सत्ता के द्वार नये जमाने की आहट

भाजपा के साहस भरे कदमों ने बाकी दलों को भी अपनी चाल और ताल बदलने के लिए मजबूर किया है और उनमें यह चिंतन चल पड़ा है कि अगर अपना अस्तित्व बचाना है, तो मोदी जैसी नयी पहल और नये प्रयोग करने का साहस जुटाना होगा. जो बात कल तक सोचने में भी संकोच करती […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 6, 2014 11:03 PM

भाजपा के साहस भरे कदमों ने बाकी दलों को भी अपनी चाल और ताल बदलने के लिए मजबूर किया है और उनमें यह चिंतन चल पड़ा है कि अगर अपना अस्तित्व बचाना है, तो मोदी जैसी नयी पहल और नये प्रयोग करने का साहस जुटाना होगा.

जो बात कल तक सोचने में भी संकोच करती थी, वह संभवत: पूरी होनेवाली है. नरेंद्र मोदी-अमित शाह का जादुई नेतृत्व जम्मू-कश्मीर में वह स्थिति पैदा करने की ओर बढ़ रहा है कि नयी सरकार भाजपा के नेतृत्व में बने. घाटी के मुसलमानों को अब तक भेड़-बकरियों की तरह इस्तेमाल करने और आतंकवाद व भ्रष्टाचार के बोझ तले आम लोगों को दबानेवाले अब्दुल्ला परिवार का शिकंजा टूटने लगा है और इसकी पहली आहट मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला द्वारा परंपरागत चुनाव क्षेत्र गंदरबल से पलायन करते ही मिली है. अब तक अब्दुल्ला परिवार ने जम्मू-कश्मीर को अपनी पारिवारिक जागीर की तरह इस्तेमाल किया. कभी अलगाववादियों का साथ दिया, कभी आतंकवादियों की धमकी का दिल्ली में ब्लैकमेल की तरह इस्तेमाल किया, जबकि जम्मू-कश्मीर के आम लोगों या घाटी के मुसलमानों और लद्दाख के बौद्धों को उनकी समस्याओं का समाधान करनेवाली साफ-सुथरी सरकार कभी नहीं दी. अब घाटी के मुसलमानों को भी अहसास होने लगा है कि अगर कोई उनकी जिंदगी में आर्थिक विकास ला सकता है, तो वह उम्मीद नरेंद्र मोदी से ही है. दिवाली का दिन कश्मीर के बाढ़ पीड़ितों के साथ बिता कर प्रधानमंत्री मोदी ने जो आत्मीयता भरा संदेश दिया उसका उनके दिलों पर भी असर हुआ है, जो अब तक मोदी के विरोधी थे. यानी राजनीति में ताजगी भरी नयी हवा महसूस होने लगी है.

उधर, महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस और हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर द्वारा शपथ ग्रहण एक पिटी-पिटायी लीक को तोड़ते हुए ताजगी भरी राजनीति की आहट है. दोनों ही नेताओं ने जमे-जमाये पुराने नेताओं की कतार को दरकिनार करते हुए एक आश्चर्यजनक दौर को शुरू किया. खट्टर कभी राजनीति की उस धारा में नहीं रहे, जिसमें पद और सुख-संपत्ति के योग से आगे बढ़ा जाता है. वह भीड़ में बाजार चले जायें, खरीदारी करने लगें, तो सब उन्हें भीड़ का ही हिस्सा मानेंगे, कोई खास, विशिष्ट या वीवीआइपी नहीं. उनके साथ कभी सुरक्षा सैनिक नहीं रहे, उन्होंने लाल बत्ती की गाड़ियों में हूटर बजाते हुए चलने का शौक नहीं पाला और न ही राजनीतिक चतुराई की शतरंज में गोटियां बिछायीं.

महाराष्ट्र में देवेंद्र फड़नवीस का भी ऐसा ही उदाहरण है. उनसे मैं जितनी भी बार मिला हूं, कभी नेता के बड़ेपन या कलफ लगे कुर्ते के आडंबर और अकड़ भरी भाषा का परिचय नहीं मिला. कंधे पर हाथ रख कर पान की दुकान पर बतियाना या पानी-पुरी खाते हुए गपशप करना और सामनेवाले को इस बात का कोई एहसास नहीं दिलाना कि देखो मैं कितना बड़ा हूं, फड़नवीस की ताकत बनी. महाराष्ट्र का यह सौभाग्य रहा कि कुछ वर्षो से वहां रविंद्र भुसारी जैसे संगठन मंत्री भाजपा को मिले. वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तपी-तपायी परंपरा में रचे-पगे ऐसे कार्यकर्ता हैं, जो भाजपा में जगन्नाथ राज जोशी और उत्तमराव पाटिल के सांचे में गढ़े लोगों की याद दिलाते हैं. इन दोनों के मेल ने महाराष्ट्र में एक ऐसा तलस्पर्शी कार्यकर्ता संजाल रचा, जो किसी के सहारे या बैसाखी का मोहताज बने बिना अपने दम पर सत्ता में आने को बेताब था.

