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‘काला धन विरोधी’ पार्टियों को पारदर्शिता से परहेज
देश के राजनेताओं के बारे में शायर मरहूम मुजफ्फर रज्मी ने कभी कहा था, ‘ये रहबर हैं कि रहजन हैं, मसीहा हैं कि कातिल हैं/ हमें अपने नुमाइंदों का अंदाजा नहीं होता.’ भ्रष्टाचार और कालेधन के सवाल पर राजनीतिक दल और नेता बड़े-बड़े वादे करते रहते हैं, लेकिन जब कायदे-कानूनों के मुताबिक उन्हें अपना लेखा-जोखा […]
देश के राजनेताओं के बारे में शायर मरहूम मुजफ्फर रज्मी ने कभी कहा था, ‘ये रहबर हैं कि रहजन हैं, मसीहा हैं कि कातिल हैं/ हमें अपने नुमाइंदों का अंदाजा नहीं होता.’ भ्रष्टाचार और कालेधन के सवाल पर राजनीतिक दल और नेता बड़े-बड़े वादे करते रहते हैं, लेकिन जब कायदे-कानूनों के मुताबिक उन्हें अपना लेखा-जोखा देना होता है, तो वे नियमों की अनदेखी करने और जानकारियां छिपाने से बाज नहीं आते.
आज बेहिसाब लूट राजनीतिक संस्कृति का पर्याय बन गया है. कोई भी पार्टी इससे अछूता होने का दावा करने की स्थिति में नहीं है. देश से भ्रष्टाचार मिटाना और कालेधन की वसूली करना तो दूर की बात है, खुद पार्टियां अपने आय-व्यय का सही ब्योरा नहीं दे रही हैं. भारत के संसदीय लोकतंत्र की इस बड़ी चिंता के विविध पहलुओं पर बहस आज के समय में..
कालेधन की बैसाखी पर लड़खड़ाता स्वच्छ लोकतंत्र का सपना
कुमार प्रशांत
वरिष्ठ पत्रकार
.. हमारे राजनीतिक दल देश में काला धन बनाने के सबसे सुरक्षित कारखाने हैं. इसलिए चुनाव आयोग अभी जिस पारदर्शिता की मांग कर रहा है, वह काले धन के इस कारखाने को बंद करने की कोशिश है. इस कोशिश में देश का भला छुपा है. इससे देश के अर्थतंत्र को मजबूती मिलेगी और राजनीतिक दलों की भी आंतरिक सफाई हो जायेगी. गौर से देखें तो चुनाव आयोग की यह मांग असल में नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान का ही एक हिस्सा बन जाता है, जिसे अब तक नरेंद्र मोदी का ही समर्थन नहीं मिला है!
हमारे संसदीय लोकतंत्र की एक तसवीर ऐसी भी बनती है कि जैसे हमारा चुनाव आयोग संसदीय महाभारत के चक्रव्यूह में घुसा एक अभिमन्यु है! राजनीति के सारे चोर-डकैत-राहजन-लुटेरे-जालसाज-हत्यारे-भ्रष्ट कौरव मिल कर उसका वध कर देना चाहते हैं. वे इसके वध के लिए हर कदम पर, हर तरह की चाल चलते ही रहते हैं, लेकिन इस अभिमन्यु के पास संविधान नाम का एक कवच और न्यायपालिका नाम का एक हथियार है, जिसके बल पर वह लगातार युद्धरत है, ताकि हमारे चुनाव की पवित्रता और विश्वसनीयता बनी रहे. उस पौराणिक गाथा में एक अर्जुन नहीं था, तो सारे-के-सारे महारथी पांडव मिल कर भी अभिमन्यु का वध रोक नहीं सके थे. इस संसदीय महाभारत में भी हम देख रहे हैं कि चुनाव आयोग के साथ भी करीब-करीब ऐसी ही स्थिति है. वह लड़ तो रहा है, लेकिन क्या जीत भी रहा है?
लोकसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व जीत के बाद, 29 अगस्त, 2014 को चुनाव आयोग ने एक निर्देश पत्र जारी किया, जिसे नाम दिया ट्रांसपेरेंसी गाइडलाइन (पारदर्शिता निर्देश)! चुनाव आयोग को लग रहा है कि चुनाव के दिन लोग घरों से निकलें और वोटिंग मशीन का बटन दबाने जायें. यह उसकी जिम्मेवारी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा तो जरूर है, लेकिन यह न तो प्रारंभ है और न ही अंत! उसे लगता रहा है कि उसकी जिम्मेवारी वैसा माहौल बनाने और वैसी व्यवस्था खड़ी करने की है, जिसमें सभी राजनीतिक दल, सभी उम्मीदवार और सारे मतदाता यह महसूस करें कि वे सभी सामूहिक रूप से एक सच्चे व गतिशील लोकतंत्र के सिपाही हैं.
व्यवस्था का काम ही है कि वह कानून की कामना को समङो और उसे सिद्ध करने की व्यवस्था खड़ी करे. पारदर्शिता निर्देश द्वारा चुनाव आयोग ने इसी की कोशिश की. उसने अपना निर्देश सारे राजनीतिक दलों को भेजा और उनसे कहा कि देश के राजनीतिक व सामाजिक जीवन पर पड़नेवाली काले धन की काली छाया को काटना आप सभी का घोषित प्रण है, तो आप हमारी इतनी मदद करें कि अपने चुनाव कोष के संदर्भ में पारदर्शिता बरतें. उसने लिखा कि आप चुनाव कोष में जो चंदा लेते हैं, उसका पूरा विवरण आयोग को दीजिए.
आयोग को यह कहने की जरूरत क्यों पड़ी? आज चलन यह है कि सारे ही राजनीतिक दल जितना चुनावी चंदा जमा करते हैं, उसका विवरण देते समय उन राशियों का कोई विवरण नहीं देते हैं, जिनके बारे में वे कहते हैं कि ये सब 20 हजार रुपये से कम के दान हैं. 20 हजार से अधिक के दान के बारे में चलन यह है कि दानदाता का नाम, पता वगैरह सब हिसाब में दिखाना पड़ता है. यह सफेद पैसा है यानी वह पैसा जिसकी कुंडली चुनाव आयोग के पास है. लेकिन एक दूसरा पैसा भी होता है जो काला कहलाता है.
काला पैसा वह है जिसकी कुंडली सरकार को मालूम नहीं है. आयोग ने पाया कि सारे ही राजनीतिक दल जितनी चुनावी कमाई करते हैं, उसका सबसे बड़ा हिस्सा वे 20 हजार रुपये से कम के दानखाते में दिखाते हैं. मसलन 2012-13 के दौरान तमाम राजनीतिक दलों के पास 20 हजार रुपये से कम के दान के माध्यम से एक हजार करोड़ रुपये आये थे. आयोग ने और छानबीन की तो उसे पता चला कि पिछले 10 वर्षो में भाजपा समेत सारे राजनीतिक दलों के खातों में 5,800 रुपयों की राशि जमा हुई है, जिसका कोई विवरण राजनीतिक दलों ने आयोग को दिया ही नहीं है. राजनीतिक दल कहते हैं कि यह सारा दान छोटे-छोटे लोगों की श्रद्धा में से आया है. सबसे आला दावा तो बहुजन समाज पार्टी की तरफ से यह आया कि उसके खाते में जमा हुई 88 करोड़ रुपयों की पूरी-की-पूरी रकम 20 हजार से कम के दान से बनी है, इसलिए बसपा आयोग को कोई विवरण देने को बाध्य नहीं है.
आंकड़े जो कहानी कहते हैं, उससे ही देश की राजनीति में फैले काले धन के तंत्र व प्रभाव का अंदाजा लगाया जा सकता है. काला धन असल में तो काला नहीं होता है! यह तो वह धन है जिसके जन्म की कथा कोई जानता नहीं है; और जिसके खर्च की सिलसिलेवार कहानी किसी को बतायी नहीं जाती है. आपकी मेहनत का वही पैसा जो आपकी जेब में पड़ा-पड़ा लगातार अपनी ताकत खोता रहता है, काला धन बनते ही बेहद शक्तिशाली व आक्रामक हो जाता है. वह फिर शब्दभेदी वाण की तरह काम करता है.
