अब सिर्फ छलावे से नहीं चलेगा काम
पांच साल बाद एक फिर झारखंड में चुनाव महापर्व की शुरुआत हो गयी है. इसी के साथ शुरू हो गयी है, नेताओं के दल बदलने की प्रक्रिया. चुनावी मैदान मार कर सत्ता के गलियारे तक पहुंचने के लिए राजनीतिक पार्टियों के नेता अब एक दल की विचारधारा के अनुयायी या समर्थक न रह कर सभी […]
पांच साल बाद एक फिर झारखंड में चुनाव महापर्व की शुरुआत हो गयी है. इसी के साथ शुरू हो गयी है, नेताओं के दल बदलने की प्रक्रिया. चुनावी मैदान मार कर सत्ता के गलियारे तक पहुंचने के लिए राजनीतिक पार्टियों के नेता अब एक दल की विचारधारा के अनुयायी या समर्थक न रह कर सभी दलों की विचारधाराओं को अपना रहे हैं.
‘जहां दाल गल जाये, वहीं गला लो’ की नीति के आधार पर नेताओं ने कपड़े की तरह दल बदलना शुरू कर दिया है. किसी को फलां सीट से टिकट नहीं मिला, तो दल बदल लिया या फिर किसी को किसी पार्टी ने टिकट नहीं दिया, तो वह बागी होकर अन्य दल में शामिल हो गया.
इन सबसे ऊपर यह कि इससे आखिरकार फायदा किसे होनेवाला है? राज्य की जनता को लाभ मिलेगा या फिर सत्ता में दाखिल होकर राजनेता लाभान्वित होंगे? नेताओं की इस प्रकार की हरकत पर राज्य के मतदाताओं की पैनी नजर है. अब नेता अपनी विचारधारा नहीं बदलेंगे, बल्कि यहां के मतदाता अपना मत बदलेंगे. आज झारखंड को बिहार से अलग हुए 14 साल से अधिक का समय हो गया है, लेकिन अभी तक यहां का विकास अन्य सहवर्गीय राज्यों की तुलना में गौण है.
हर चुनाव के बाद सरकार में शामिल दल यही कहते हैं कि हमें तो मतदाताओं ने बहुमत ही नहीं दिया. लेकिन क्या कभी किसी राजनीतिक दल ने यह सोचा है कि जनता को दोष देने से पहले जनता के हित में कुछ काम भी किया जाये. बीते 14 सालों से यहां के नेता सरकारी खजाना लूट रहे हैं. यहां प्रजातंत्र की जगह लूटतंत्र नजर आता है. राजनेताओं को अब यह भली-भांति समझ लेना चाहिए कि मतदाता जागरूक हो गये हैं और सिर्फ छलावे से काम नहीं चलेगा.
रमेश सिंह, जमशेदपुर