कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री का सपना
कश्मीर पहले से ही ‘अभिन्न अंग’ और ‘गले की नस’ होने के प्रतिस्पर्धात्मक मुहावरों में फंसा हुआ है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार कश्मीर समस्या के निवारण का जो तरीका अपना रही है, वह निश्चित रूप से विलगाव के नये रास्तों को प्रशस्त करेगा. लोगों की जनसंख्या और पहचान को चुनौती देकर उन्हें धक्का देने […]
कश्मीर पहले से ही ‘अभिन्न अंग’ और ‘गले की नस’ होने के प्रतिस्पर्धात्मक मुहावरों में फंसा हुआ है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार कश्मीर समस्या के निवारण का जो तरीका अपना रही है, वह निश्चित रूप से विलगाव के नये रास्तों को प्रशस्त करेगा. लोगों की जनसंख्या और पहचान को चुनौती देकर उन्हें धक्का देने का रवैया नये विद्रोहों को भड़का सकता है, जो नियंत्रित करने की उसकी वर्तमान क्षमता से परे जा सकता है.
चुनाव की घोषणा के साथ ही दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी ने भारत के एकमात्र मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य जम्मू-कश्मीर की विधानसभा में ‘पूर्ण बहुमत’ पाने का अपना संकल्प फिर से दोहराया है. भाजपा पहले ही राज्य में पहला हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की बात कह चुकी है. इस लक्ष्य का सीधे उल्लेख किये बिना पार्टी के प्रवक्ता नलिन कोहली ने 27 अक्तूबर को इस मुद्दे पर भाजपा का रुख एक बार फिर स्पष्ट किया. उन्होंने एक समाचार एजेंसी को दिये बयान में कहा, ‘जम्मू-कश्मीर का जो भी मुख्यमंत्री बनेगा, निश्चित रूप से वह राज्य का निवासी और विधानसभा का निर्वाचित सदस्य होगा. उसका कोई भी धर्म हो, यह आधार कोई बाधक कारक नहीं हो सकता है.’
भाजपा ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि वह कोई चुनाव-पूर्व गठबंधन नहीं करेगी और राज्य की सभी 87 सीटों पर अकेले चुनाव लड़ेगी. लोकसभा चुनाव में राज्य की तीन सीटों पर और हाल में हरियाणा और महाराष्ट्र की जीत से उत्साहित भाजपा जम्मू-कश्मीर में भी ‘नया इतिहास’ लिखने की तैयारी में है. भाजपा का यह सपना साकार होगा या नहीं, यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा, लेकिन पार्टी कश्मीर घाटी में जी-जान लगा कर पांव जमाने की कोशिश कर रही है, इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. कश्मीर में कुछ जाने-माने चेहरों के साथ हो रही गुप-चुप बैठकें और कुछ पेशेवर लोगों के भाजपा से जुड़ने से, भले ही यह संख्या बहुत बड़ी न हो, पार्टी के लिए जगह तो बनी ही है. केंद्र में सरकार होने से भी कुछ खास तरह के लोग इसकी तरफ आकर्षित हो रहे हैं, अन्यथा जो लोग राज्य को हिंदू-मुसलिम का मुद्दा बनाते रहे हैं, किसी और स्थिति में भाजपा के साथ उनके अच्छे संबंध बनाने की कोशिश की बात भी सोचना संभव नहीं था.
परंपरागत रूप से हिंदू-बहुल ढाई जिले भाजपा के जनाधारवाले क्षेत्र रहे हैं, लेकिन उसे कभी भी बहुत सीटें नहीं मिल सकी हैं. 2002 के विधानसभा चुनाव में जम्मू क्षेत्र की 37 में से 16 सीटें जीत कर कांग्रेस ने वापसी की थी. उसे घाटी में भी चार सीटें मिली थीं. लेकिन 2008 के चुनाव से ठीक पहले अमरनाथ भूमि विवाद के राजनीति पर हावी हो जाने से मिले झटके के कारण उसकी सीटों की संख्या 13 तक सिमट कर रह गयी. इस विवाद से हुए ध्रुवीकरण के कारण 2002 में मात्र एक सीट जीतनेवाली भाजपा 2008 में 11 के आंकड़े तक पहुंच गयी.
नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की गठबंधन सरकार द्वारा फैलाये गये भ्रष्टाचार और अशांति की स्थिति का लाभ उठा कर भाजपा ने जम्मू में अपने जनाधार को मजबूत करते हुए लोकसभा की दो सीटें जीत ली, साथ ही अपना प्रभाव लद्दाख तक बढ़ा लिया, जहां बौद्धों और मुसलिमों की मिली-जुली आबादी है. जम्मू में नेशनल कॉन्फ्रेंस द्वारा अपना जनाधार कांग्रेस के हाथों गंवा देने के कारण समीकरण में और बदलाव आया. इस कड़ी में अब नयी योजना घाटी में भी प्रभाव-विस्तार की है. हालांकि भाजपा के लिए घाटी में इस स्तर तक पांव जमा सकना आसान नहीं होगा कि वह सत्ता में आ जाये, परंतु अलगाववादियों द्वारा चुनाव बहिष्कार की घोषणा का आह्वान एक ऐसा उर्वर कारक है, जिस पर भाजपा भरोसा कर रही है.