अगर सच्चाई यह है कि 2012-13 में देश के सभी मान्य राजनीतिक दलों ने कुल 991 करोड़ रुपयों की कमाई की, जिसमें से 426 करोड़ रुपये कांग्रेस के खाते में आये, 324 करोड़ भारतीय जनता पार्टी के खाते में, 126 करोड़ सीपीएम के खाते में, 88 करोड़ रुपये बसपा के खाते में, 27 करोड़ रुपये शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के खाते में और एक करोड़ रुपये सीपीआइ के खाते में आये, तो सहज सवाल उठता है कि इतनी बड़ी रकम का देनदार कौन है? और जो है, क्या उसने देश के आर्थिक कानूनों के मुताबिक अपने धन में से देश का हिस्सा चुकाया है? सीधी बात करनी हो तो यह कि कहीं यह सारा गोरखधंधा सफेद धन को काला बनाने का तो नहीं है?
जब नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी ने काले धन की पाई-पाई वसूलने का सार्वजनिक व्रत ले रखा है, तब तो उसे आगे आकर बताना चाहिए कि उसके खाते में जमा 324 करोड़ रुपयों का स्नेत क्या है? और देश के आला अर्थशास्त्रियों से सजी-धजी कांग्रेस को बताना चाहिए कि उसके पास आये 426 करोड़ रुपयों का स्नेत क्या है? लेकिन इन सारे राजनीतिक दलों के प्रवक्ता की तरह कांग्रेस के खजांची मोतीलाल वोरा बोले-‘चुनाव आयोग अपनी हद से बाहर जा रहा है! उसे ऐसी पूछताछ का हक ही नहीं है. उसे यदि लगता है कि हमारे पास ऐसा धन है कि जिसकी जांच होनी चाहिए, तो उसे हमारे खिलाफ विधि मंत्रालय में शिकायत कर देनी चाहिए. विधि मंत्रालय इसे देखेगा.’ भारतीय जनता पार्टी समेत किसी भी राजनीतिक दल ने मोतीलाल वोरा के बयान पर आपत्ति नहीं की. इस मामले में इन सारे राजनीतिक दलों में ऐसी सम्मति है मानो मोतीलाल वोरा सबके सर्वमान्य खजांची हैं!
ऐसा नहीं है कि राजनीतिक कार्यो के लिए जनता से पैसा नहीं मिलता है. लेकिन देखना तो यह है कि क्या हमारे राजनीतिक दलों का कोई जनाधार भी है? किसे कितने फीसदी वोट मिले, अगर इसी आंकड़े को आधार बनायें, तो तसवीर खासी निराशाजनक है. 991 करोड़ रुपयों के हिसाब के जवाब में इन राजनीतिक दलों ने कुल 99 करोड़ रुपयों के दानदाताओं के नाम बताये हैं. बाकी बची 892 करोड़ रुपयों की रकम- जो इनके कहे मुताबिक 20 हजार रुपयों से कम के दानों से जमा हुई है. हम देखें तो इन राजनीतिक दलों की घोषित वैध सदस्यता का जोड़ भी इससे कहीं कम आता है. सड़क चलता आम आदमी किसी के चुनाव कोष में 19,999 रुपयों की रकम तो नहीं डालता है? फिर यह 892 करोड़ रुपयों की रकम आयी कहां से? 100 रुपये का औसत भी अगर हम पकड़ें, तो यह संख्या इतनी बड़ी हो जाती है जितने सदस्य या कार्यकर्ता सम्मिलित रूप से भी हमारे राजनीतिक दलों के पास नहीं हैं.
तो सीधा नतीजा यह निकलता है कि हमारे राजनीतिक दल देश में काला धन बनाने के सबसे सुरक्षित कारखाने हैं. इसलिए चुनाव आयोग अभी जिस पारदर्शिता की मांग कर रहा है, वह काले धन के इस कारखाने को बंद करने की कोशिश है. इस कोशिश में देश का भला छुपा है. इससे देश के अर्थतंत्र को मजबूती मिलेगी और राजनीतिक दलों की भी आंतरिक सफाई हो जायेगी. गौर से देखें तो चुनाव आयोग की यह मांग असल में नरेंद्र मोदी के स्वच्छ भारत अभियान का ही एक हिस्सा बन जाता है, जिसे अब तक नरेंद्र मोदी का ही समर्थन नहीं मिला है!
