्षा पांच में पढ़ रहे 50.3 फीसदी बच्चे कक्षा दो के स्तर का टेक्स्ट पढ़ लेते थे. यानी गड़बड़ तो है और बहुत बड़ी है. अब सवाल यह है कि गड़बड़ कहां है? इसका जवाब तलाशने के लिए हमें कोई रॉकेट विज्ञान नहीं पढ़ना है, बल्कि यह देखना है कि शिक्षकों का स्तर क्या है, शिक्षकों की कमी पूरी करने के लिए भर्ती किस आधार पर होती है, इस भर्ती का मूल आधार क्या होता है और इन शिक्षकों को समाज किस नजर से देखता है?
सर्व शिक्षा अभियान के तहत अलग-अलग राज्यों में, अलग-अलग नाम से और अलग-अलग वेतन पर संविदा शिक्षकों की नियुक्ति शुरू हुई. इनको कहीं शिक्षा मित्र, कहीं गुरूजी, तो कहीं नियोजित शिक्षक आदि कहा जाता है. इनका वेतन इतना भी नहीं होता कि ये अपने परिवार का जरूरी खर्च आराम से चला सकें. फिर भी इस रूप में नियुक्ति पाने के लिए बड़े पैमाने में जुगाड़ चलता है. राजनीतिक दल थोक में होनेवाली इस भर्ती के जरिये अपना वोट पक्का करते हैं. इनका स्तर क्या है, यह ‘असर’ की रिपोर्ट से समझा जा सकता है. अब समाज इनको किस नजर से देखेगा?
एक और उदाहरण. 2005 में मैं भोपाल के एक अखबार में संपादक बना. एक दिन मेरी निगाह स्थानीय खबरों के पेज पर लगी एक हेडिंग पर गयी, जिसमें लिखा हुआ था- गुरुजियों ने प्रदर्शन किया. मैं पहले कभी मध्य प्रदेश में रहा नहीं था, लिहाजा मुङो लगा कि गलती से ‘गुरुजियों’ टाइप हो गया है. लिहाजा मैंने उपसंपादक को बुला कर कहा कि हेडिंग में गलती है. इसे ठीक करो. इस पर उपसंपादक ने पूछा कि क्या गलती है? मैंने कहा कि गुरुजियों की जगह कोई अन्य शब्द होना चाहिए. इस पर वह बोला- सर, यहां यही चलता है. मैंने पूछा- इसका मतलब क्या होता है? जवाब मिला कि यह गुरुजी का बहुवचन है. गौरतलब है कि मध्य प्रदेश में सर्व शिक्षा अभियान के तहत भर्ती किये गये संविदा शिक्षकों को गुरुजी कहते हैं.
क्या केंद्र और राज्य सरकारें शिक्षा को विकास का मूल मान कर इसे अपनी प्राथमिकता में शामिल करेंगी?
और अंत में
मित्र निराला की फेसबुक वाल से : आज सच में गोहार दिया धरती मईया को कि फट जा तू, समा जाएंगे उसमें.. हुआ यह कि एक लेखक महोदय मिले. पहले सरकारी अधिकारी थे. बड़े ओहदेदार. रिटायरमेंट के बाद लेखक बनने का भूत सवार हुआ. कह रहे थे कि जानते हैं, जिंदगीभर बेकार में भटके नौकरी में, मन नहीं लगता था, मुङो तो ईश्वर ने बनाया ही था लेखक होने के लिए, लेकिन नौकरी करता रहा. बहुत अफसोस होता है. उन्होंने एक साथ आधा दर्जन उपन्यास लिख कर तैयार कर दिये हैं एक साल में. तीन हिंदी में, तीन मैथिली में. पहली मुलाकात थी, उन्होंने नाम पूछा. बताया- निराला. उछलते हुए बोले-ओहो सुमित्रनंद निराला. मुङो लगा कि मजाक में कह रहे हैं. मैंने बोला कि सर, बस- निराला. उन्होंने कहा- हां समझ गया कि आपका नाम सिर्फ निराला है, लेकिन सुमित्रनंद पंत निराला भी तो बड़े लेखक थे, उन्होंने कई उपन्यास लिखे. बातों-बातों में मुङो विश्वास हो गया कि जनाब मजाक नहीं कर रहे. वे सूर्यकांत त्रिपाठी निराला को सुमित्रनंद निराला नाम से ही रटे हुए हैं और वे जानते हैं कि वे बड़े उपन्यासकार थे! मैंने पूछा कि आपके उपन्यास कहां से छप रहे हैं. उन्होंने कहा- छप नहीं रहे, छप गये हैं. प्रकाशक तो लाइन लगाये हुए थे, लेकिन मैंने दिल्लीवाले बड़े प्रकाशकों को ही पूछा, क्योंकि पूरा देश में जायेगा न.. मुङो सच में लगा कि धरती फट जाये तो समा क्यों न जाऊं उसमें..
राजेंद्र तिवारी
कॉरपोरेट एडिटर प्रभात खबर
rajendra.tiwari@prabhatkhabar.in