राज्य के विकास के लिए सशक्त नेतृत्व जरूरी

मनीषा प्रियम सहाय राजनीतिक विश्लेषक यह उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी विधानसभा चुनाव में झारखंड की जनता एक स्थायी और सशक्त नेतृत्व के हाथों में कमान सौंप कर राज्य को विकास के पथ पर आगे ले जाने का जनादेश देगी. राज्य में विकास की अपार संभावनाएं हैं. अगर सही दिशा और स्पष्ट सोच के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 8, 2014 5:23 AM
मनीषा प्रियम सहाय
राजनीतिक विश्लेषक
यह उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी विधानसभा चुनाव में झारखंड की जनता एक स्थायी और सशक्त नेतृत्व के हाथों में कमान सौंप कर राज्य को विकास के पथ पर आगे ले जाने का जनादेश देगी. राज्य में विकास की अपार संभावनाएं हैं. अगर सही दिशा और स्पष्ट सोच के साथ सरकारें काम करेंगी, तो प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड देश का सबसे विकसित राज्य बन सकता है.
वर्ष 2000 में भारत में राज्य विभाजन की एक नयी पद्धति का इस्तेमाल करते हुए बड़े राज्यों मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड और बिहार से झारखंड जैसे कुछ छोटे राज्य बनाये गये. इससे पहले राज्य पुनर्नियोजन आयोग भाषा को आधार मान कर नये राज्यों के गठन की अनुशंसा करते थे, इनमें प्रमुख था आंध्र प्रदेश का तमिल भाषी क्षेत्रों से अलग होना. भाषा की इन नीति को छोड़ कर यह समझा गया कि नया राज्य बनाने के लिए एक समुचित क्षेत्र भी मापदंड या पैमाना बन सकता है.
अर्थशास्त्रियों और विकासवादियों में यह मान्यता रही है कि छोटे राज्य विकास के फायदे पहुंचाने में बड़े राज्यों की अपेक्षा ज्यादा काबिल सिद्ध होते हैं. छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड राज्य अपने निर्माण के बाद पिछले डेढ़ दशक के दौरान विकास के कई पैमानों पर स्पष्ट बढ़त हासिल करते प्रतीत हो रहे हैं, इनमें झारखंड ही इकलौता राज्य है, जहां विकास की कोई विशेष दिशा और गति नहीं दिखायी पड़ती है.
छत्तीसगढ़ को जन वितरण प्रणाली को सफलतापूर्वक लागू करने के लिए हर स्तर पर सराहना मिली है. इस कारण वहां के मुख्यमंत्री रमन सिंह को ‘चावल बाबा’ की उपाधि भी मिल गयी. छत्तीसगढ़ के साथ उत्तराखंड में उस स्तर का विकास नहीं हुआ, लेकिन झारखंड के मुकाबले पूंजी निवेश और शैक्षणिक संस्थानों के खुलने की खबरें अकसर सामने आती रही हैं. हालांकि इन दोनों राज्यों की अंधाधुंध आर्थिक बढ़त वाले विकास मॉडल को लागू किये जाने को लेकर आलोचना भी ङोलनी पड़ी.
झारखंड और छत्तीसगढ़ को नक्सल चुनौती का भी सामना करना पड़ रहा है, लेकिन तुलनात्मक पृष्ठभूमि में झारखंड उससे सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक विकास में पिछड़ता गया. झारखंड की विशेष दुर्दशा यह भी रही है कि नक्सल विरोध की राजनीति केंद्र से तय की जाती रही और सारंडा कार्ययोजना जैसे महत्वपूर्ण कदम के बाद भी यह स्पष्ट नहीं है कि नक्सलियों से मुक्त इलाकों में आखिर कौन सी नयी पहल जमीन पकड़ेगी. आज भी मनोहरपुर ब्लॉक स्थित गांव के लोगों के लिए मंगायी गयी साइकिलें सड़क के अभाव में सरकारी दफ्तर में पड़ी हुई हैं. सड़क नहीं होने के कारण गांव के गरीबों की छत का सामान उन तक पहुंच नहीं पा रहा है. ऐसे में राज्य के गरीबों की संस्थाओं में आस बढ़े तो कैसे?
