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लावारिस बचपन को बचाने की कोशिश

सरकार चाहे, तो क्या नहीं हो सकता! हमारे देश में कई जगहों पर आज भी बेटियों को उपेक्षित जिंदगी जीनी पड़ती है. कहीं उन्हें जन्म लेने से पहले गर्भ में ही मार डाला जाता है, तो कहीं जन्म लेते ही भगवान भरोसे लावारिस छोड़ दिया जाता है. लेकिन तमिलनाडु सरकार की एक योजना के तहत […]

सरकार चाहे, तो क्या नहीं हो सकता!

हमारे देश में कई जगहों पर आज भी बेटियों को उपेक्षित जिंदगी जीनी पड़ती है. कहीं उन्हें जन्म लेने से पहले गर्भ में ही मार डाला जाता है, तो कहीं जन्म लेते ही भगवान भरोसे लावारिस छोड़ दिया जाता है. लेकिन तमिलनाडु सरकार की एक योजना के तहत उपेक्षित कन्या शिशुओं को एक बेहतर जिंदगी मयस्सर करायी जा रही है.

राजीव चौबे

तमिल नाडु के नामक्कल जिले में स्थित अन्नाई मथाम्मल शीला इंजीनियरिंग कॉलेज से कंप्यूटर साइंस में मास्टर्स डिग्री की पढ़ाई कर रही अक्षया की आंखों में भविष्य को लेकर वैसे ही सपने हैं, जैसे उनकी हमउम्र अन्य लड़कियों के होते हैं. लेकिन हां, दक्षिण भारत के सलेम जिले में जन्मी और तंबरम के एसओएस चिल्ड्रेंस विलेज में पली-बढ़ी अक्षया के बारे में एक बात औरों से अलग यह है कि जन्म देते ही इन्हें इनके मां-बाप ने कूड़े के ढेर पर छोड़ दिया था.

दक्षिणी तमिलनाडु में बढ़ते कन्या भ्रूण हत्या और कन्या शिशुओं को उनके मां-बाप द्वारा बेसहारा छोड़ दिये जाने के बढ़ते मामलों को देखते हुए 1992 में तमिलनाडु राज्य सरकार की एक पहल पर शुरू की गयी एक योजना के तहत बच्चे के अभिभावकों को यह सुविधा दी गयी कि वे अगर अपने बच्चों को पालने में असमर्थ हैं तो बिना अपना नाम जाहिर किये, वे अपने बच्चे को राज्य सरकार द्वारा संचालित (क्रेडल बेबी होम्स) पालना घरों को सुपुर्द कर सकते हैं, ताकि वे अपने हक की जिंदगी जी सकें.

सलेम जिले से शुरू हुई इस योजना ने मदुरई, डिंडीगुल, थेनी और धर्मपुरी सहित उन सभी जिलों में अपनी पहुंच बनायी, जहां कन्या भ्रूण हत्या के मामले ज्यादा दर्ज किये जा रहे थे. धीरे-धीरे इसका प्रसार पूरे राज्यभर में हुआ.

उपेक्षित बच्चों के लिए बेहतर जिंदगी उपलब्ध करानेवाला अनाथ आश्रम, एसओएस चिल्ड्रेंस विलेज, इसी योजना के तहत काम करता है. इसके निदेशक नांबी वरथराजन बताते हैं कि हम यहां बच्चों की देखरेख और मार्गदर्शन उनकी औपचारिक शिक्षा पूरी होने और रोजगार पाने तक करते हैं. लेकिन चूंकि अक्षया शुरू से ही मेधावी रही है, उसका कैरियर संवारने की हमारी योजना है.

इस अनाथ आश्रम में अक्षया के साथ ही पवित्र, मीरा और भुवना भी रहती हैं. इनकी भी कहानी अक्षया जैसी ही है. कभी कचरे के ढेर से उठा कर लायी गयीं ये लड़कियां आज अपने उज्‍जवल भविष्य के सपने बुन रही हैं. 1992 में शुरू हुई इस योजना के तहत तमिलनाडु में ऐसे कुल 188 पालना घर चलाये जा रहे हैं, जहां मां-बाप अपने अवांछित और उपेक्षित बच्चे को सुपुर्द कर जाते हैं या खबर मिलने पर इन संस्थानों के अधिकारी किसी कूड़े के ढेर या कचरे की पेटी में लावारिस पड़े बच्चों को ले आते हैं.

बाद में इन बच्चों को सरकारी मान्यता प्राप्त अनाथ आश्रमों में या तो गोद लेने के लिए दे दिया जाता है या कल्याण विभाग उनके रहने-सहने का खर्च उठाता है. तमिलनाडु राज्य सरकार के आंकड़ों के मुताबिक, इस योजना की शुरुआत से लेकर अक्तूबर 2012 तक 4,31,000 लड़कियों को इसका लाभ मिला है और 4,092 लावारिस बच्चों को संरक्षण दिया गया है, जिनमें 3,432 लड़कियां और 660 लड़के शामिल थे.

राज्य सरकार की इस योजना का सीधा असर लिंग अनुपात पर भी पड़ा है. 2001 की जनगणना के मुताबिक, धर्मपुरी में प्रत्येक एक हजार पुरुषों पर महिलाओं की संख्या महज 826 थी, जो 2011 की जनगणना के मुताबिक 911 हो गयी. ऐसे ही, सलेम जिले में यह आंकड़ा 851 से बढ़कर 917 पर पहुंच गया. इसके साथ ही राज्य के भी लिंगानुपात में सुधार हुआ, जो 10 सालों में 942 से बढ़कर 946 हो गया. इसे ध्यान में रखते हुए, पिछले 10 सालों में लिंगानुपात में गिरावट दर्ज करनेवाले राज्य के पांच जिलों-कुड्डालोर, अरियालुर, पेरंबुलुर, विझुपुरम और थिरुवन्नामलई को भी इस योजना से जोड़ने का विचार राज्य सरकार कर रही है.

अपनी शुरुआत से लेकर अब तक लगभग पांच हजार बच्चों को नयी जिंदगी दे चुकी इस योजना पर समय-समय पर सवाल भी उठते रहे हैं. मसलन, मां-बाप द्वारा बच्चों, खासकर लड़कियों, को खुद से अलग करने और बेसहारा छोड़ने की प्रवृत्ति को इस योजना की वजह से एक अघोषित सरकारी स्वीकृति मिली है. और इसकी वजह से कई बच्चे अपने मां-बाप के साथ रहने, मां का दूध पीने और अपनी संस्कृति और समाज में पलने-बढ़ने के अधिकार से महरूम हो रहे हैं. लेकिन इन सब आरोपों का जवाब देते हुए राज्य का समाज कल्याण विभाग कहता है कि अभिभावक अपनी किसी मजबूरी से ही अपने बच्चे को हमारे यहां छोड़ जाते हैं. और जिन बच्चियों को कूड़े के ढेर पर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है, उनके लिए तो ये अनाथ आश्रम ही अच्छी जगह हैं, जहां उन्हें कम से कम वह प्यार, देखभाल और सुविधाएं तो मिलती हैं जो उन्हें शायद उनके मां-बाप के घर नहीं मिलतीं!

(इनपुट : फाउंटेन इंक)

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