शिवसेना के बिना सरकार बनाते हुए महाराष्ट्र ने संपूर्ण देश के संगठन को एक जबरदस्त संदेश दिया है. भाजपा अपनी उदारता और सदाशयता में अकसर अपने सहयोगी दलों को उनके न्यायपूर्ण हिस्से से भी ज्यादा देते हुए खुद दबी-दबी सी रहती है और कई बार कार्यकर्ताओं को तिरस्कार और घाव भी सहने पड़ते हैं. बिहार में यही हुआ था. नीतीश कुमार के साथ अंत तक भाजपा ने गंठबंधन जिंदा रखने का प्रयास किया और बदले में नीतीश कुमार ने अपमानित करने में कोई कसर नहीं रखी. यहां तक कि जब तीन साल पहले नरेंद्र मोदी के पटना के अखबारों में विज्ञापन छपे, तो उस समय भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी पटना में हो रही थी. कार्यकारिणी के सभी सदस्यों को नीतीश कुमार ने अपने घर पर भोजन के लिए आमंत्रित किया हुआ था, निमंत्रण पत्र भी बंट गये थे. भोजन से ठीक दो घंटे पहले कार्यक्रम रद्द कर दिया गया. इतनी अभद्रता की किससे अपेक्षा हो सकती है? फिर भी भाजपा ने गंठबंधन नहीं तोड़ा.

महाराष्ट्र और पंजाब में भी ऐसे उदाहरण हुए हैं, जिनसे भाजपा कार्यकर्ताओं को आहत होना पड़ा, फिर भी वे ‘हम अपनी तरफ से कुछ नहीं करेंगे’ की भावना से चुप रहे. शिवसेना यदि सौमनस्य और यथार्थता के आधार पर व्यवहार करती, तो आज दृश्य कुछ और ही होता.

हरियाणा और महाराष्ट्र के बाद अब जम्मू-कश्मीर, झारखंड, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और दक्षिण की बारी है. जम्मू-कश्मीर में भाजपा जिद के साथ अपनी सरकार बनाने के संकल्प से काम कर रही है. अगर ऐसा हुआ, तो इतिहास ही बदल जायेगा. नये माहौल से न केवल देश की तथाकथित सेक्युलर राजनीति ध्वस्त हो गयी है, बल्कि अहंकार के साथ अपने आप को देश का दिशा-दर्शक घोषित करनेवाले मीडिया के स्तंभकार और संपादक भी अपना पांडित्य भूल गये. देश में माना जाता रहा है कि जब तक आप अल्पसंख्यक राजनीति नहीं करेंगे, पुरानी लीक पर नहीं चलेंगे, तो चुनाव कैसे जीतेंगे? हिंदू भावनाओं पर कुठाराघात करना सेक्युलर राजनीति की मुख्य पहचान बन गयी है. आतंकवादियों को भी इस कारण से गिरफ्तार नहीं करने अथवा उनके साथ नरमी बरतने का चलन शुरू हुआ, क्योंकि वे एक खास मजहब को माननेवाले थे. मुसलिम वोट बैंक देश की सुरक्षा से भी बड़ा हो गया. पश्चिम बंगाल में बर्दवान जैसी घटनाएं इसी दुर्भाग्यजनित तथ्य की ओर इशारा करती हैं.

देश में सरकारी विफलताओं का सारा ठीकरा गंठबंधन की राजनीति पर फोड़ते हुए कुशासन और भ्रष्टाचार को सहन किये जाने की राजनीति चल पड़ी थी. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की नयी राजनीति ने पुरानी मान्यताओं को निर्थक साबित कर दिया और गंठबंधन की राजनीति का जमाना भी खत्म कर दिया. एक पार्टी की सरकार न केवल निर्णायक हो सकती है, बल्कि नये जमाने के नये नेताओं को सामने लाने की हिम्मत भी कर सकती है, यह बात अब सिद्ध होती दिख रही है. भाजपा के इस साहस भरे कदम ने बाकी दलों को भी अपनी चाल और ताल बदलने के लिए मजबूर किया है और उनमें यह चिंतन चल पड़ा है कि अगर अपना अस्तित्व बचाना है, तो मोदी जैसी नयी पहल और नये प्रयोग करने का साहस जुटाना होगा. पश्चिम बंगाल में अगले चुनावों में ममता बनर्जी को भाजपा से ही चुनौती मिलनेवाली है, माकपा या कांग्रेस से नहीं. यह बात अभी कुछ महीने पहले तक कोई सोच भी नहीं सकता था. नयी राजनीति के इस उदय ने परिवारवादी, सामंतशाही राजनीति के युग को चुनौती दी है. आनेवाले कुछ समय में अन्य भारतीय दलों का कलेवर और नेतृत्व अगर मोदी प्रभाव से बदलता दिखे, तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए.

तरुण विजय

राज्यसभा सांसद, भाजपा

tarunvijay2@yahoo.com

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