झारखंड के सघन जंगलों में जहां एक ओर खनिज और ऊर्जा के धनी स्नेत हैं, तो वहीं दूसरी ओर यहां की अधिकांश आबादी विश्व के सबसे गरीब की श्रेणी में आती है. राज्य की सबसे बड़ी चुनौती यह रही है कि गठन के बाद से ही यहां स्थायी सरकार और नेतृत्व की कमी रही है. राजनीतिक अस्थिरता और संसाधनों की लूट के कारण बिहार और झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री वहां की जेल में आते-जाते रहते हैं. झारखंड के एक पूर्व मुख्यमंत्री तो प्राकृतिक संसाधनों की बेशुमार लूट के कारण काफी समय से जेल में हैं.
झारखंड को गरीबी, बिना स्पष्ट सोच वाली राजनीति और दिशाहीनता ने काफी नुकसान पहुंचाया है. राजनीतिक अस्थिरता की अगर चरचा की जाये, तो यह इस राज्य का सबसे बड़ा दुर्भाग्य रहा है. राज्य में भाजपा की ओर से दो मुख्यमंत्री हुए, लेकिन दोनों के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था. पार्टी की अंदरूनी गुटबाजी के कारण पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने पार्टी को ही अलविदा कह दिया. अपने को कैडर आधारित पार्टी माननेवाली भाजपा के लिए यह एक बड़ा झटका रहा. दोबारा जब अजरुन मुंडा मुख्यमंत्री बनाये गये, तो उन्हें छोटे राजनीतिक दलों का सहारा लेना पड़ा और मुख्यमंत्री के साथ दो उपमुख्यमंत्री बना कर गद्दी का बांट-बंटवारा करना पड़ा. इस तरह सत्ता बंटवारे से राजनीतिक स्थिरता कैसे आ सकती है?
दूसरी ओर भाजपा विरोधी गंठबंधन ने भी कुछ विशेष राजनीतिक दम नहीं दिखाया. यहां तक कि पहली बार किसी राज्य का मुख्यमंत्री निर्दलीय विधायक बन गया. कांग्रेस, राजद, झामुमो और अन्य निर्दलीय विधायकों ने मधु कोड़ा सरकार का समर्थन किया. मधु कोड़ा कार्यकाल में झारखंड में खनिज संसाधनों की खुली लूट का खेल चला. इस लूट के मामले में कभी मुख्यमंत्री रहे कोड़ा आज जेल की सलाखों के पीछे हैं. कल्पना की जा सकती है कि ऐसे राजनीतिक नेतृत्व से राज्य का विकास कैसे संभव है?
झारखंड की राजनीति में भ्रष्टाचार का खेल इतना गहरा हो चुका है कि भारतीय इतिहास में पहली बार राज्यसभा चुनाव में पैसे के लेन-देन के कारण चुनाव रद्द करना पड़ा. इसमें विभिन्न दलों के दर्जनों विधायक जांच के घेरे में हैं. झारखंड थैलीशाहों के लिए राज्यसभा पहुंचने का पसंदीदा राज्य है. राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार के कारण ही प्राकृतिक संसाधनों के मामले में सबसे अमीर राज्य होने के बावजूद झारखंड विकास के मामले में सबसे पीछे है. वहां गरीबी और नक्सलवाद बढ़ता जा रहा है. आम जनता को मूलभूत सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं. विश्व में अफ्रीका के छोटे-छोटे देशों को छोड़ कर शायद ही कहीं ऐसी बातें सुनने को मिलती है. भारत के लोकतांत्रिक परिवेश में यह झारखंड में ही हुआ है.
एक सशक्त नेतृत्व की बदौलत राज्य विकास की नयी ऊचाइयों को छू सकता है. राज्य के लिए एक सशक्त नेतृत्व जरूरी है, नहीं तो जनता का राज्य की संस्थाओं से विश्वास ही उठ जायेगा और यह एक नवोदित राज्य के लिए सबसे गंभीर चुनौती बन जायेगी. यह उम्मीद की जानी चाहिए कि आगामी विधानसभा चुनाव में झारखंड की जनता एक स्थायी और सशक्त नेतृत्व के हाथों में कमान सौंप कर राज्य को विकास के पथ पर आगे ले जाने का जनादेश देगी. राज्य में विकास की अपार और असीम संभावनाएं हैं. अगर सही दिशा और स्पष्ट सोच के साथ सरकारें काम करेंगी, तो प्राकृतिक संपदा से भरपूर झारखंड भारत का सबसे विकसित राज्य बन सकता है.
(आलेख बातचीत पर आधारित)

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