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जामा मसजिद पर बुखारी का हक नहीं

एमजे अकबर प्रवक्ता, भाजपा बुखारी ने खुद को एक इमाम की तरह नहीं, बल्कि जामा मसजिद के छोटे नवाब के रूप में स्थापित कर लिया है. समय आ गया है कि एक भटके हुए इमाम द्वारा यह फैसला करने की जगह कि अच्छा मुसलमान कौन है, ईमानदार भारतीय मुसलमान यह तय करें कि अच्छा इमाम […]

एमजे अकबर
प्रवक्ता, भाजपा
बुखारी ने खुद को एक इमाम की तरह नहीं, बल्कि जामा मसजिद के छोटे नवाब के रूप में स्थापित कर लिया है. समय आ गया है कि एक भटके हुए इमाम द्वारा यह फैसला करने की जगह कि अच्छा मुसलमान कौन है, ईमानदार भारतीय मुसलमान यह तय करें कि अच्छा इमाम कौन है.
जहालत और शेखी का संगम कामचलाऊ बंदूक की तरह है. बंदूक में एक सुरक्षा स्विच होना चाहिए, लेकिन आदमी का रवैया अकसर कमजोर दिमाग के घमंड का शिकार हो जाता है. फा से मुसलिम यह दावा करते हैं कि दौर-ए-जाहिलिया यानी अज्ञान का काल रेगिस्तानी शहर मक्का में पैगम्बर हजरत मुहम्मद के पास इसलाम का संदेश आने के साथ ही खत्म हो गया था. लेकिन अफसोस है कि मुसलिम दुनिया के अनेक हिस्सों में जहालत अब भी मौजूद है. उसे भारतीय इसलाम के शानदार प्रतीक दिल्ली के जामा मसजिद में अस्थायी ठिकाना भी मिला गया है.
अगर इस मसजिद के इमाम सैयद अहमद बुखारी की शेखी खुद को चोटिल करने की कोशिश होती, तो फिर उसका कोई मतलब नहीं होता. लेकिन बुखारी को इमाम होने की वजह से मीडिया में जगह मिलती है और इस वजह से भारतीय मुसलमानों की छवि पर भी असर पड़ता है. जब वे कहते हैं कि वे अपने 19 साल के बेटे की दस्तारबंदी में भारत के प्रधानमंत्री को आमंत्रित नहीं करेंगे, लेकिन वे पाकिस्तान के नेता की मौजूदगी पसंद करेंगे, तो वे बेवकूफियों को अंजाम दे रहे हैं. भारतीय मुसलमानों का जुड़ाव अपने देश के नेताओं के साथ है, न कि अन्य देश के नेताओं के साथ. लेकिन, सवालात करने का यह सही मौका है.
इसलाम में मसजिद कब से निजी संपत्ति होने लगी? जामा मसजिद पर बुखारी परिवार को खानदानी हक किसने दे दिया? मसजिद से होनेवाली आय को उनकी जेब में जाने की अनुमति किसने दी? मसजिद वक्फ की संपत्ति है, इसलिए इसकी मिल्कीयत दिल्ली वक्फ बोर्ड के पास है. बुखारी मसजिद के इमाम होने के खानदानी हक का दावा करते हैं, क्योंकि 16 पीढ़ियों पहले उनके एक पूर्वज को मसजिद बनवानेवाले बादशाह ने इमाम बनाया था. वर्तमान में यह दावा एक अवैधानिक तर्क है. अगर इसे माना जाये, तो फिर शाहजहां के तबाह हो चुके वंशजों को दिल्ली में हुकूमत करने की दरख्वास्त भेजनी चाहिए.
मसजिद हमेशा मुसलिम समुदाय के लिए तामीर होती है. पहली मसजिद खुद पैगम्बर मुहम्मद ने मदीना शहर में बनायी थी. वह आज भी दुनिया भर के मुसलमानों को आकर्षित करती है. क्या पैगम्बर ने वह मसजिद अपने दामाद हजरत अली व अपनी बेटी बीबी फातिमा को दे दी थी? नहीं. भारतीय मुसलमानों ने खुद पैगम्बर द्वारा स्थापित नीति को क्यों छोड़ दिया है? मक्का, जहां मुसलिम हज के लिए जाते हैं, और मदीना में दो पवित्र मसजिदें हैं. पिछली 14 सदियों से खलीफाओं और सुल्तानों ने बाहरी खतरों व भीतरी झगड़ों से इन मसजिदों की हिफाजत की है.
हर शासक खुद को मसजिदों का सेवक भर ही कहता है. जब उस्मान वंश का महान शासक सुल्तान सलीम प्रथम मामलुक शासकों को हरा कर खलीफा बने और अलेप्पो की बड़ी मसजिद में जुमे की नमाज पढ़ने गये, तो घबराये इमाम ने अपने खुत्बे में उन्हें स्वामी कहा, तो सलीम ने तुरंत टोका. खलीफा ने कहा कि वह बस एक सेवक है.
मक्का और मदीना के इमामों के पास वंशानुगत अधिकार नहीं होते हैं. उनकी बहाली सऊदी कानून के मुताबिक होती है और उन्हें उनके जीवनकाल में ही बदला भी जा सकता है. उनके चयन के आधार निश्चित हैं- कुरान व सुन्ना की जानकारी तथा चारित्रिक पवित्रता. लेकिन जामा मसजिद में हमने एक वंश को पनपने की छूट दे दी है. यह इसलामी आचार-व्यवहार के विरुद्ध है. ऐसा क्यों हुआ? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है. इसका असली कारण समुदाय की जड़ता है.
भारत में अनगिनत मसजिदें हैं. हर मसजिद में मुसलिम समुदाय की मर्जी के मुताबिक इमाम चुने गये हैं. यह सिद्धांत जामा मसजिद पर भी लागू होना चाहिए, क्योंकि इबादत की जगह समुदाय की होती है, न कि नमाज पढ़ानेवाले की. अब यह पुरानी दिल्ली के मुसलमानों पर निर्भर है कि वे लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अनुसार मसजिद कमिटी बनायें और इस कमिटी को निश्चित अवधि के लिए इमाम चुनने का अधिकार दें.
अब समय आ गया है कि मीडिया व राजनेता बुखारी जैसों के पैंतरों में पड़ कर उसे महत्व देना बंद करें. आखिर वे अपने सिवा और किसका प्रतिनिधित्व करते हैं? क्या कभी वे अपने स्थानीय क्षेत्र से चुनाव लड़ने की हिम्मत कर सकते हैं? तब हम उनके अपने ही क्षेत्र में उनके समर्थन का अंदाजा लगा सकेंगे. इसमें कोई संदेह नहीं है कि वे हार जायेंगे.
इमाम बुखारी ने अपने को एक इमाम की तरह नहीं, बल्कि जामा मसजिद के छोटे नवाब के रूप में स्थापित कर लिया है. दरअसल, लोग हस्तक्षेप करने से डरते हैं, क्योंकि उन्हें पता नहीं है कि यह कैसे किया जाये. अब समय आ गया है कि एक भटके हुए इमाम द्वारा यह फैसला करने की जगह कि अच्छा मुसलमान कौन है, ईमानदार भारतीय मुसलमान यह तय करें कि अच्छा इमाम कौन है.

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