मुचकुंद दुबे
पूर्व विदेश सचिव
भ्रष्टाचार और कमजोर सरकारों के कारण ही झारखंड में गरीबी जैसी समस्या जस की तस बनी हुई है. गरीबी और विकास में पिछड़ने के कारण राज्य में रोजगार के अवसर भी सीमित हो गये, इससे व्यापक स्तर पर पलायन हो रहा है.
यह सही है कि झारखंड गठन से वहां के लोगों को काफी उम्मीदें थीं, क्योंकि विकास के लिए सारी परिस्थितियां उसके पक्ष में थीं. बिहार से अलग होने के बाद पानी, ऊर्जा और खनिज के अधिकांश हिस्से झारखंड को मिले. यही नहीं, क्षेत्रफल के लिहाज से वहां आबादी भी कम थी. बिहार में हर साल बाढ़ से होनेवाली तबाही का खतरा भी वहां नहीं था. इसके अलावा झारखंड में कई स्थापित संस्थाएं भी थीं, जैसे इंडियन स्कूल ऑफ माइंस, बीआइटी मेसरा आदि. किसी क्षेत्र के विकास में परिस्थितियों के साथ ही मजबूत संस्थाओं का होना काफी मायने रखता है.
खनिज संसाधानों के अलावा झारखंड में ऐसे कई सुंदर स्थल भी हैं, जो पर्यटन के लिहाज से काफी प्रसिद्ध रहे हैं. अगर पर्यटन स्थलों का ही सही तरीके से विकास किया गया होता, तो राज्य को काफी कमाई होती और लोगों को रोजगार भी मिलता. लेकिन झारखंड की सबसे बड़ी त्रसदी रही है राजनीतिक नेतृत्व की कमी. राज्य को ऐसा कोई नेतृत्व नहीं मिला, जो निस्वार्थ भाव से काम कर सके. राज्य के हित की बजाय नेताओं ने निजी हितों को प्राथमिकता दी. झारखंड के राजनीतिक समीकरण भी ऐसे रहे कि कोई भी स्थायी सरकार नहीं बन पायी. छोटे-छोटे दलों के सहयोग से बनी सरकारें निजी हितों की पूर्ति के लिए बदलती रहीं. यही वजह है कि पिछले 15 वर्षो में देश के किसी भी राज्य के मुकाबले झारखंड में सबसे अधिक सरकारों का परिवर्तन हुआ है.
राजनीतिक नेतृत्व की कमजोरी का सीधा असर प्रशासन पर पड़ता है और वह ठीक से काम नहीं कर पाता है. प्रशासन की नाकामी से सरकारी व्यवस्था कमजोर होती है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. भ्रष्टाचार तो देश के सभी राज्यों में है, लेकिन झारखंड में भ्रष्टाचार का स्वरूप व्यापक है. कुछ साल पहले तक बिहार में भी हालात ऐसे ही थे, लेकिन एक सक्षम सरकार बनने के बाद वहां हालात बदले. छोटे स्तर पर वहां भी भ्रष्टाचार है, लेकिन झारखंड में हर स्तर पर भ्रष्टाचार फैल चुका है. ऐसा नहीं है कि राज्य में विकास के लिए नीतियां नहीं बनीं, लेकिन संसाधनों की लूट और भ्रष्टाचार के कारण इन नीतियों का फायदा लोगों को नहीं मिल पाया. लूट में शामिल लोगों ने दिखावे के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों से एमओयू पर हस्ताक्षर करना शुरू किया, जबकि इनमें से करीब 95 फीसदी प्रस्तावों पर ठीक से अमल नहीं हुआ.
कुछ लोग मानते हैं कि सिर्फ बाहर की पूंजी से ही विकास किया जा सकता है. लेकिन जब झारखंड अखंड बिहार का हिस्सा था, उस समय भी अधिकांश निजी पूंजी निवेश झारखंड में ही हुआ था. लेकिन इससे झारखंड की स्थितियों में कोई खास बदलाव नहीं दिखा. निजी पूंजी का प्रभाव सीमित होता है. निजी पूंजी ने कभी भी व्यापक स्तर पर क्षेत्र के विकास को प्रभावित नहीं किया है. समग्र विकास के लिए सरकार को खुद प्रयास करने होते हैं. सरकारी प्रयासों का प्रभाव व्यापक होता है. निजी पूंजी निवेशक ज्यादा फायदा कमाने के लिए ही निवेश करते हैं, जबकि सरकार का सामाजिक दायित्व होता है. झारखंड की सरकारों ने अब तक अपनी जिम्मेवारियों का सही तरीके से निर्वहन नहीं किया है.
भ्रष्टाचार और कमजोर सरकारों के कारण ही झारखंड में गरीबी जैसी समस्या जस की तस बनी हुई है. गरीबी और विकास में पिछड़ने के कारण राज्य में रोजगार के अवसर भी सीमित हो गये, इससे व्यापक स्तर पर पलायन हो रहा है. अगर वहां की सरकारों ने कृषि क्षेत्र के विकास पर ध्यान दिया होता, तो बड़े पैमाने पर पलायन को रोकने में मदद मिलती. गरीबी, अशिक्षा, भ्रष्टाचार और लचर राजनीतिक नेतृत्व के कारण ही राज्य में नक्सलवाद की समस्या पहले से अधिक गंभीर हुई है.
आज राज्य के अधिकांश जिले नक्सल प्रभावित है. क्या इसी उम्मीद में झारखंड का गठन किया गया था? मेरा मानना है कि झारखंड की मौजूदा दुर्दशा के लिए वहां के सभी राजनीतिक दल जिम्मेवार हैं और वहां जैसे हालात हैं, इसके सुधरने की भी कोई उम्मीद दिखायी नहीं दे रही है. ऐसे में वहां के लोगों को तय करना होगा कि वे विकसित झारखंड के लिए एक मजबूत और दूरदर्शी सरकार के गठन को सुनिश्चित करें, नहीं तो वहां लूट-खसोट का खेल चलता रहेगा.
(लेख बातचीत पर आधारित)