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इस विनाशकारी विकास को रोकें

हमारी भारतीय संस्कृति पश्चिमी देशों की तरह दुखांतक नहीं है. हमारी संस्कृति सुखांतक है, क्योंकि भारत उपभोग और विनाश की परिणति नहीं है और न हंसी-ठट्ठा और न ही अविश्वसनीय कल्पना ही. भारतीय मनीषा ने पृथ्वी और प्रकृति को अपने से महत्तर, पूजनीय और रक्षणीय माना है. यही वजह है कि हम वृक्ष, नदी, पर्वत […]

हमारी भारतीय संस्कृति पश्चिमी देशों की तरह दुखांतक नहीं है. हमारी संस्कृति सुखांतक है, क्योंकि भारत उपभोग और विनाश की परिणति नहीं है और न हंसी-ठट्ठा और न ही अविश्वसनीय कल्पना ही. भारतीय मनीषा ने पृथ्वी और प्रकृति को अपने से महत्तर, पूजनीय और रक्षणीय माना है. यही वजह है कि हम वृक्ष, नदी, पर्वत और यहां तक कि धरती और पत्थर के टुकड़े को भी पूजते और प्रणाम करते हैं. आधुनिक मनुष्यों ने वनों, खेतों और नगरों को भीमकाय निर्माणों से पाट दिया है.
वैज्ञानिक खोजों और उपलब्धियां ऐसे लोगों के हाथ चली जाती हैं, जिनका पूरा का पूरा जीवनचक्र ही प्रदूषण से भरा है. जो उनका उपयोग अपने स्वार्थो की पूर्ति के लिए करते हैं. गांधी इसे ही शैतानी सभ्यता कहते हैं. वहीं, जब मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ करना शुरू कर देता है, तो फिर प्रकृति अपना विकराल रूप दिखाना शुरू कर देती है. मनुष्य जगह-बेजगह गगनचंबी इमारतों को बना कर पृथ्वी के इंच-इंच पर अपना आधिपत्य जमाते जा रहे हैं, लेकिन वह प्रकृति के नियमों को समझ नहीं रहा है. इसी की परिणति प्राकृतिक आपदा और बढ़ते प्रदूषण के रूप में देखने को मिल रही है.
इससे पहले कि यह प्रदूषण और विनाशकारी विकास हमारे देश समेत पूरे संसार को लील ले, हम सभी को संभल जाना चाहिए. प्रकृति को अपनी सहचरी मानते हुए हम सभी को उसके अस्तित्व को बचाये रखने की दिशा में कारगर कदम उठाना चाहिए. पर्यावरण संरक्षण को लेकर मनुष्य आज असहिष्णु होता जा रहा है. हमें अपनी सभ्यता-संस्कृति और पर्यावरण को बचाये रखने के लिए सबसे पहले अपने समाज में व्याप्त वैचारिक प्रदूषण को दूर करना होगा.
प्रदीप कुमार सिंह, बड़कीपोना, रामगढ़

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