बिहार सरकार टीईटी की परीक्षा में क्वालिफाई करने के लिए न्यूनतम अंक 60 से घटा कर 50 करने जा रही है. सरकार का यह बहुत लोक लुभावन फैसला है, लेकिन राज्य की शिक्षा व्यवस्था पर इसका बहुत दूरगामी असर होगा. इस आशंका को कोई भी भांप सकता है.
अफसोस है कि विभागीय मंत्री वृशिण पटेल व उनके विभागीय अधिकारी इस फैसले का केवल तात्कालिक लाभ ही देख पा रहे हैं. राज्य में प्राथमिक स्तर की शिक्षा में किस कदर गिरावट आ रही है, इसकी हकीकत हर साल ‘असर’ नामक संस्था के अध्ययन में सामने आ जाती है. पांचवीं कक्षा के विद्यार्थियों को पहली कक्षा तक की हिंदी या गणित की जानकारी नहीं होती है. ये बच्चे कैसे हर साल पास करके अगली कक्षा में पहुंच जाते हैं, यह भी किसी पहेली से कम नहीं है.
राज्य के शैक्षणिक स्तर में सुधार के लिए पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अनिल सद्गोपाल समेत देश के चुनिंदा शिक्षाविदों की एक कमेटी बनायी थी. इस कमेटी ने बहुत सारे सुझाव दिये थे. लेकिन इन सुझावों पर समय रहते अमल नहीं किया गया. इसका नतीजा यह है कि राज्य में शिक्षकों की कमी है. शिक्षा विभाग के पास नीतियों का अभाव रहा.
शिक्षक प्रशिक्षण कालेज नहीं होने के कारण राज्य में प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है. शिक्षकों के पद खाली हैं. कुछ खास विषयों के लिए तो शिक्षकों का घोर अभाव है और सरकार भी यह मान चुकी है कि इन पदों को अभी नहीं भरा जा सकता है. सरकार की शैक्षणिक व्यवस्था में जुगाड़ तकनीक के कारण हालत यह है कि अब अप्रशिक्षित शिक्षितों को टीईटी में बैठने देने की अनुमति मांगी जा रही है. अगर, यह अनुमति नहीं मिलेगी, तो टीईटी के लिए अभ्यर्थी भी मुश्किल से मिलेंगे. शिक्षा मंत्री व उनके विभाग के अधिकारियों को भी मालूम है कि टीईटी क्वालिफाई के लिए उत्तीर्णाक को घटाना सही नहीं है. इससे सही शिक्षक नहीं मिल पायेंगे. मगर, सरकार के पास इसे घटाने के अलावा कोई दूसरा चारा भी नहीं है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का इस मामले में साफ निर्देश है कि बिना टीईटी पास किसी को भी शिक्षक पद पर नहीं रखा जा सकता है. सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश की काट के लिए अब पात्रता को ही कम करने का खेल रचा जा रहा है, जो खतरनाक है.