दुनिया के चुनाव तंत्र पर नजर डालें, तो हम पाते हैं कि हमारे पड़ोसी भूटान व नेपाल का चुनावी कानून कहता है कि चुनाव कोष में आये हर दान के साथ दानदाता का नाम-पता बताना अनिवार्य है, भले ही उसने रकम कितनी भी दी हो. यही कानूनी व्यवस्था जर्मनी, ब्राजील, इटली, बुल्गेरिया, अमेरिका, जापान, फ्रांस आदि में भी है. इसी व्यवस्था का दूसरा हिस्सा है कि चुनाव के बाद आप चुनाव खर्च का पूरा ब्योरा चुनाव आयोग को सौंपें. चुनाव आयोग द्वारा जारी ताजा जानकारी के मुताबिक, लोकसभा चुनाव के बाद से अब तक कांग्रेस, भाजपा, आम आदमी पार्टी, समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, टीआरएस, जनता दल(यू) ने अपने खर्च का ब्योरा नहीं जमा किया है. जो जानकारी दी गयी है, वह आधी-अधूरी खानापूर्ति भर है. सिर्फ तीन राजनीतिक दलों ने समय से, विधिवत अपना चुनाव खर्च आयोग को सौंपा है- मायावती की बसपा (30.06 करोड़), सीपीएम (18.69 करोड़) तथा शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस (51.34 करोड़).
हमारा लोकतंत्र विकसित तो हुआ है, लेकिन विकृत भी हुआ है. कभी जयप्रकाश नारायण ने इसकी तुलना उस कुत्ते से की थी, जो सूखी हड्डी चूस रहा है और चूसने की इस कसरत में हुए जख्म से रिसते अपने ही खून का स्वाद ले रहा है! यह परिदृश्य बेहद खतरनाक है. चुनाव आयोग को अब इतनी शक्ति देने की जरूरत आ गयी है कि वह निर्देश भर न दे, उसका पालन भी करवा सके. संविधानसम्मत व न्यायपालिका समर्थित चुनाव आयोग ही अब हमारे लोकतंत्र की अंतिम आशा है.
पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र और वित्तीय पारदर्शिता है जरूरी
प्रो जगदीप छोकर
नेशनल इलेक्शन वॉच के संस्थापक सदस्य
एक बात तो साफ है कि राजनीतिक दलों को मिलनेवाले चंदे के 75-80 फीसदी हिस्से के स्नेत का पता नहीं होता है. कोई भी राजनीतिक दल चंदे के स्नेत को सार्वजनिक नहीं करना चाहता है. इससे स्पष्ट जाहिर होता है कि अगर कोई कुछ नहीं बताना चाहता है, तो कहीं कुछ गड़बड़ जरूर है. जिस तेजी से दिन-प्रतिदिन चुनाव खर्चीला होता जा रहा है और करोड़पति सांसदों, विधायकों की संख्या बढ़ती जा रही है, वह हमारे लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं है. चुनावों के दौरान धनबल और बाहुबल के बढ़ते प्रयोग से आम लोगों की लोकतंत्र में आस्था कम हो रही है. हालांकि चुनाव आयोग की सख्ती और लोगों में जागरूकता के कारण बाहुबल का प्रयोग कुछ हद तक कम हुआ है, लेकिन धनबल का प्रयोग अभी भी बढ़ता जा रहा है.
पिछले कुछ वर्षो में चुनावों में काले धन का प्रयोग तेजी से बढ़ा है. चुनावों में धनबल पर रोक लगाने के लिए कानून बनाना होगा. चुनाव-सुधार की दिशा में कदम उठाने होंगे. लेकिन कानून संसद बनाती है और जब तक जनप्रतिनिधि नहीं चाहेंगे, तब तक चुनाव-सुधार संबंधी कानून नहीं बन सकता. अगर जनप्रतिनिधि अपने हित के बजाय देशहित को तवज्जो दें, तो इस दिशा में काम हो सकता है. यह काम आसानी से नहीं होनेवाला है. इसके लिए आम जनता, स्वयंसेवक संस्था और न्यायपालिका को सक्रिय भूमिका निभानी होगी. राजनीतिक दल सिर्फ चुनाव-सुधार पर बातें करते रहते हैं, लेकिन उनका मकसद इसे लागू करना नहीं होता है. राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनाव का मतलब सिर्फ सत्ता हासिल करना है. जबकि, सत्ता का मतलब है गुड गवर्नेस और पारदर्शिता. जब तक राजनीतिक दल अपने स्वार्थो से ऊपर उठ कर काम नहीं करेंगे, तब तक हालात नहीं बदलनेवाले हैं.
