बाजारवाद ने अब जाकर समाज के विभिन्न सरोकारों को अपना निवाला बनाया है, पर भारतीय राजनीति के मंच पर बहुत पहले से ही इसका नजारा सामने आ गया था.
इसी का नतीजा है कि राजनीति में विचारशून्यता प्रतिष्ठित होती गयी. इस विचारशून्य राजनीति में प्रतिबद्धता सर्वाधिक आहत हुई है. चुनाव आने के बाद पार्टियों में दल-बदल के लिए मची भगदड़ इसका वीभत्स नजारा पेश करती है.
झारखंड के विधान ाभा चुनाव में दलबदलुओं का बोलबाला इस बात का संकेत है कि ‘मोदी लहर’ में भी विचारशून्य राजनीति शर्मनाक हद तक जाकर हर हाल में अपनी कीमत मांगने पर आमादा है. यह हाल किसी एक पार्टी का नहीं. यदि ऐसा नहीं होता तो भाजपा की रामगढ़ जिला इकाई सामूहिक इस्तीफा नहीं देती और भाजपा में शामिल हुए कांग्रेस विधायक माधव लाल सिंह टिकट पर संकट देख कार्यकर्ता समेत प्रदेश कार्यालय नहीं धमक जाते. और भवनाथपुर के कांग्रेस विधायक तो जैसे कांग्रेस का टिकट लेने के बाद जिस तरह पल भर में भाजपा से टिकट और चुनाव चिह्न लेने में सफल रहे, वह देश की दल-बदल की राजनीति का अनोखा उदाहरण है. सियासत में एक कहावत कभी खूब चली थी, ‘भगोड़ों को लेकर कोई सेना ताकतवर नहीं होती’. लेकिन इस कहावत के खतरनाक संदेश को लोग आज भूल गये लगते हैं.
अन्यथा दलबदलुओं की प्रवृत्ति को इस कदर हवा नहीं देते. आज लगता है जैसे राजनीति के कुछ पायों में दलबदलू एक प्रमुख पाये हो गये हैं. राजनीति का ‘कुछ न कुछ’ जैसे उन दलबदलुओं पर भी टिकने लगा है. संख्याबल के मद में चूर राजनीति फिलहाल इसके नुकसान को नहीं समझ पा रही है या इससे उदासीन है. हाल यह है कि इस राजनीतिक मसखरेपन की तात्कालिकता का मजा लेनेवाले इसकी दूरगामी पड़ताल नहीं कर पा रहे. ऐसे में झारखंड में अपनी जमीन बचाने की जद्दोजहद में जुटी पार्टियों के लिए सबसे बड़ा संकट है. चूंकि यह संकट मूल्यहीनता से उपजा है, इसलिए इसके दूरगामी प्रभाव को नजरअंदाज करना सबके लिए मुगालता साबित होगा. हो सकता है झारखंड पर छा जाने के जज्बे से जुटी पार्टियों के लिए यह राजनीति भस्मासुर साबित हो.