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झारखंड में चुनाव का असली मुद्दा

रविभूषण वरिष्ठ साहित्यकार भाजपा का ‘पूर्ण बहुमत, संपूर्ण विकास’ का नारा कितना सही है? ‘संपूर्ण विकास’ का संबंध विकास और सर्वागीण दृष्टि से संभव है या मात्र ‘पूर्ण बहुमत’ से? आकर्षक मुहावरे और स्लोगन से चुनाव जीता जा सकता है, विकास नहीं किया जा सकता. सन् 2000 में राजग ने सोची-समझी दूरगामी अर्थनीति व राजनीति […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 10, 2014 1:32 AM
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रविभूषण

वरिष्ठ साहित्यकार

भाजपा का ‘पूर्ण बहुमत, संपूर्ण विकास’ का नारा कितना सही है? ‘संपूर्ण विकास’ का संबंध विकास और सर्वागीण दृष्टि से संभव है या मात्र ‘पूर्ण बहुमत’ से? आकर्षक मुहावरे और स्लोगन से चुनाव जीता जा सकता है, विकास नहीं किया जा सकता.

सन् 2000 में राजग ने सोची-समझी दूरगामी अर्थनीति व राजनीति के तहत हिंदी प्रदेश के तीन राज्यों को तीन हिस्सों में विभाजित किया. झारखंड की तुलना में उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ के विकास की चर्चा करनेवाले अकसर इस तथ्य को छुपा लेते हैं कि इन दोनों राज्यों में ठेकेदारों, बिल्डरों, कॉरपोरेट घरानों और पूंजीपतियों ने सरकार के साथ मिल कर जो ‘विकास’ किया है, उसका वास्तविक चेहरा कुछ और है. छत्तीसगढ़ बनने से पहले वहां ‘माओवाद’ कहां और किस स्थिति में था?

झारखंड बनने से पहले इस राज्य में नक्सली समस्या कहां-कितनी थी? नक्सलवाद को झारखंड की मूल समस्या बताने और सिद्ध करनेवाले नेता, अधिकारी, पत्रकार और बुद्धिजीवी यह भूल जाते हैं कि सरकारी फाइलों के हजारों पृष्ठों में ‘नक्सलवाद’ को ‘समाजार्थिक समस्या’ के रूप में देखा जाता रहा है.

झारखंड में विधानसभा चुनाव का असली मुद्दा क्या है? क्या होना चाहिए? चौदह वर्ष में नौ मुख्यमंत्री, आठ राज्यपाल, नौ विधानसभा अध्यक्ष बने. तीन बार राष्ट्रपति शासन लगा. इन चौदह वर्षो में जितने नेता जेल गये हैं, उससे तीस गुना अधिक अधिकारियों-कर्मचारियों ने जेल की हवा खायी है. झारखंड लोकसेवा के अध्यक्ष और सभी सदस्य जेल गये. अवैध नियुक्ति-प्रोन्नति का सिलसिला बना. विधायकों ने आठ बार अपना वेतन-भत्ता बढ़ाया. दो वर्ष से भी कम समय में स्वयं अपना वेतन-भत्ता बढ़ाने का यह अनूठा उदाहरण है. केंद्रीय-राज्य कर्मचारियों का वेतन दस वर्ष बाद संशोधित किया जाता है. रकीबुल प्रकरण से राज्य की न्याय-व्यवस्था की झलक मिलती है. उदाहरण अनेक हैं.

ब्योरेवार तथ्यपूर्ण रूप से बीते चौदह वर्ष का मुकम्मल इतिहास लिखा जाना बाकी है. 15 नवंबर को राज्य स्थापना दिवस पर होनेवाले कार्यक्रमों का झारखंड की सामाजिक-सांस्कृतिक, आर्थिक-राजनीतिक असलियत से कोई संबंध नहीं है. बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हो आदि का उल्लेख भर होता है. उलगुलान का स्वप्न खंडित हो चुका है. कांग्रेस, भाजपा, झामुमो, झाविमो, राजद, आजसू, जदयू और निर्दलीय विधायकों के यहां छापे पड़ चुके हैं. दुग्ध-धवल कोई दल नहीं है.

झारखंड एक बंधक राज्य है. विश्व शक्तियों से लेकर स्थानीय शक्तियों के महाजाल में फंसा देश का सबसे अधिक खनिज बहुल राज्य. इसकी ‘कोख में अमीरी और गोद में गरीबी’ क्यों है? कोख पर लंबे समय से लुटेरों की आंखें लगी हैं. ये लुटेरे सभी क्षेत्रों के हैं. बड़ी-बड़ी हस्तियां हैं, जिनके सहचर, अनुचर अनेक हैं. क्या सरकारी नीतियां झारखंड के आदिवासियों के लिए हैं? राज्य के सम्यक, सर्वागीण विकास के लिए हैं? क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा? राष्ट्रीय दल हों या क्षेत्रीय दल, इनमें अंतर कहां है? विचार का संहार हो चुका है. रामदयाल मुंडा, जिन्हें झारखंड में ‘संस्कृति पुरुष’ कहा जाता है, अपने अंतिम दिनों में कांग्रेस के साथ हुए. स्वतंत्र भारत के आरंभिक वर्षो से अब तक कांग्रेस के संग-सत्संग से झारखंड के नेताओं को जो भी मिला हो, झारखंड के आदिवासियों को क्या मिला? झारखंड के नेताओं-बौद्धिकों में देश और विश्व की ‘पॉलिटिकल इकोनॉमी’ की कितनी गहरी समझ रही, यह विचारणीय है.

