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मोदी सरकार और योग्यता का संकट
आकार पटेल वरिष्ठ पत्रकार मोदी को तेजतर्रार लोगों को साथ लाने की आवश्यकता है, जो उनकी पार्टी में बहुत अधिक संख्या में नहीं हैं. और, यह उनके और उनकी सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे जो लोग उपलब्ध हैं, उन्हें वे अपनी टीम में शामिल नहीं करना चाहते हैं. लगभग छह माह पहले जब […]
आकार पटेल
वरिष्ठ पत्रकार
मोदी को तेजतर्रार लोगों को साथ लाने की आवश्यकता है, जो उनकी पार्टी में बहुत अधिक संख्या में नहीं हैं. और, यह उनके और उनकी सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे जो लोग उपलब्ध हैं, उन्हें वे अपनी टीम में शामिल नहीं करना चाहते हैं.
लगभग छह माह पहले जब केंद्रीय मंत्रिमंडल ने शपथ-ग्रहण किया था, तब एक ही व्यक्ति को दो बेहद महत्वपूर्ण मंत्रालयों की जिम्मेवारी दी गयी थी. अरुण जेटली ने रक्षा और वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला था, जो संघीय सरकार के चार सबसे महत्वपूर्ण विभागों (इस श्रेणी में दो अन्य विभाग गृह और विदेश मंत्रालय हैं) में हैं.
कार्यभार संभालने के दिन जेटली ने कहा था कि वे कुछ सप्ताह के लिए ही रक्षा मंत्रालय का काम संभाल रहे हैं, जब तक कोई अन्य इसकी जिम्मेवारी नहीं ले लेता. उस समय यह अनुमान लगाया जा रहा था कि यह ‘कोई’ पूर्व पत्रकार अरुण शौरी हो सकते हैं. बहरहाल, प्रधानमंत्री के दिमाग में चाहे जिस व्यक्ति का नाम रहा हो, वह व्यक्ति नहीं आया और मई से नवंबर तक का समय बीत गया. यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी के बेहतरीन लोगों में से एक गोवा के मुख्यमंत्री मनोहर पर्रिकर को केंद्रीय मंत्रिमंडल में लाया गया है.
अब सवाल यह उठता है कि किसी मुख्यमंत्री, विशेष रूप से योग्य माने जानेवाले मुख्यमंत्री, को हटा कर दिल्ली क्यों लाया जाना चाहिए? कोई बाहरी व्यक्ति को क्यों लाया जाना चाहिए, जबकि लोकसभा और राज्यसभा के 300 से अधिक सांसदों में से मोदी चुनाव कर सकते हैं? और अगर पर्रिकर ही वह व्यक्ति हैं, जिनके लिए अरुण जेटली कुर्सी को गर्म रखे हुए थे, तो फिर उन्हें पहले क्यों नहीं लाया गया? इससे स्पष्ट है कि मोदी के दिमाग में कोई और नाम चल रहा था, जिसे सरकार में लाया नहीं जा सका.
मेरी समझ में उचित प्रतिभा की कमी की समस्या आने के दो कारण हैं. पहली समस्या तो आम है. कोई भी कठोर विचारधारा, विशेष रूप से हिंदुत्व जो वास्तविक या अनुमानित अन्याय के विरुद्ध क्रोध और असंतोष पर आधारित है, विशेष तरह के व्यक्ति को आकृष्ट करती है. हमें यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि जिन लोगों को गुरु गोलवलकर, वीर सावरकर और दीन दयाल उपाध्याय जैसे लोगों के लेख आकर्षित करते हों, वे लोग अपनी सोच में परिष्कृत होंगे. सपाट सोच रखनेवाले लोग ही ऐसी कठोर विचारधारा के समर्थक हो सकते हैं.
कांग्रेस विचारधारा आधारित पार्टी नहीं है, इसी कारण से 200 सीटों के बावजूद उसके पास 280 सीटों वाली भाजपा से अधिक संख्या में योग्य नेता थे. ऐसा इसलिए नहीं कि वह एक बेहतर राजनीतिक दल है, बल्कि इसलिए कि वह अपने शीर्ष स्तर पर बेहतर प्रतिभाओं को आकर्षित करती है. कांग्रेस के पास वित्त मंत्री के रूप में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और प्रणब मुखर्जी जैसे प्रथम श्रेणी के विकल्प थे. दूसरी ओर, नरेंद्र मोदी के पास उपलब्ध एकमात्र वित्त मंत्री को रक्षा मंत्रालय के लिए भी समय निकालने के लिए विवश होना पड़ा.