जम्मू में जबरदस्त मोदी-भाजपा लहर होने के कारण 25 नवंबर से शुरू होनेवाले विधानसभा चुनाव के नतीजे चौंकानेवाले नहीं रह जायेंगे. यहां भाजपा ‘सेक्युलर’ कांग्रेस के भी बड़े जनाधार को अपनी ओर खींचेगी. यही कारण है कि कांग्रेस नेता जम्मू क्षेत्र में नजर नहीं आ रहे हैं. विधानसभा चुनाव में संभावित हार से आशंकित, हाल ही में राज्य सरकार से इस्तीफा देनेवाले वरिष्ठ कांग्रेसी नेता शामलाल शर्मा भी अब हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की वकालत करने लगे हैं. अपनी पार्टी के तथाकथित सेक्युलर चरित्र का पालन करते हुए वे भाजपा के जोरदार दबाव में आकर फंस गये. भले ही कांग्रेस ने उनके बयान से किनारा कर लिया है, लेकिन इससे बनते हुए रुझान का अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है.
विधानसभा की 87 सीटों में से पूर्ण बहुमत के लिए 44 सीटों के जादुई आंकड़े के लिए भाजपा जम्मू के अधिकतर मतों में हिस्सेदारी के साथ घाटी में भी कुछ सीटें जीतने की कोशिश में है. उसकी नजर सोपोर, हब्बा कादल, त्रल, अमीरा कादल और अनंतनाग पर है, जहां अलगाववादियों के बहिष्कार के कारण बहुत ही कम मतदान होता है. भाजपा की रणनीति बहुत सरल है- कश्मीरी पंडित समुदाय के मतदाताओं को रिझाना, जो भाजपा के कट्टर समर्थक हैं, साथ ही छोटे-छोटे महत्वहीन उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए प्रोत्साहित करना ताकि विरोधी मतों का विभाजन हो. कश्मीरी पंडित मतदाता के रूप में कश्मीर से बाहर पंजीकृत हैं और पार्टी उन्हें लामबंद करने की पूरी कोशिश कर रही है. भाजपा पिछले आम चुनाव में उत्तर प्रदेश में अपनायी गयी रणनीति को जम्मू में लागू कर पूर्ण प्रति-ध्रुवीकरण की जुगत लगा रही है तथा यह भी प्रयास कर रही है कि चेनाब और पीर पंजाल घाटियों में मुसलिम बहुल मतदाताओं का वोट विभाजित हो जाये.
हालांकि यह कोई संवैधानिक नियम नहीं है, लेकिन इस मुसलिम बहुसंख्यक राज्य का मुख्यमंत्री हमेशा मुसलिम ही रहा है. आम तौर पर यहां कश्मीरी ही मुख्यमंत्री बनते आये हैं, लेकिन 2005 में कांग्रेस के गुलाम नबी आजाद मुख्यमंत्री बने थे, जो जम्मू के भदेरवाह से हैं. 2011 की जनगणना के अनुसार राज्य की 71 फीसदी आबादी मुसलिम है और अगर भाजपा अपनी योजना में सफल हो जाती है, तो राज्य में बड़े बदलाव होंगे. सत्ता प्राप्त करने की कोशिश करना भाजपा का अधिकार है, लेकिन राजनीति की धारा को इस तरह से बदलने का उद्देश्य सिर्फ यह जताना है कि राज्य के बहुसंख्यक समुदाय का अब महत्व नहीं रहेगा. वैसे तो कश्मीर घाटी ने पिछले एक दशक के पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी-कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की सरकारों के दौरान बड़ी उपेक्षा सहन की है. गठबंधन के नाम पर कांग्रेस के मंत्रियों ने मुख्यमंत्रियों को बलैकमेल करने के नये कीर्तिमान स्थापित किये हैं.
कश्मीर पहले से ही ‘अभिन्न अंग’ और ‘गले की नस’ होने के प्रतिस्पर्धात्मक मुहावरों में फंसा हुआ है. केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा सरकार कश्मीर समस्या के निवारण का जो तरीका अपना रही है, वह निश्चित रूप से विलगाव के नये रास्तों को प्रशस्त करेगा. लोगों की जनसंख्या और पहचान को चुनौती देकर उन्हें धक्का देने का रवैया नये विद्रोहों को भड़का सकता है, जो नियंत्रित करने की उसकी वर्तमान क्षमता से परे जा सकता है. अगर भाजपा अपने बदलाव के इरादे को हकीकत में बदल देती है, तो कश्मीर 1586 की स्थिति में पहुंच सकता है, जब उसके बहुसंख्यकों को वास्तविक रूप से शक्तिहीन करने की शुरुआत मुगल बादशाह अकबर ने संप्रभु राजा युसूफ शाह चक को राज से बेदखल कर और उन्हें देश निकाला देकर की थी.
शुजात बुखारी
वरिष्ठ पत्रकार
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