दूसरी बात यह है कि कानून बनानेवाले जनप्रतिनिधियों को भी शिक्षित बनाना होगा. सरकारी कामकाज में पारदर्शिता की काफी कमी है. अधिकतर कॉरपोरेट घराने राजनीतिक दलों को चंदा मुहैया कराते हैं. लेकिन कौन किसे पैसा दे रहा है, इस बारे में राजनीतिक दल कुछ भी बताना नहीं चाहते हैं. यही कारण है कि राजनीतिक दल सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आने के इच्छुक नहीं हैं. ऐसा लगता है कि राजनीतिक दलों के लिए कोई कानून नहीं है. वैसे भी देश का कानून काफी फैला हुआ है. कानूनों में स्पष्टता नहीं है और इसी का फायदा राजनीतिक दल उठा रहे हैं. मौजूदा हालात में देश का एक आम आदमी चुनावी प्रक्रिया में शामिल नहीं हो सकता है. सवाल है कि चुनावी खर्च क्यों बढ़ा है? मेरा मानना है कि उम्मीदवार खुद खर्च बढ़ा रहे हैं.
आज पार्टियां ऐसे लोगों को उम्मीदवार बनाती है, जिनका जनता से सीधा संवाद नहीं होता है. टिकट हासिल करने के लिए पैसे का खेल हो रहा है. लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर कोई भी किसी दल का उम्मीदवार बन रहा है. अब यह तो जाहिर है कि जो व्यक्ति पैसे देकर टिकट हासिल करेगा, वह जीतने के लिए भी बड़े पैमाने पर पैसा खर्च करेगा और जीतने के बाद सबसे पहले अपना खर्च निकालेगा.
मेरा मानना है कि अगर टिकट वितरण प्रणाली लोकतांत्रिक और पारदर्शी हो जाये, तो चुनावों में धनबल के प्रभाव पर काफी हद तक रोक लगाने में मदद मिलेगी. साथ ही पार्टियां क्षेत्र-विशेष से ऐसे लोगों को चुने, जो वहां का स्थानीय नागरिक हो. राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र और वित्तीय पारदर्शिता आ जाये, तो लोकतंत्र खुद-ब-खुद मजबूत हो जायेगा. आज कुछेक पार्टियों को छोड़ कर किसी भी दल में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है. पार्टियों में या तो परिवार हावी है या व्यक्ति. जब तक पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होगा, देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था मजबूत नहीं होगी. क्षेत्रीय दल से लेकर राष्ट्रीय दलों को आंतरिक लोकतंत्र और वित्तीय पारदर्शिता की ओर कदम बढ़ाना होगा, तभी चुनाव-सुधार का सही उद्देश्य हासिल हो पायेगा.
कानूनी तौर पर आज भले ही लोकसभा और विधानसभा चुनाव की खर्च सीमा निर्धारित है, लेकिन शायद ही ऐसा कोई उम्मीदवार होगा, जो इससे अधिक खर्च नहीं करता होगा. आजकल काले धन पर खूब चरचा हो रही है, लेकिन जब तक राजनीतिक प्रणाली और पार्टियों के चंदे की प्रक्रिया पारदर्शी नहीं होगी, चुनावों में काले धन के प्रयोग पर रोक लगाना मुश्किल है. अगर भारत की चुनावी प्रणाली पारदर्शी हो गयी, तो न सिर्फ लोगों का लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भरोसा और भी मजबूत होगा, बल्कि भ्रष्टाचार पर भी व्यापक लगाम लग पायेगी. चुनाव-सुधार की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने हाल के वर्षो में कुछ बड़े फैसले सुनाये हैं और जनमत के दबाव में सरकार को इसे मानना पड़ा है. अब राजनीतिक फंडिंग को लेकर दलों को पारदर्शी रवैया अपनाने की दिशा में कदम बढ़ाना होगा. मेरा मानना है कि अगर राजनीतिक इच्छाशक्ति हो तो इसे लागू करने में कोई अड़चन नहीं होगी.