भाजपा में भी ऐसे नेता हैं, जो अपनी सोच में लचीलापन और व्यावहारिकता प्रदर्शित करते हैं (उदाहरणस्वरूप अरुण जेटली और मनोहर पर्रिकर), लेकिन वे विचारधारा को लेकर भी नरम हैं और हिंदुत्व के मसलों पर भी अधिक लचीले हैं. यही स्थिति अन्य हिंदुत्व पार्टी शिव सेना की भी है. इसके एक नम्र नेता सुरेश प्रभु को मोदी अपनी ओर खींच लाये हैं. इस तरह ये तीन लोग आम तौर पर विचारधारात्मक वातावरण में अपवाद हैं.
दूसरी समस्या अधिक विशिष्ट है. इसका संबंध प्रधानमंत्री की असुरक्षा की भावना से है. उनके पास कुछ प्रतिभाशाली और अनुभवी लोग उपलब्ध हैं, लेकिन उन्होंने इन लोगों का उपयोग नहीं करने का निर्णय लिया है. बहाना या तो यह बनाया गया कि वे बहुत उम्रदराज हैं (लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी, दोनों लोकसभा में हैं, लेकिन उनके पास कोई काम नहीं है) या फिर वे बहुत युवा हैं (वरुण गांधी, जो महत्वाकांक्षी और तेजतर्रार हैं तथा अधिक जिम्मेवारी के लिए आग्रही भी हैं). इन लोगों को बाहर रखने का वास्तविक कारण यह है कि मोदी इनसे असुरक्षित महसूस करते हैं और मंत्रिमंडल में इनके साथ काम नहीं करना चाहते हैं. ठीक यही रवैया उन्होंने मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात में अपनाया था, जहां केशुभाई पटेल और काशीराम राणा जैसे अनुभवी लोग अपने समर्थकों के साथ सत्ता से बाहर रखे गये थे. लेकिन इस रवैये को दिल्ली में उसी तरह से लागू करने में बाधा है.
जैसा कि किसी भी राज्य सरकार के साथ है, गुजरात की सरकार चलाते समय नरेंद्र मोदी का ध्यान मुख्य रूप से शासन पर था. इसका मतलब नीतियों को लागू करना था, जो ज्यादातर केंद्र सरकार से भेजी जाती थीं. कानून बनाना मुख्यमंत्री के काम-काज का बड़ा हिस्सा नहीं होता है, क्योंकि इस संबंध में अधिकतर अधिकार केंद्र सरकार ने अपने पास रखा हुआ है. जब वाजपेयी सरकार ने विद्युत क्षेत्र में निजी कंपनियों को आने की अनुमति दी, तो नरेंद्र मोदी ने गुजरात में उसे शानदार तरीके से लागू किया. आज गुजरात में अधिशेष विद्युत उत्पादन होता है, जिसमें अधिकांश निजी क्षेत्र द्वारा किया जाता है.
अपने शासन में मोदी ने नौकरशाहों के एक समूह को सशक्त बनाया, जिन्होंने राजनेताओं, जो कि मंत्री थे, को कमजोर कर मंत्रालयों का काम संभाला. तब सिर्फ दो ही ऐसे मंत्री- सौरभ पटेल, जो आर्थिक मामलों से संबंधित मंत्रालयों का काम देखते थे और अमित शाह, जो उप गृह मंत्री थे- थे, जिनके पास वास्तविक जिम्मेवारी थी. इनमें से भी किसी को एक दशक तक कैबिनेट रैंक नहीं दिया गया, ताकि वे समझ सकें कि उनके काम की निगरानी मोदी नौकरशाहों के माध्यम से करेंगे.
दिल्ली आने के बाद उनके काम का स्वरूप बदल गया है. नरेंद्र मोदी को पालन पर कम तथा कानून व नीतियां बनाने पर अधिक ध्यान देना चाहिए. उन्होंने गुजरात की तर्ज पर नियंत्रण रखने के लिए कुछ विश्वस्त मंत्रियों, जैसे- पीयूष गोयल और निर्मला सीतारमण, को बहुत काम दे दिया है. ये ऊर्जा, वाणिज्य और उद्योग जैसे मंत्रालय संभालते हैं, जो मोदी के पसंदीदा विभाग हैं.
यह ध्यान रखना जरूरी है कि संघीय सरकार का मुख्य कार्य नीति-निर्धारण और कानून बनाना है.
यह नौकरशाहों का क्षेत्र नहीं है. उनका काम उन्हें समुचित रूप से लागू करना है. इस नयी जिम्मेवारी को निभाने के लिए नरेंद्र मोदी को तेजतर्रार लोगों को साथ लाने की आवश्यकता है, जो उनकी पार्टी में बहुत अधिक संख्या में नहीं हैं. और, यह उनके और उनकी सरकार के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसे जो लोग उपलब्ध हैं, उन्हें वे अपनी टीम में शामिल नहीं करना चाहते हैं.
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