सारा मामला चुनाव पर आकर रुका. विस्थापन, भूमि-अधिग्रहण, बेरोजगारी, जल-जंगल-जमीन पर अधिकार, जनजातीय भाषा-संस्कृति की रक्षा और विकास, शोषण, अन्याय, अत्याचार, हत्या, बलात्कार, लूट-खसोट, चोरी-डकैती, अपराध आदि से मुक्ति संबंधी सपनों के उत्तर कहां हैं? किस राष्ट्रीय-क्षेत्रीय दल में झारखंड के मूक-व्यक्त दर्द की पहचान है?

जयपाल सिंह मुंडा से लेकर हेमंत सोरेन तक और झारखंड पार्टी से लेकर झामुमो तक आदिवासी हितों की अब तक जैसी-जितनी बातें की जाती रही हैं, वे अमल में क्यों नहीं आयीं? बाबूलाल मरांडी से अब तक राज्य के जितने मुख्यमंत्री हुए, सभी आदिवासी रहे हैं. भाजपा का राज्य में अधिक शासन रहा है. दो-दो उप मुख्यमंत्री भी रहे हैं. कांग्रेस, झामुमो, भाजपा, आजसू ही नहीं, निर्दलीय भी सत्ता में रहे, फिर भी झारखंड के सीने में दर्द-तड़प और आंखों में निरंतर बहते आंसुओं का कारण क्या है? क्या इसका एकमात्र कारण अस्थिर सरकार है? क्या सचमुच इस चुनाव में युवा मतदाता झारखंड की तसवीर बदल देंगे? भाजपा का ‘पूर्ण बहुमत, संपूर्ण विकास’ का नारा कितना सही है? ‘संपूर्ण विकास’ का संबंध विकास और सर्वागीण दृष्टि से संभव है या मात्र ‘पूर्ण बहुमत’ से? आकर्षक, चमकीले और प्रभावशाली मुहावरे और स्लोगन से चुनाव जीता जा सकता है, विकास नहीं किया जा सकता.

विकास का मुहावरों से नहीं, नीतियों से संबंध होता है. झारखंड में विकास का कांग्रेसी-भाजपा एजेंडा एक है. झारखंड के विकास का सामान्य अर्थ यहां के आदिवासियों, गरीबों और दलितों का विकास है. क्या एमओयू, पीपीपी (पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप) से ही विकास संभव है?

झारखंड की सबसे बड़ी समस्या नक्सलवाद नहीं, लूट-महालूट है. इसमें कमोबेश सभी शामिल हैं. चुनावी राजनीति में कांग्रेस निरंतर हार रही है. 15 मई के बाद के राजनीतिक परिदृश्य को पहचानने में गलतियां की जा रही हैं. कांग्रेस अपनी बुद्धिहीनता के कारण झारखंड में भी असफल रहेगी. महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव के बाद भी कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों ने कोई सीख नहीं ली है. बीस माह का कांग्रेस-झामुमो गंठबंधन टूट चुका है. टिकट बंटवारे को लेकर भाजपा के असंतोष को समझना चाहिए. क्यों भाजपा के दो बार विधायक रहे लक्ष्मण स्वर्णकार ने भाजपा छोड़ी? भाजपा का चरित्र समझना जरूरी है, क्योंकि उसके अत्याधुनिक प्रचार साधनों से लैस 81 रथ, 81 विधानसभा क्षेत्रों में दौड़ेंगे. दल-बदलुओं को टिकट देने में भाजपा अग्रणी है.

भाजपा में कांग्रेस, झाविमो, झामुमो, जदयू, आजसू व राजद के नेता गये हैं. भाजपा के नेता कांग्रेस, झामुमो, झाविमो में जा चुके हैं. झाविमो के नेता कांग्रेस, झामुमो और भाजपा में शामिल हुए हैं. कांग्रेस, झामुमो, भाजपा, झाविमो में आने-जाने का सिलसिला जारी है. ये नेता व दल झारखंड के ‘विकास’ के लिए बेचैन हैं. इनकी बेचैनी समझी जा सकती है. मतदाता असली मुद्दों को समझ कर दल से ज्यादा प्रत्याशियों को मत दे सकते हैं.

झारखंड के चुनाव में मोदी बनाम अन्य नेता और दल हैं. उनकी बदौलत भाजपा में सबसे अधिक नेताओं ने प्रवेश किया है. मोदी अकेले खेवनहार हैं. भाजपा की सरकार अगर बनती है, जिसकी संभावना है, तो जाहिर है झारखंड का जो विकास होगा, वह ‘अप्रत्याशित’ होगा. मोदी कह चुके हैं कि अब राजनीतिक आंदोलन का कोई अर्थ नहीं है. क्या मोदी वचन आप्त वचन है?

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