(विनय तिवारी से बातचीत पर आधारित)
राजनीतिक हथकंडों से नहीं रुकेगा काला धन
अनुपमा झा
ट्रेस इंटरनेशनल जो कि भ्रष्टाचार नियंत्रण पर काम करती है.
यह कोई नहीं बताता कि सारे राजनीतिक दल काला धन का इस्तेमाल करते हुए ही चुनाव लड़ते हैं. काला धन के मसले को चुनावी राजनीति का हथियार बनाया जाता है, लेकिन काला धन के निर्माण की प्रक्रिया को किस तरह से हतोत्साहित किया जाये, इस सवाल पर कोई भी कुछ नहीं बोलता.
केंद्र में सत्तारूढ़ एनडीए की सरकार और उसके मुखिया नरेंद्र मोदी ने पूरा चुनाव जनता को यही सपना दिखाते हुए लड़ा और जीत भी हासिल की कि अगर ‘हमारी सरकार आयेगी तो हम विदेशों में जमा सारा काला धन भारत वापस लेकर आयेंगे’. जनता में यह भी उम्मीद जगायी गयी कि अगर काला धन वापस आ जाता है, तो देश के हर नागरिक के खाते में इतनी रकम जमा कर दी जायेगी कि उन्हें कोई परेशानी नहीं होगी. सरकार तो बन गयी. लेकिन अब, जब वादा निभाने का वक्त आया है, तो तमाम तरह के बहाने बनाये जा रहे हैं. यह बात चुनाव के पहले भी इन राजनेताओं को मालूम थी कि काला धन वापस नहीं लाया जा सकता. काला धन वापस लाने में किस देश ने कामयाबी हासिल की है, इनमें से ज्यादातर नेताओं को अभी तक इस बात की जानकारी नहीं है. सिर्फ दो देशों- नाइजीरिया और फिलीपिंस ने ही अभी तक काला धन वापस लाने में सफलता पायी है. यह तो हुई विदेश में जमा काला धन की बात.
दूसरी बात यह है कि इस देश में जो भी दावे किये जा रहे थे या किये जा रहे हैं कि काला धन का एक-एक पैसा वापस लाया जायेगा, तो ऐसा लगता है कि ये सब केवल जनता को बरगलाने के लिए था या है. राजनीतिक दल यह भी नहीं बताते कि उनके कथनानुसार, अगर इतने बड़े पैमाने पर काला धन देश में लाया भी जाता है और उस पैसे को अर्थव्यवस्था में लगाया जाता है, तो मुद्रास्फीति कितनी बढ़ेगी? यदि बड़े पैमाने पर निवेश होता है और इंफ्रास्ट्रर क्षेत्र में बड़ी कंपनियां आती हैं, तो स्वाभाविक रूप से काले धन की आवक बढ़ेगी. इसलिए इस चुनौती के लिए भी देश को तैयार रहना होगा.
राजनीतिक दलों को जो भी कहना चाहिए पूरी जिम्मेवारी के साथ कहना चाहिए. हमारे नेता चाहे किसी भी दल के हों, देश में जमा काले धन के सवाल पर चुप्पी साध लेते हैं. इस देश के राजनेता काले धन के सवाल पर चुनाव तो लड़ते हैं, लेकिन यह कोई नहीं बताता कि सारे राजनीतिक दल काला धन का इस्तेमाल करते हुए ही चुनाव लड़ते हैं. काला धन के मसले को चुनावी राजनीति का हथियार बनाया जाता है, लेकिन काला धन के निर्माण की प्रक्रिया को किस तरह से हतोत्साहित किया जाये, इस सवाल पर कोई भी कुछ नहीं बोलता.
ऐसी बात बिल्कुल भी नहीं है कि देश में भ्रष्टाचार से निपटने के लिए भ्रष्टाचार नियंत्रक कानूनों की कमी है, लेकिन इन कानूनों का कार्यान्वयन ठीक तरीके से हो, इसको सुनिश्चित नहीं किया जाता है. गौरतलब है कि राजनीतिक दल आरटीआइ के दयरे में नहीं हैं. जब कभी भी राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने का प्रयास होता है, तो सभी राजनीतिक दल अपनी स्वायत्तता पर हमला बताते हुए इसका विरोध करते हैं. यह कहा जाता है कि हमने आयकर चुकाया है और आयकर के जरिये सारी जानकारी दी गयी है.
इस तर्क के सहारे तो कोई भी कह सकता है कि हमने आयकर को सारी सूचना दी है, इसलिए उन्हे आरटीआइ के दायरे में नहीं रखा जाना चाहिए. राजनीतिक दल अपने लिए कोई और नियम चाहते हैं और जनता के लिए कोई दूसरा नियम. एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह दोहरा मापदंड किसी भी तरह से उचित नहीं ठहराया जा सकता. ज्यादातर राजनीतिक दल जिन बड़ी कंपनियों से पैसा लेते हैं, या सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों द्वारा जो चंदा दिया जाता है, उसकी कोई जानकारी नहीं दी जाती है. इसके साथ ही, जो छोटे-छोटे चंदे आते हैं, उनकी जानकारी भी नहीं दी जाती है. बसपा सहित देश के कई राजनीतिक दलों ने तो यह कहा ही है कि उनका ज्यादातर चंदा छोटे-छोटे पार्टी कार्यकर्ताओं और पार्टी समर्थकों से आता है. ऐसे में इन पैसों का सही हिसाब-किताब रख पाना मुश्किल है.
अब इस मनोवृत्ति के रहते कालाधन की चुनौती से कैसे निपटा जा सकता है. इस देश में भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जिन एजेंसियों का निर्माण किया गया है, उन्हें कमजोर किया जा रहा है. मुख्य सूचना आयुक्त का पद खाली है. मुख्य सतर्कता आयुक्त के पद पर भी किसी की नियुक्ति नहीं की गयी है. इस मनोवृत्ति के रहते हम न तो काला धन देश में वापस ला सकते हैं और नही इस पर कोई रोक लगाया जा सकता है, चाहे वह काला धन देशे में हो या विदेश में.
भ्रष्टाचार पर शिकंजा और विकास को तेज किये जाने के मसले पर जिस तरह से आंकड़ों की बाजीगरी हो रही है और मार्केटिंग की जा रही है, यह अच्छी बात है. लेकिन, सिर्फ इनके सहारे ही देश में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आयेगा और मेक इन इंडिया कार्यक्रम को गति मिलेगी, ऐसा बिल्कुल भी नहीं है. भारत पर तेजी से शिकंजा कसता जा रहा है और भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के अभाव के कारण जिस तरह की छवि देश की बनी है, उससे कोई भी विदेशी निवेशक यहां नहीं आना चाहता. हमें समय रहते इन सब बातों पर भी गौर करना होगा.
राजनेताओं द्वारा जुटायी जा रही अकूत संपदा और किसी आम आदमी के लिए राजनीतिक व्यवस्था में प्रवेश करने में होनेवाली दिक्कतों का परिणाम है कि धीरे-धीरे लोगों में नैतिकता कम हो रही है, और शासन का स्तर गिरता जा रहा है. चुनाव सुधार की मांग इस देश मे लंबे समय से लंबित है. जब तक चुनाव सुधार नहीं होगा और राजनीतिक दलों के चंदे को लेकर कोई पारदर्शी व्यवस्था नहीं बनायी जायेगी, तब तक काला धन को लेकर कोई ठोस पहल नहीं हो सकती.
इस देश में पिछले कुछ वर्षो में लोकपाल के मसले पर लंबा संघर्ष हुआ. इस मसले पर भी जब तक आमलोग एकजुट होकर राजनेताओं और राजनीतिक व्यवस्था का विरोध नहीं करेंगे, तब तक भ्रष्टाचार कभी खत्म नहीं होगा. हम लगातार राजनीतिज्ञों के भ्रष्टाचार और उनके द्वारा की जा रही गलतियों के शिकार होते रहे हैं. इसकी वजह से आम जनता का राजनीतिक व्यवस्था और राजनीतिज्ञों के प्रति विश्वास कम हुआ है.
(संतोष कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)
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